क्या–क्या जोडें जी आप ही बताओ! देश जोडने निकले तो पार्टी टूटने के कगार पर पंहुच गई। साबुत तो खैर पहले भी नहीं बची थी। लोग खिडकी–दरवाजों से लेकर इटें‚ पत्थर‚ लक्कड और शहतीर तक एक–एक कर उठाए लिए जा ही रहे थे। कुछेक ने तो इस सामान से अपनी शानदार इमारतें ही खडी कर ली। ऐसी लूट मची है साहब‚ कि ऐसी लूट तो राम–नाम की भी नहीं मचती होगी। जो इस सामान से अपनी पार्टी जोड रहे थे‚ उन पर देश तोडने का आरोप है। क्या विडंबना है कि वे देश तोड कर अपनी पार्टी जोड रहे हैं और जो देश जोडने निकले हैं‚ उनकी पार्टी ही टूट रही है। कुछ ऐसे भी हैं‚ जो दूर खडÃे अभी भी जोड–घटा करने में ही लगे हैं। ऐसे में वे क्या–क्या जोड़ें़ बताइए! पार्टी में एक–आध धडा तो ऐसा भी है‚ जिसकी समझ में ही नहीं आ रहा कि टूटूं या जुडूं। वे ऐसे अधर में लटके हैं कि कयास लगाने वाले तक आजिज आ चुके हैं कि पता नहीं यह जुडेंगे या टूटेंगे। जिनके बारे में यह तय था कि यह तो टूटेंगे ही टूटेंगे‚ वे आखिर टूट ही गए और उन्होंने अलग चूल्हा धर लिया। अब वे या तो भानमती के कुनबे की तरह इधर–उधर से कंकर–पत्थर जोडÃेंगे‚ नहीं तो कैप्टन साहब की तरह उसी धारा में विलीन हो जाएंगे‚ जिसमें वे विलीन हुए।
जिन्हें पार्टी जोडने के काम में लगाया था‚ वे खुद ही टूटे जा रहे हैं। जिन पर तकिया था‚ वही पत्ते हवा देने लगे। हालात ये हैं साहब कि जिसकी तरफ अपनेपन से देखो‚ वही पराया हो जाता है। जिसकी तरफ प्यार से देखो‚ वही बेवफा हो जाता है। कभी समाजवादियों के लिए कहा जाता था कि वे एक नहीं हो सकते। तीन घरों में चार चूल्हे वहां हमेशा ही जलते रहे हैं। जनता परिवार के बारे में यही कहा जाता था कि इस दिल के टुकडे हजार हुए‚ कोई यहां गिरा‚ कोई वहां गिरा। अब यही हालत कांग्रेस की है। जनता परिवार में कम से कम वफादारी का ढोंग तो नहीं था। यहां तो वफादारी ही पहला और अंतिम गुण था। अब वह भी नहीं रहा। विधायकों और सांसदों की वफादारियों का तो पहले भी मोल–भाव होता रहा है। घोडा मंडियां सजती ही रही हैं। उनके बिना लोकतंत्र बडा ठस सा नजर आने लगता है। घोडा मंडियां सजने से लोकतंत्र में जीवंतता आ जाती है। लेकिन जो देश जोडने निकले हैं‚ उनके यहां स्थिति यह है कि जिससे जुडने की सोचो वही बेवफा निकलता है। आशिक बेचारा क्या करे! लगता है हर तरफ बेवफाई ही बेवफाई है। लोग तो कहते हैं कि खुद उनका ही मन कहीं नहीं जुड पा रहा। मन अगर जुड जाता तो हो सकता है‚ पार्टी जुडने का कोई ब्यौंत बनता। अब क्या करेंॽ न मन जुड रहा‚ न पार्टी जुड रही। और लोगों की नजर खंडहर के खिडकी–दरवाजों और इट–पत्थर पर लगी है कि मौका है चुपके से एकाध निकाल लो।