पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन १.५ डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई‚ लेकिन वास्तव में अभी तक ५६ देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ‚ अमेरिका‚ चीन‚ जापान और भारत भी शामिल है‚ लेकिन रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है‚ वह स्थिर रह पाएगा॥ रती पर रहने वाले जीव–जगत पर करीब दो दशक से जलवायु परिवर्तन की तलवार लटकी हुई है। मनुष्य और इसके बीच की दूरी निरंतर कम हो रही है। पर्यावरण विज्ञानियों ने बहुत पहले जान लिया था कि औद्योगिक विकास से उत्सर्जित कार्बन और शहरी विकास से घटते जंगल से वायुमंडल का तपमान बढ़ रहा है‚ जो पृथ्वी के लिए घातक है। इस सदी के अंत तक पृथ्वी की गर्मी २.७ प्रतिशत बढ़ जाएगी‚ नतीजतन पृथ्वीवासियों को भारी तबाही का सामना करना पड़ेगा। इस मानव निर्मित वैश्विक आपदा से निपटने के लिए प्रतिवर्ष एक अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन जिसे कांफ्रेंस ऑफ पार्टीज (सीओपी) के नाम से भी जाना जाता है।
इस बार सीओपी की २७वीं बैठक मिस्त्र के शर्म अल–शेख शहर में संपन्न हुई। सम्मेलन में बहुत कुछ नया नहीं हुआ। लगभग पुरानी बातें हीं दोहराई गई। पेरिस समझौते के तहत वायुमंडल का तापमान औसतन १.५ डिग्री सेल्सियस से कम रखने के प्रयास के प्रति भागीदार देशों ने वचनबद्धता भी जताई‚ लेकिन वास्तव में अभी तक ५६ देशों ने संयुक्त राष्ट्र के मानदंडों के अनुसार पर्यावरण सुधार की घोषणा की है। इनमें यूरोपीय संघ‚ अमेरिका‚ चीन‚ जापान और भारत भी शामिल है‚ लेकिन रूस और यूक्रेन युद्ध के चलते नहीं लगता कि कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए नवीकरणीय ऊर्जा को जो बढ़ावा दिया जा रहा है‚ वह स्थिर रह पाएगा। क्योंकि जिन देशों ने वचनबद्धता निभाते हुए कोयला से ऊर्जा उत्सर्जन के जो संयंत्र बंद कर दिए थे‚ उन्हें रूस द्वारा गैस देना बंद कर देने के कारण फिर से चालू करने की तैयारी कर रहे हैं।
२०१८ का ऐसा वर्ष था‚ जब भारत और चीन में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी दर्ज की गई थी। नतीजतन भारत पहली बार इस वर्ष के ‘जलवायु परिवर्तन प्रदर्शन सूचकांक’ में शीर्ष दस देशों में शामिल हुआ है। वहीं अमेरिका सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में शामिल हुआ था। स्पेन की राजधानी मैड्रिड में ‘कॉप २५’ जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में यह रिपोर्ट जारी की गई थी। रिपोर्ट के अनुसार ५७ उच्च कॉर्बन उत्सर्जन वाले देशों में से ३१ में उत्सर्जन का स्तर कम होने के रु झान इस रिपोर्ट में दर्ज थे। इन्हीं देशों से ९० प्रतिशत कॉर्बन का उत्सर्जन होता रहा है। इस सूचकांक ने तय किया था कि कोयले की खपत में कमी सहित कार्बन उत्सर्जन में वैश्विक बदलाव दिखाई देने लगे हैं। इस सूचकांक में चीन में भी मामूली सुधार हुआ था। नतीजतन वह तीसवें स्थान पर रहा है। जी–२० देशों में ब्रिटेन सातवें और भारत को नवीं उच्च श्रेणी हासिल हुई है‚ जबकि आस्ट्रेलिया ६१ और सऊदी अरब ५६वें क्रम पर हैं। अमेरिका खराब प्रदर्शन करने वाले देशों में इसलिए आ गया है‚ क्योंकि उसने जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाते हुए इस समझौते से बाहर आने का निर्णय ले लिया था। इसलिए कॉर्बन उत्सर्जन पर उसने कोई प्रयास ही नहीं किए‚ परंतु रूस के यूक्रेन पर नौ माह से चले आ रहे हमले के नतीजतन ऊर्जा उत्पादन एक बार फिर से कोयले पर निर्भरता की ओर बढ़ रहा है। दुनिया की लगभग ३७ प्रतिशत बिजली का निर्माण थर्मल पावरों में किया जाता है। इन संयंत्रों की भट्टी में कोयले को झोंका जाता है‚ तब कहीं जाकर बिजली का उत्पादन होता है। ब्रिटेन में हुई पहली औद्योगिक क्रांति में कोयले का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
नवम्बर २०२१ में ग्लासगो में हुए वैश्विक सम्मेलन में तय हुआ था कि २०३० तक विकसित देश और २०४० तक विकासशील देश ऊर्जा उत्पादन में कोयले का प्रयोग बंद कर देंगे। यानी २०४० के बाद थर्मल पावर अर्थात ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले से बिजली का उत्पादन पूरी तरह बंद हो जाएगा। तब भारत–चीन ने पूरी तरह कोयले पर बिजली उत्पादन पर असहमति जताई थी‚ लेकिन ४० देशों ने कोयले से पल्ला झाड़ लेने का भरोसा दिया था। २० देशों ने विश्वास जताया था कि २०२२ के अंत तक कोयले से बिजली बनाने वाले संयंत्रों को बंद कर दिया जाएगा। आस्ट्रेलिया के सबसे बड़े कोयला उत्पादक व निर्यातक रियो टिंटो ने अपनी ८० प्रतिशत कोयले की खदानें बेच दीं थीं‚ क्योंकि भविष्य में कोयले से बिजली उत्पादन बंद होने के अनुमान लगा लिए गए थे। भारतीय व्यापारी गौतम अडानी ने इस अवसर का लाभ उठाया और अडानी ने ‘आस्ट्रेलिया कोल कंपनी’ बनाकर आस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड क्षेत्र में कोयला खदानें भी हासिल कर लीं।
अडानी ने कारमिकेल कोयला खदान पर पर्यावरण संबंधी मंजूरी मिलने के बाद २०१९ से कोयले का खनन शुरू कर इसे बेचना भी आरंभ कर दिया है। इसी साल फरवरी में जब भारत में कोयले का संकट खड़ा हुआ था‚ तब आस्ट्रेलिया से ही भारत की सबसे बड़ी बिजली उत्पादक कंपनी एनटीपीसी ने कोयला खरीदा था। दूसरी तरफ‚ कोयले की खपत बिजली उत्पादन के लिए बढ़ेगी तो कार्बन उत्सर्जन भी बढ़ेगा। अतएव धरती के तापमान में वृद्धि भी बढ़ेगी। इन बदलते हालातों में हमें जिंदा रहना है तो जिंदगी जीने की शैली को भी बदलना होगा। हर हाल में ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती करनी होगी। यदि तापमान में वृद्धि को पूर्व औद्योगिक काल के स्तर से १.५ डिग्री सेल्सियस से अधिक तक सीमित करना है तो कार्बन उत्सर्जन में ४३ प्रतिशत कमी लानी होगी। आईपीसीसी ने १८५०–१९०० की अवधि को पूर्व औद्योगिक वर्ष के रूप में रंखांकित किया हुआ है। इसे ही बढ़ते औसत वैश्विक तापमान की तुलना के आधार के रूप में लिया जाता है।
इसी सिलसिले में जलवायु परिवर्तन से संबंधित संयुक्त राष्ट्र की अंतर–सरकारी समिति की ताजा रिपोर्ट के अनुसार सभी देश यदि जलवायु बदलाव के सिलसिले में हुई क्योटो–संधि का पालन करते हैं‚ तब भी वैश्विक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में २०१० के स्तर की तुलना में २०३० तक १०.६ प्रतिशत तक की वृद्धि होगी। नतीजतन तापमान भी १.५ से ऊपर जाने की आषंका बढ़ गई है। आईपीसीसी की यह रिपोर्ट ऐसे समय आई थी‚ जब ६ नवम्बर २०२२ से मिस्त्र के शर्म अल–शेख में जलवायु शिखर सम्मेलन शुरू होने जा रहा था‚ लेकिन इस सम्मेलन की सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि इसमें रूस–यूक्रेन युद्ध को रोकने और रूस द्वारा बंद कर दी गई गैस प्रदायगी को फिर से चालू करने की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा पाई। तय है‚ बंद पड़े कोयले से चलने वाले विद्युत ताप घर शुरू हो गए तो पृथ्वी को आग का गोला बनने से रोकना मुश्किल होगा ॽ