शुभ समाचार है कि कश्मीर में तीन दशक बाद सिनेमाघरों के फिर से खुलने की आहट सुनाई दे रही है। नब्बे के दशक में इस्लाम की प्रतिगामी कट्टरपंथी व्याख्या करने वाले अलगाववादी–आतंकवादी व्यक्तियों और संगठनों ने सिनेमा और सिनेमा से जुड़़ी नृत्य–संगीत प्रधान मनोरंजन की संस्कृति को हराम या इस्लाम की शिक्षाओं के विरुद्ध बताकर इन्हें जबरन बंद करा दिया था। यह हैरानी की बात हो सकती है कि २१वीं सदी में भी ऐसे समूह हो सकते हैं जो विश्वव्यापी मनोरंजन की ऐसी विधा को जो सदैव इंसानियत का पोषण करने वाली मानी जाती रही है‚ उसे आमजन की भावनाओं को दरकिनार करते हुए अपने मजहब के विरुद्ध ठहरा सकती है‚ लेकिन कश्मीर में अलगाववाद–आतंकवाद के दौर की यह एक सच्चाई है। अब अगर फिर से कश्मीर में सिनेमाघर खुल रहे हैं तो निश्चित तौर पर सरकार का यह आकलन रहा होगा कि इस समय का कश्मीरी समाज सिनेमा विरोधी कट्टरपंथी मानसिकता से बाहर आ गया है। अगर ऐसा हुआ है तो यह आम कश्मीरी जनता और समूचे भारत के लिए खुशी की बात है। रविवार को उपराज्यपाल ने आतंक के गढ़ रहे दक्षिण कश्मीर के पुलवामा और शोपियां में मल्टीपर्पज सिनेमाहाल का उद्घाटन किया। उपराज्यपाल ने इसे कश्मीर घाटी के लिए ऐतिहासिक बताया और कहा कि फिल्में संस्कृति‚ मू्ल्यों और लोगों की अपेक्षाओं को दिखाने का सशक्त माध्यम है। इस मौके पर बड़़ी संख्या में छात्र‚ युवा और अन्य लोग पहुंचे थे। अनंतनाग‚ गांदरबल‚ बांदीपोरा‚ ड़ोड़ा‚ राजौरी‚ पुंछ और किश्तवाड़़ में भी जल्द ही ऐसे सिनेमाघर खोले जाएंगे। श्रीनगर में आज एक मल्टीप्लेक्स खुलने जा रहा है‚ लेकिन फिर भी सावधानी के बतौर नये खुलने वाले सिनेमाघरों को पूरी सुरक्षा प्रदान करनी होगी। इधर आए दिन कश्मीर में छिटपुट किस्म की आतंकवादी घटनाएं हो रही हैं। इन आतंकवादियों का रुख इन सिनेमाघरों की ओर भी हो सकता है। वातावरण का सामान्य होना बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि आम कश्मीरी अवाम इसे किस तरह लेता है। अगर कश्मीर के लोग मनोरंजन के सर्वप्रिय साधन को पुनः अपने बीच पाकर प्रसन्न होते हैं‚ सिनेमाघरों में रुचि लेते हैं और इन्हें अपने जीवन संस्कृति के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में अपना लेते हैं तो यह सर्वाधिक सुखद स्थिति होगी। स्थानीय लोगों की आय में वृद्धि होगी और सिनेमा विरोधी तत्व भी हतोत्साहित होंगे। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि ऐसा ही होगा।
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