कांग्रेस को ऑक्सीजन दे दी जनाब आजाद ने। मगर उनकी यह तंबीह (आगाह) है पार्टी हेतु। लाल बत्ती रोशन कर दी। वे वस्तुतः खुदा के नेक बंदे हैं। उनके मजहब में नमक हरामी गंभीर गुनाह है। इसी संदर्भ में मेरे पुराने पत्रकार–कवि मित्र कांग्रेस शासित रायपुर (छत्तीसगढ़) के शंकर पाण्डेय की पंक्ति पढ़ीः ‘गुल से लिपटी तितली गिरा कर देखो‚ आंधियों तुमने दरख्तो को गिराया होगा।’ मगर सोनिया गांधी ने सिद्ध कर दिया कि वह फफूंद हैं‚ जो खोखला कर देती है; तो फिर गुलाम नबी की नजर में राहुल क्या होंगेॽ वाल्मीक (दीमक)! बची कोर–कसर पूरी करने के लिएॽ
बड़ा लाजिमी तर्क लहराते हैं वे लोग। गुलाम नबी एकदम भिन्न रहे। अब्दुल्ला वंश की तीनों पीढ़ी पर आजतक भारत को पूरा भरोसा नहीं हो पाया। इस परिवेश में भादेरवाह ग्राम का यह नेता‚ गांधी मेमोरियल कॉलेज (कश्मीर) का शिक्षित‚ नामी गिरामी‚ राष्ट्रवादी हिंदुओं से भी कहीं ज्यादा भारतप्रेमी है। फिर तुलना करें भाजपा के हिंदुवादी मुखौटे (शेषाद्रि के शब्दों में) के रूप में रहे अटल बिहारी वाजपेयी से। पंडितजी ने तो बांग्लादेश युद्ध पर प्रधानमंत्री में साक्षात अष्टभुजा के दर्शन कर लिये थे। इन्हीं विप्र सांसद ने सदन में ऐलान कर दिया था किः ‘रविवार‚ छह दिसम्बर १९९२‚ भारतीय इतिहास का काला दिन है।’ उसी दिन कारसेवकों ने उज्बेकी डाकू जहीरूद्दीन बाबर के ढांचे को अयोध्या में ढा दिया था। शौर्य दर्शाया था। राम मंदिर की भव्य नींव डाल दी थी। अपने ही पार्टी मुख्यमंत्रियों को अटलजी ने दरकिनार कर दिया था। मोदी को तो उन्हीं ने राजधर्म सिखाकर निकाल देने की कोशिश भी की थी।
गुलाम नबी को सही में पहचानने के लिए उनका राज्य सभा में विदाई की बेला पर दिया गया भाषण (१५ फरवरी २०२१) याद कर लें। उन्होंने कहा थाः ‘मुझे फख्र है कि आज तक मैं इस्लामी पाकिस्तान नहीं गया।’ तुलना करेें इस ७३ वर्षीय राजनेता की आम कश्मीरी से। उस पार जाने के लिए तरसते हैं ये सारे भरमाये कश्मीरी आम जन। गुलाम नबी की एक उक्ति है कि ‘सोनिया गांधी अब नाममात्र की नेता हैं। लोकतंत्र के लिए खतरे का संकेत है।’ अर्थात अब सबल विपक्ष नहीं रहेगा। कहीं एक पार्टी का शासन तो नहीं आ जाएगाॽ गुलाम नबी का एक सर्वाधिक गंभीर आरोप सोनिया पर लगा है। उन्होंने पार्टी संगठन के लिए मतदान द्वारा चुनाव कभी भी नहीं कराया। आजाद ने पार्टी में संगठनात्मक चुनाव प्रक्रिया को धोखा करार देते हुए कहा कि देश में कहीं भी पार्टी में किसी भी स्तर पर चुनाव संपन्न नहीं हुए। नबी ने कहा कि पार्टी के साथ बड़े पैमाने पर धोखे के लिए नेतृत्व पूरी तरह से जिम्मेदार है। ताज्जुब यह है कि कांग्रेस में सभी अनुभवी नेता रहे जो अपने कार्यक्षेत्रों में माहिर थे। चाहे वकालत हो‚ अर्थनीति हो‚ संसदीय मामले हों। माने अब पार्टी केवल निजी कंपनी रह गई‚ जिसमें दो ही शेयरहोल्डर–डायरेक्टर हैं। माता और पुत्र। सबसे हास्यस्पद तो यह है कि सोनिया ने परिवार के बाहर से नेता चयनित करने के लिए अशोक गहलोत का नाम सुझाया है। सत्तर पार के गहलोत का मुकाबला चालीस–वर्ष के सचिन पायलट से है। दोनों की कार्यक्षमता में कोई समता नहीं है।
यदि सचिन अभी तक सोनिया से जुड़े हैं तथा ज्योतिराादित्य सिंधिया की भांति पार्टी नहीं छोड़ी तो इस प्रिय तथ्य पर भी सोनिया–राहुल ने कभी भी ध्यान नहीं दिया। अभी तक इस युवा कांग्रेसी को उसकी क्षमता के अनुसार मान्यता नहीं मिली‚ जबकि राहुल खुद अक्षम हैं। अतः वे अपने से अधिक तेजतर्रार को कतई नहीं चाहेंगे। तो फिर कांग्रेस का नेता कौन होगाॽ इसका उत्तर खोजते हुए पार्टी ज्यादा फिसलती जाएगी। तब सबल प्रतिपक्ष के लिए और अपेक्षित उपाय क्या हैॽ गुलाम नबी ही कुछ योगदान कर सकते थे। मगर अबॽ फिलवक्त नबी को पता तो लग गया होगा कि इंदिरा गांधी‚ संजय गांधी‚ राजीव गांधी सोनिया गांधी‚ प्रियंका वाड्रा और अंततः राहुल गांधी की उनसे कितनी आत्मीयता और आस्था रहीॽ आखिर में पत्रकार कवि–सम्राट अनूप श्रीवास्तव की पंक्तियों में नबी को जवाब मिल जाता हैः‘हर किसी ने अपने हिसाब से इस्तेमाल किया मेरा और मैं समझता रहा कि लोग मुझे पसंद करते हैं।’ अर्थात गुलाम नबी जमीनी यथार्थ से तो अवगत हो ही गए होंगे कि वस्तुतः उनका इस्तेमाल ये सारा कुनबा करता रहा।