कृष्ण जन्मभूमि-शाही ईदगाह विवाद मामले में कोर्ट आदेश के बाद सोमवार यानी 2 जनवरी से सर्वे का काम किया जाएगा. सर्वे की रिपोर्ट 20 जनवरी को सौंपी जाएगी. इस महीने इस विवाद की कुल 4 सुनवाई भी होनी है.
300 साल के विवाद के बाद 1968 में कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और मुस्लिम पक्षकारों की बीच 13.37 एकड़ की जमीन को लेकर समझौता हुआ था. समझौते के तहत परिसर में शाही मस्जिद को 2.37 एकड़ की जमीन दी गई है.
1968 में क्या समझौता हुआ था?
याचिकाकर्ता की दलील के मुताबिक जिस जगह पर यह ईदगाह मस्जिद बनाई गई है, वहीं पर कंस का वो कारागार था जहां पर श्री कृष्ण का जन्म हुआ था. मुगल सम्राट औरंगजेब ने साल 1669-70 के दौरान श्री कृष्ण जन्मभूमि स्थल पर बने मंदिर को तोड़ दिया और वहां पर इस ईदगाह मस्जिद का निर्माण करवा दिया.
1958 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के नाम से एक सोसाइटी बनाई गई थी, जिसके पास कृष्ण जन्मभूमि का अधिकार था. बाद में इस कमेटी का नाम बदलकर 1977 में श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान कर दिया गया. 12 अक्टूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और शाही मस्जिद ईदगाह के प्रतिनिधियों के बीच विवाद शांत करने के लिए एक समझौता हुआ.
समझौते के तहत 13.37 एकड़ भूमि पर श्री कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और मस्जिद दोनों बने रहेंगे. इस समझौते में शाही ईदगाह को 2.37 और कृष्ण जन्मभूमि को 11 एकड़ की जमीन मिली. 17 अक्टूबर 1968 को यह समझौता पेश किया गया और 22 नवंबर 1968 को सब रजिस्ट्रार मथुरा के यहां इसे रजिस्टर किया गया था.
सुलह जब हो गई तो सुनवाई क्यों?
फरवरी 2020 में मथुरा सिविल कोर्ट में एक याचिका दाखिल की गई थी. याचिका में कहा गया था कि शाही मस्जिद के नाम से जो 2.37 एकड़ की जमीन आवंटित है, उसे कृष्ण जन्मभूमि को दिया जाए.
याचिकाकर्ता ने दलील में कहा कि 1968 का समझौता अवैध है और इसे देवता के अधिकार कानून के तहत चुनौती दिया जा सकता है. दरअसल, भारतीय कानून के मुताबिक एक देवता को प्राकृतिक व्यक्ति के बजाय एक न्यायिक व्यक्ति माना गया है और उसे नाबालिग का भी दर्जा दिया गया है.
ऐसे में देवी-देवताओं को संपत्ति अर्जित करने, बेचने, खरीदने, ट्रांसफर करने और कोर्ट केस लड़ने समेत सभी कानूनी अधिकार होते हैं. देवी-देवता अपने पुजारी के जरिए कोर्ट में केस लड़ सकते हैं.
मई 2022 में कोर्ट ने दिया सुनवाई का आदेश
लगभग 26 महीने की सुनवाई के बाद मथुरा जिला कोर्ट ने मई 2022 में इस मामले की सुनवाई का आदेश दिया. कोर्ट ने कहा कि सिविल कोर्ट में मामला सुना जाएगा. इस केस में यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, ईदगाह मस्जिद कमिटी, श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को पक्ष बनाया गया.
दिसंबर 2022 में कोर्ट ने विवादित भूमि पर सर्वे कराने का आदेश दिया. यह सर्वे करीब 18 दिनों तक चलेगा.
विवाद में 2 बातें, जिससे ईदगाह कमेटी के तेवर गर्म
1. 1991 में प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट लागू हुआ था, जिसमें कहा गया था कि 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता.
2. 2020 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस तरह की याचिका पहले ही खारिज कर चुकी है, तो फिर सिविल कोर्ट ने इस पर कैसे सुनवाई का आदेश दे दिया?
विवाद से बीजेपी-आरएसएस ने दूरी बनाई
छोटे नेताओं के बयान के बीच बीजेपी ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह विवाद से दूरी बना रखी है. अक्टूबर 2022 में एक मीडिया को दिए इंटरव्यू में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि यह हमारा एजेंडा नहीं रहा है. बीजेपी और सरकार की सुनवाई से कोई लेना-देना नहीं है. किसी संगठन ने याचिका दाखिल की है. मामला कोर्ट में है, इसलिए कोई टिप्पणी भी नहीं करूंगा.
शाह की इस टिप्पणी के बाद बीजेपी के नेता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इस मुद्दे पर बात करने से कतराते हैं.
वहीं जून में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने बड़ा बयान देते हुए कहा था कि संघ अब मंदिर मुक्ति के लिए कोई भी आंदोलन नहीं चलाएगा. मंदिर-मस्जिद के किसी भी विवाद को संघ से जोड़कर नहीं देखा जाए.
आखिर वजह क्या है?
1. सत्ता में होना सबसे बड़ी वजह- बीजेपी और आरएसएस ने राम जन्मभूमि विवाद को उस वक्त हवा दी, जब पार्टी के पास सिर्फ 2 सांसद थे. 1984 के चुनाव में पार्टी की करारी हार हुई थी. अब हालात बिल्कुल बदल गए हैं. बीजेपी केंद्र के साथ ही 20 से ज्यादा राज्यों में सत्ता में है. लोकसभा और राज्यसभा दोनों जगह पर पार्टी के पास बहुमत की जुगाड़ है.
2. ईसाई और पसमांदा मुस्लमानों का भी वोट चाहिए- नई स्ट्रैटजी के तहत बीजेपी पसमांदा मुस्लमान और ईसाई समुदाय के बीच जगह बनाने की कोशिश कर रही है. ऐसे में जन्मभूमि का मुद्दा उठाकर पार्टी इन समुदायों के बीच बैकफुट पर नहीं जाना चाहती है.
ईसाई वोटर्स का करीब 19 लोकसभा सीटों पर सीधा असर है, जबकि मुस्लिम वोटरों में पसमांदा की आबादी सबसे अधिक है. कुछ जगहों पर पसमांदा मुस्लमानों ने बीजेपी के पक्ष में वोट किया भी है.
3. प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट में बदलाव करना पड़ेगा- अयोध्या का जब मुद्दा उठा था, तो उस वक्त प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट भारत में नहीं लागू था, लेकिन 1991 के बाद केंद्र ने इसे लागू किया है. बीजेपी अगर इस मुद्दे को उठाती है, तो सबसे पहले उसे प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट को खत्म करना पड़ेगा. इस एक्ट का मामला भी अभी सुप्रीम कोर्ट में है. ऐसे में पार्टी वेट एंड वाच की स्थिति अपना रही है.