हमारी विस्तारवादी और उपभोगवादी दृष्टि ने हमारी संस्कृतियों को अपना शिकार बनाया है और विकास की अवधारणा विनाश की सहयात्री हो गई है। और हम चुपचाप इस विनाश लीला को देख रहे हैं। आधुनिक सभ्यता ने हमारी संस्कृति और मूल्यों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है। बाजारवाद के हिमायती अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए हमारे मूल्यों को तिरोहित करने पर आमादा हैं। जनसंस्कृति की इस टूटन का मामला हाल में संभल जिले के एक गांव में देखने को मिला। जहां जयमाला के दौरान दूल्हे ने दुल्हन को ‘किस’ करते हुए मंच पर ही अश्लील हरकतें करनी शुरू कर दीं।
बार–बार दूल्हे की अश्लील हरकत से दुल्हन ने शादी की अन्य रस्म को रोकते हुए हंगामा खड़ा कर दिया और शादी से इंकार कर दिया। इससे कुछ देर के लिए बारातियों और घरातियों में सन्नाटा पसर गया। दूल्हा पक्ष द्वारा दुल्हन की मिन्नतें करने के बाद भी दुल्हन स्वविवेक से लिए गए अपने फैसले पर अड़ी रही। अंततः शादी को तोड़ दिया। मध्य वर्ग के सामने आदर्श और सिद्धांत का एक प्रतिमान होता है।
आज इस वर्ग या थोड़ा उससे नीचे यानी निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में सांस्कृतिक बिखराव विशेष रूप से दिखता है। वे बाह्य व्यक्तित्व और आंतरिक रूप से सर्वत्र बिखरे हुए हैं। विस्तारवाद की जड़ में हमारी जिंदगी में सांस्कृतिक आयामों का कोई स्थान नहीं है। सांस्कृतिक रूप से खाली होना उदात्त मूल्य से हीन होना है। हमारा विश्वास शाश्वतता में नहीं‚ शाश्वत मानवीय मूल्यों में होना चाहिए। मौजूदा समय में निश्चित ही इसका अभाव दिखता है। हम अपनी मूल्यवान आस्था खो रहे हैं। पारंपरिक मूल्यों के प्रति हमारी विरक्ति‚ वितृष्णा या लापरवाही की मुद्रा कहीं हमारे पारंपरिक सामाजिक मूल्यों को तोड़ न दे इसका ध्यान रखना होगा।
पिछले कुछ दशकों में आधुनिकता के छद्म निरूपण के चलते समाज में लोगों की नैतिक आस्थाएं और विश्वास कुछ ढीले पड़े हैं। संवेदना‚ दृष्टिकोण और मानसिक धरातल पर परिवर्तन की इस विकृत रेखा से हमारी पीढियों की सांस्कृतिक धरोहर नष्ट–भ्रष्ट हो सकती हैं। बहुत संभव है कि सांस्कृतिक धरोहर के प्रति अनादर के इस भाव से ओत–प्रोत होकर हमारी नस्लें लोक मानस की मान्यताओं और मूल्यों को सिरे से नकार दे। इसलिए अपने अनुभव से अलग होकर हमें तटस्थ और निस्संग भाव से इस पर विचार करना होगा। आखिर हों भी क्यों न। हम परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने के मामले में विश्व के समक्ष प्रतीकात्मक रूप में खड़े हैं। सांस्कृतिक चेतना के विभिन्न स्तरों को प्रतिबिंबित करने वाले देश में ऐसी अश्लीलता का कोई स्थान नहीं। चेतना और परंपरा का सामंजस्य हमें आंतरिक सुसंगति दे सकता है। खोखली आधुनिकता और ढहते मूल्यों से तात्विक रूप में कुछ सीखा नहीं जा सकता‚ बल्कि विनाश की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है। आज की लड़कियां सघनता और संश्लिष्टता में अच्छे–बुरे का फर्क समझती हैं। दुल्हन द्वारा आत्मानुभव से लिया गया निर्णय बताता है कि वे लोक जीवन की भाषा को मौन रूप में भी गहरे स्पंदन के साथ समझती हैं। वे आधुनिकता की विकृति को नहीं संस्कृति की समृद्धि को अहमियत दें तो विचारधारात्मक ऊहापोह के बीच रहते हुए भी संस्कृति के प्रतिमान गढ़ सकती हैं। हमारी सांस्कृतिक धरोहर के प्रति आदर भाव अभिव्यक्त करना शमिदगी नहीं‚ अभिमान है। हमें सांस्कृतिक संक्रमण से बचना होगा।