जयवीर शेरगिल ने कांग्रेस के प्रवक्ता पद से भरे मन से इस्तीफा दिया। चैनलों में यह खबर एक मामूली घटना की तरह नजर आई। लेकिन हमें उनके प्रति हमदर्दी महसूस हुई। इस मामले में सभी दल एक से हैं। जब तक प्रवक्ता लाइन पर रहे तब तक प्रवक्ता‚ जैसे ही लाइन के जरा इधर–उधर हुआ कि गया। एकदम ‘यूज एंड थ्रो’ की नीति।
प्रवक्ता का काम बडा नाजुक और जोखिम भरा होता है। टीवी चैनलों की बहसों में उनको तैयारी के साथ आना होता है‚ और अपने विरोधियों को मुंहतोड जवाब देने होते हैं ताकि उनके दल का झंडा हर हाल में बुलंद रहे। इन प्रवक्ताओं का भाव तब बढा जब खबर चैनलों ने प्राइम टाइम में सत्ता और विपक्ष के बीच बहसें कराने की शुरुआत की। यों यह शुरुआत तभी हो गई थी जब प्राइवेट खबर चैनल आए। यह ‘मोदी युग’ से पहले की बात है। जब मनमोहन सिंह का सरकार थी तब कई एंकरों ने बहसों के जरिए ही नाम कमाया। उन्होंने घोटालों को एक्सपोज किया। चरचाएं कराइ और इस तरह मीडिया ने आलोचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाई। इसी दौर में बहसों में भाजपा प्रवक्ता अक्सर हावी रहे। इसके बाद आए ‘मोदी युग’ में चैनलों की बहसें पक्ष–विपक्ष में बंट गई। सत्ता प्रवक्ता सत्ता की हर रीति–नीति को हर हाल में सही ठहराते जबकि विपक्ष आलोचना करता। इस तरह ‘तर्क‚ वितर्क‚ कुतर्क’ भी जरूरी हुए। इसीलिए खबरों को मैनेज करने का काम बढा और इस तरह पढे–लिखे प्रवक्ताओं का महत्व बढा।
इसका एक कारण सोशल मीडिया रहा। सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने मुख्य मीडिया के समांतर एक वैचारिक वातावरण बनाना शुरू किया। सत्ता को सीधे टारगेट किया जाता। ‘फेक न्यूज’‚ ‘आल्ट ट्रुथ’ और ‘पोस्ट ट्रुथ’ के जरिए खबर को जरूरी नैरेटिव में ढाला जाता। हर खबर और उस खबर का सच विवादित बना दिया जाता। ऐसे में मुख्य मीडिया ही रह जाता जो खबर के सच को सच की तरह दे सकता और जनमत को अपेक्षित सच ओर मोड सकता। यहीं से जनमत को मैनेज करने की कला आगे बढी। बहसें तीखी होने लगीं। एक ओर सत्ता पक्ष हमेशा अपने को सही सिद्ध करने में लगा दिखता तो विपक्ष उसको हर कदम पर गलत सिद्ध करने की जुगत में लगा दिखता। सत्ता पक्ष समझने लगा कि अपनी रीति–नीति‚ अपने निर्णयों से जनता को मीडिया के जरिए दिन–रात अवगत कराए ताकि जनता किसी ‘दूसरे सत्य’ को ‘सत्य’ न मानने लगे। विपक्ष भी समझने लगा कि सत्ता के ‘सत्य’ को किस तरह संदिग्ध बनाना है‚ विवादित करना है‚ प्रभावहीन बनाना है। इसीलिए मुख्य मीडिया में ‘सोशल मीडिया’ का अधिकाधिक नोटिस लिया जाता है‚ और आजकल तो नेताओं के ‘ट्वीट’ ही बहस के मुद्दे बनते रहते हैं। ऐसे में ‘प्रवक्ताओं’ को हर समय तथ्यों और तर्कों से लैस रहना होता है ताकि विपक्षी को चुप कर सकें और अपनी बात हावी कर सकें।
इसके लिए प्रवक्ताओं को तरह–तरह से ‘ट्रेन’ किया जाता हैः किस प्रवक्ता से किस तरह बहस करनी है‚ और किसे बीच में टोकना है‚ किसकी बात किस तरह काटनी है‚ कब कितना टाइम लेना है‚ और कब विपक्षी प्रवक्ताओं का टाइम खोटा करना है‚ कब एंकर के सवाल छोड इधर–उधर करके बात कर मुद्दे को भटकाना है‚ कब ‘हमने ये किया तो तुमने वो किया’ करते रहना है‚ कब चैनल और एंकर पर ‘पक्षपात’ का आरोप लगाना है.इसीलिए दलों में वकीलों के भाव बढे। प्रवक्ताओं को यह भी सिखाया जाता है कि कब सवाल का सवाल से जबाव दो। जब विपक्षी प्रवक्ता न माने तो शोर करो‚ तब भी न माने तो उसे उकसा दो‚ तू तू मैं मैं करने लगो और अंततः बहस को बेकार कर दो। इतना ही नहीं ऐन बहस के बीच भी प्रवक्ताओं के मोबाइलों पर उनके ‘हैंड़डलर’ उनको तर्क और तथ्य मुहैया कराते रहते हैं ताकि वे मीडिया में मार खाते न दिखें। कई बार उनको बीच बहस में ‘रिप्लेस’ भी कर दिया जाता है।
फिर हर प्रवक्ता की हर दिन की परफॉरमेंस को उनके दल के मीडिया प्रकोष्ठ के उस्ताद जांचते रहते हैं कि वह कहां हावी रहा‚ कहां कमजोर रहा। वो हावी रहा तो ठीक‚ कमजोर दिखा तो आउट। दल अक्सर भूल जाते हैं कि उनके प्रवक्ताओं के अपने विचार भी हो सकते हैं‚ जो ऑफिशियल विचारों से मेल नहीं खाते। यही वह विंदु होता है कि उनको अलविदा कह दिया जाता है‚ या वे अलग हो जाते हैं। ऐसे न जाने कितने शेरगिल हैं‚ जिनको उनके दलों ने वक्त–वक्त पर बलि चढाया है। कई बार प्रवक्ता ‘किराए के पहलवान’ जैसे दिखते हैं।