केरल हाईकोर्ट हाल में दिए अपने एक बेहद सधे और संतुलित बयान को लेकर सुर्खियों में है। अदालत कोझिकोड मेडिकल कॉलेज की पांच छात्राओं की याचिका पर सुनवाई के दौरान टिप्पणी कर रही थी। उच्च शिक्षण संस्थानों के छात्रावासों में रह रही युवतियों को रात साढ़े नौ बजे के बाद बाहर जाने–आने से रोक लगाने संबंधी निर्देश के खिलाफ याचिका की सुनवाईके दौरान न्यायपीठ ने सवाल दागा कि लड़कियों और महिलाओं के ही रात में बाहर निकलने पर पाबंदी क्योंॽ सवाल वाजिब है कि महिलाओं पर ही नियंत्रण की आवश्यकता क्यों हैॽ क्या लड़कों और पुरुषों को इस दायरे से बाहर रखने की आजादी हैॽ मेडिकल कॉलेज में रात साढ़े नौ बजे के बाद कफ्र्यू जैसी स्थिति पुरातनपंथी मानसिकता की परिचायक है।
२१वीं सदी में तमाम असमानताओं को नकार कर महिलाएं जब तरक्की की गगनचुंबी इमारतों पर सफलता के परचम लहरा रही हैं‚ तब लैंगिक असमानता की बात रूढ़िवादी और ढपोरपंथी प्रतीत होती है। हैरानी है कि आज भी समाज में महिला–पुरु ष असमानता की लकीरें गहरी हैं। संवैधानिक स्वतंत्रता और समानता से निर्मित नये वातावरण में स्त्री को अब भी अपनी अस्मिता और समान अवसर और सुरक्षा की जमीन तलाशने में जद्दोजहद करनी पड़ रही है। पुरु षों के वर्चस्व को तोड़ती महिलाएं आज हर क्षेत्र में घुसपैठ कर चुकी हैं‚ और यह घुसपैठ मात्र पाला छूने भर की घुसपैठ नहीं है। क्या अत्याधुनिक समाज में भेदभाव‚ असमानता और लैंगिक अंतर के लिए कोई जगह है। इसका जवाब हमें स्वयं में तलाशना होगा। क्या सुरक्षा के नाम पर महिलाओं की निज आजादी पर अंकुश लगाना ‘वाजिब और संवैधानिक’ है। यदि वास्तव में कोई भी राज्य अपने यहां महिलाओं की सुरक्षा और समानता को लेकर चिंतित है‚ तो उसे उनके लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करने‚ रोजगार में समान अधिकार दिलाने और उनके रोजगार को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। सुरक्षा के नाम पर उनकी आजादी का गला घोंटकर उनके लिए कभी कोई बेहतर माहौल तैयार नहीं किया जा सकता। दुनिया भर की संस्थाएं और सरकार महिलाओं के समान अधिकार‚ सुरक्षा और लैंगिक समानता को लेकर दिन रात काम कर रही हैं। ऐसे में हमारे यहां ऐसे प्रयासों को दुगनी रफ्तार मिलनी चाहिए। क्या हम ्त्रिरयों से जुड़े अस्तित्ववादी मूल्यों के विघटन पर एक आदर्श राज्य और राष्ट्र की स्थापना कर सकते हैं। शायद नहीं। राष्ट्र के संचित मूल्य तब तक प्रतिफलित नहीं हो सकते जब तक उनमें ्त्रिरयों का समानुपातिक अवदान न हो। स्वतंत्रता से जीने की आजादी को बांधने या कुंठित करने की बजाय हमें ्त्रिरयों को मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत करने की जरूरत है ताकि हर संभावित मुश्किल का वे मुंहतोड़ जवाब दे सकें।
इस संकीर्णता से उबरना ही होगा कि महिलाएं देर रात बाहर न घूमें‚ छोटी पोशाक न पहनें और पुरु ष मित्र न बनाएं। इससे हम उनके लिए एक कुंठित वातावरण ही तैयार कर रहे हैं। अगर वास्तव में हमें आधी आबादी की असल चिंता है तो हमें परिवार में और समाज में लड़कों और पुरुषों को लडकियों की वाजिब चिंता करना‚ सम्मान देना और एक संतुलित सहचर्य का पाठ पढ़ाना होगा केवल तभी बेटियों को सुरक्षित माहौल दिया जा सकेगा। आधी आबादी से हमारा मान और सम्मान है‚ इसे भेदभाव‚ संकुचन और अंकुश की तुला पर न तौलें।