अब इसे विडंबना कहा जाए‚ संयोग या कुछ और कि जिन राम के राज के अपने सपने को साकार करने के लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आजीवन कुछ उठा नहीं रखा‚ उनकी राजधानी या कि जन्मभूमि अयोध्या वे सिर्फ दो बार पहुंच सके। अलबत्ता‚ अपने संदेशों से इन यात्राओं को महत्वपूर्ण बना दिया।
10 फरवरी‚ 1921 को उनकी पहली यात्रा के समय कहते हैं कि अयोध्या और उसके जुडवा शहर फैजाबाद में उत्साह और उमंग की ऐसी अभूतपूर्व लहर छाई थी कि लोग उनकी रेलगाडी आने के निर्धारित समय से घंटों पहले ही रेलवे स्टेशन से लेकर सभा स्थल तक की सडक और उसके किनारे घरों की छतों पर जा खडे हुए थे। फैजाबाद के भव्य चौक पर स्थित ऐतिहासिक घंटाघर पर शहनाई बज रही थी–‘हमें आजाद कराने को श्री गांधी जी आते हैं।’ सभा फैजाबाद और अयोध्या के संधि स्थल पर जालपा नाले के पश्चिम और सडक के उत्तर तरफ स्थित मैदान में होनी थी। रेलगाडी स्टेशन पर आई और तिरंगा लहराते हुए स्थानीय कांग्रेसियों के दो नेता–आचार्य नरेन्द्रदेव व महाशय केदारनाथ–गांधी जी के डिब्बे में गए तो उनका बडी ही अप्रिय स्थिति से सामना हुआ। पता चला कि गांधी जी ने गाडी के फैजाबाद जिले में प्रवेश करते ही डिब्बे की अपने आसपास की सारी खिडकियां बंद कर ली थीं‚ और किसी से भी मिलने–जुलने या बातचीत करने से मना कर दिया था। दरअसल‚ वे इस बात को लेकर नाराज थे कि अवध में चल रहा किसान आंदोलन खासा उत्पाती हो चला था और उसूलों व सिद्धांतों से ज्यादा युद्धघोष की भाषा समझता था। खासकर फैजाबाद जिले के किसान तो एकदम से हिंसा के रास्ते पर चल पडे थे। यह स्थिति गांधी जी की बर्दाश्त के बाहर थी‚ लेकिन अनुनय–विनय करने पर उन्होंने यह बात मान ली कि वे सभा में चलकर लोगों से अपनी नाराजगी ही जता दें। गांधी जी मोटर पर सवार होकर जुलूस के साथ चले तो देखा कि खिलाफत आंदोलन के अनुयायी हाथों में नंगी तलवारें थामे उनके स्वागत में खडे हैं। उन्होंने वहीं तय कर लिया कि वे अपने भाषण में हिंसक किसानों के साथ इन अनुयायियों की भर्त्सना से भी परहेज नहीं करेंगे।
सूर्यास्त बाद के नीम अंधेरे में बिजली और लाउडस्पीकरों के अभाव में उन्हें सुनने को आतुर भारी जन समूह से पहले तो उन्होंने हिंसा का रास्ता अपनाने की बजाय खुद कष्ट सह कर आंदोलन करने को कहा। फिर साफ और कडे शब्दों में किसानों की हिंसा और तलवारधारियों के जुलूस की निंदा की। कहाः हिंसा बहादुरी का नहीं कायरता का लक्षण है और तलवारें कमजोरों का हथियार हैं।’ गौरतलब है कि उन्होंने देशवासियों को ये दो मंत्र देने के लिए उस अयोध्या को चुना जिसके राजा राम के राज्य की कल्पना साकार करने के लिए वे अपनी अंतिम सांस तक प्रयत्न करते रहे। इस घटना से पता चलता है कि वे स्वतंत्रता के संघर्ष में सत्य और अहिंसा जैसे मूल्यों और नैतिक सैद्धांतिक मानदंडों के कितने कठोर हिमायती थे। देश जानता है कि चौरी–चौरा कांड के बाद उन्होंने समूचा असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया था।
१० फरवरी‚ १९२१ को वाराणसी में काशी विद्यापीठ का शिलान्यास करके उसी दिन वे ट्रेन से फैजाबाद पहुंचे तो अयोध्या के साधुओं के बीच जाकर उनको आंदोलन से जोडने को भी यात्रा के उद्देश्यों में शामिल कर रखा था। देर शाम फैजाबाद की सभा को संबोधित कर वे ११ फरवरी की सुबह अयोध्या के सरयू घाट पर पंडित चंदीराम की अध्यक्षता में हो रही साधुओं की सभा में पहुंचे तो थकान के मारे उनके लिए खडे होकर बोलना मुश्किल हो रहा था।
बैठे–बैठे ही साधुओं को संबोधित हुए उन्होंने कहा‚ ‘कहा जाता है कि भारतवर्ष में ५६ लाख साधु हैं। ये ५६ लाख बलिदान के लिए तैयार हो जाएं तो मुझे विश्वास है कि अपने तप तथा प्रार्थना से भारत को स्वतंत्र करा सकते हैं। लेकिन ये अपने साधुत्व के पथ से हट गए हैं। इसी प्रकार से मौलवी भी भटक गए हैं। साधुओं और मौलवियों ने कुछ किया है तो केवल हिंदुओं तथा मुसलमानों को एक दूसरे से लडाया है। मैं दोनों के लिए कह रहा हूं.यदि आप अपने धर्म से वंचित हो जाएं‚ विधर्मी हो जाएं और अपना धर्म समाप्त कर दें‚ तब भी ईश्वर का कोई ऐसा आदेश नहीं हो सकता जो आपको ऐसे दो लोगों के बीच शत्रुता उत्पन्न करने की अनुमति दे‚ जिन्होंने एक दूसरे के साथ कोई गलती नहीं की है।’ अपने भाषण का समापन उन्होंने यह कहकर किया‚ ‘मैं अधिक नहीं कहना चाहता। संस्कृत के विद्यार्थी यहां आए हुए हैं। मैं उनसे कहता हूं कि वे अपने मुसलमान भाइयों के लिए जीवन का बलिदान करेंहर विद्यार्थी जो निर्वाण हेतु ज्ञान उपार्जन करना चाहता है‚ वह समझ ले कि अंग्रेजों से ज्ञान उपार्जन करना जहर का प्याला पीना है। इस जहर के प्याले को स्वीकार मत कीजिए। सही रास्ते पर आइए.यहां एक मूर्ति है‚ जिसे विदेशी वस्त्र अर्पित किए जाते हैं। यदि आप स्वयं विदेशी वस्त्र नहीं चाहते तो इस प्रथा का अंत कर दीजिए। आप स्वदेशी हो जाइए। अपने भाइयों तथा बहनों द्वारा काते हुए धागों का प्रयोग कीजिए। मैं आशा करता हूं कि यहां के साधुओं के पास जो कुछ है‚ उसका कुछ अंश वे मुझे दे देवेंगे.साधु पवित्र माने जाते हैं और वे जो कुछ दे सकें‚ दे देवें। स्वराज्य के लिए यह सहायक होगा।’ गांधी जी के इस भाषण का अंग्रेजी अनुवाद लखनऊ स्थित उत्तर प्रदेश राजकीय अभिलेखागार में संरक्षित है‚ जो तत्कालीन गोपनीय श्रेणी के अभिलेखों में से एक है।
इस भाषण से पहले वे फैजाबाद की सभा में दक्षिण अफीका में अपने सत्याग्रह पर प्रकाश डालकर लोगों से अंग्रेजी सरकार से शांतिपूर्वक असहयोग करने‚ विदेशी वस्त्रों को त्यागने‚ सरकारी सहायताप्राप्त विद्यालयों का वहिष्कार करने और चरखा चलाने तथा सूत कातने का आह्वान कर चुके थे। अयोध्या की सभा में उन्होंने यह कहकर इस आह्वान को नहीं दोहराया था कि आज मैं उस विषय पर नहीं बोलना चाहता जिस पर कल रात्रि बोला था।
१९२९ में वे अपने हरिजन फंड के लिए धन जुटाने के सिलसिले में एक बार फिर अपने राम की राजधानी आए। फैजाबाद शहर के मोतीबाग में हुई सभा में उन्हें फंड के लिए चांदी की एक अंगूठी प्राप्त हुई तो वे वहीं उसकी नीलामी कराने लगे। एक सज्जन ने पचास रुपये की बोली लगाई और नीलामी उन्हीं के नाम पर खत्म हो गई। तब वायदे के मुताबिक उन्होंने वह अंगूठी उन्हें पहना दी। सज्जन के पास सौ रुपये का नोट था। उन्होंने उसे गांधी जी को दिया और बाकी के पचास रुपये वापस पाने के लिए वहीं खडे रहे। मगर गांधी जी ने उन्हें यह कहकर लाजवाब कर दिया कि हम तो बनिया हैं‚ हाथ आये हुए धन को वापस नहीं करते। वह दान का हो तब तो और भी नहीं। इस पर उपस्थित लोग हंस पडे और सज्जन उन्हें प्रणाम करके खुशी खुशी लौट गए।
इस यात्रा में गांधी जी धीरेन्द्र भाई मजूमदार द्वारा अकबरपुर में स्थापित देश के पहले गांधी आश्रम भी गए थे। वहां ‘पाप से घृणा करो पापी से नहीं’ वाला अपना बहुप्रचारित संदेश देते हुए अंग्रेज पादरी स्वीटमैन के बंगले में ठहरे। आश्रम की सभा में लोगों से संगठित होने‚ विदेशी वस्त्रों का त्याग करने‚ चरखा चलाने‚ जमींदारों के जुल्मों का अहिंसक प्रतिरोध करने‚ शराबबंदी के प्रति समर्पित होने और सरकारी स्कूलों का वहिष्कार करने को कहा। फिर अवध के किसानों ने भी हिंसा का रास्ता त्याग दिया।