इन दिनों मीडिया में हल्ला है कि दक्षिण की फिल्में इन दिनों बॉलीवुड की फिल्मों से आगे जा रही हैं। वे ही सबसे अधिक कमाई करने वाली बन रही हैं और उनके हीरो ही सबसे बडे हीरो बनते नजर आते हैं। फिल्म समीक्षकों का यह भी मानना है कि बॉलीवुड के हीरो आजकल ‘नाम बडे और दर्शन छोटे’ की मिसाल बन कर रह गए हैं। अपनी फीस तो करोडों में लेते हैं‚ लेकिन काम धेले का नहीं दिखाते। न फिल्मों के निर्माता ही कुछ ‘नया’ सोचते हैं‚ न ‘निर्देशक’ ही कुछ कमाल दिखाते हैं। नतीजा यह है कि बॉलीवुड के बडे हीरोज की फिल्में किसी भी ‘नये आइडिया’ या ‘बिग आइडिया’ से रहित होती जा रही हैं। एक दूसरे की नकल किए जा रही हैं। यहां ‘स्टारडम’ का जो जलवा एक वक्त में बना था‚ अब खत्म होता जा रहा है‚ लेकिन कई हीरोज अब भी सिर्फ अपने नाम के बल पर ही किसी भी तरह की पिक्चर को चलाने के चक्कर में रहते हैं जबकि हिंदी का दर्शक आजकल ‘पूरा पैसा वसूल’ चाहता है।
यों भी बॉलीवुड ने जब से अपने को ‘ओटीटी प्लेटफार्मों’ के हवाले किया तब से वे ऐसी फिल्में बनाने लगे हैं जो कलात्मक स्तर पर अक्सर फूहड होती हैं‚ जिनमें भडकाऊ सेक्स और हिंसा का तडका लगा रहता है। फिर कुछ बडे हीरोज इन दिनों राजनीतिक विवादों में भी फंसने के कारण फ्लॉप होने लगे हैं। इसके बरक्स दक्षिण में बन रही फिल्मों की न केवल कहानी में ताजगी होती है‚ बल्कि उनके हीरो भी पूरा दम लगा देते हैं। दक्षिण की हर फिल्म की ऑल इंडिया रिलीज होती है‚ वे एक ही साथ हिंदी‚ बंगाली‚ गुजराती आदि में डब कर दी जाती हैं‚ और एक ही साथ रिलीज की जाती हैं। इससे वे कुछ ही दिनों बेहतर कमाई कर लेती हैं। यों भी अक्सर वे बेहतरीन कहानी लेकर आती हैं‚ जो एक हद तक यथार्थवादी होती है‚ और हीरो के हीरोडम को स्थापित करती हैं। उनके एक्शन सीन हॉलीवुड की टक्कर के होते हैं। ऐसे सीन बॉलीवुड में नहीं दिखते। इसलिए भी हिंदी फिल्मों का जलवा खत्म हो रहा है। फिर वे यूनिवर्सल अपील करती चलती हैं‚ और बडी कहानी के फॉरमूले पर बनती हैं। उदाहरण के लिए हम पिछले दिनों ‘हिट’ होने वाली ‘पुष्पराज’‚ ‘आरआरआर’ और ‘केजीएफ’ को देख सकते हैं। ‘पुष्पराज’ चंदन की तस्करी की कहानी है‚ जिसका नायक अपनी अक्ल और हिम्मत से अंत तक चंदन की तस्करी करता रहता है‚ कानून को छकाता रहता है। उसका एक डॉयलाग‚ जिसमें हीरो ‘पुष्पराज’ गरदन पर हाथ फेर कर कहता है कि ‘झुकेगा नहीं’–बडा ही पॉपूलर हुआ है। वह नये दबंगों के लिए एक ‘प्रोटेस्ट स्टेटमेंट’ बन गया है।
इसी तरह सबसे अधिक कमाई करने वाली ‘आरआरआर’ की कहानी अंग्रेजों के जमाने की है। एक दिन एक अंग्रेज मेम ‘गोंड’ कबीले के बीच से उनकी एक बच्ची को अपनी दासी बनाने के लिए ‘उठवा’ लेती है जबकि गोंडों के बारे में प्रसिद्ध है कि वे अपने किसी बच्चे को भी हर कीमत पर वापस लेकर रहते हैं। अंग्रेजों की पुलिस में भर्ती एक हीरो गोंडों के हीरो से टकराता है। फिर दोनों एक साथ अंग्रेजों का मकाबला करते हैं‚ और अंग्रेजों को छका देते हैं। इस कहानी में एक और निरीह विक्टिम हैं‚ दूसरी ओर विदेशी अत्याचारी हैं। इसके एक्शन सीन और स्टंट काबिले तारीफ हैं‚ जो स्वाभाविक लगते हैं। ‘केजीएफ’ भी ऐसे ही अन्याय को न्याय में बदलने की कहानी है। इनके बरक्स बॉलीवुड इन दिनों ऐसा फिल्म उत्पादक नजर आता है‚ जिसके पास न नया आइडिया है‚ न नये कहानी लेखक हैं‚ न नये हीरो–हीरोइन और निर्देशक। तीनों खान पुराने नजर आने लगे हैं। अक्षय कुमार भी बूढे नजर आने लगे हैं। नये हीरोज में मामूली मिडि़लक्लासी हीरोज के नाम पर आयुष्मान खुराना और राजकुमार राव नजर आते हैं‚ लेकिन उनकी कहानियां मामूली कस्बों के मामूली लेागों की रोजमर्रा की कहानियां हैं‚ जो आम लोगों को देखने के लिए मजबूर नहीं करतीं। वे छोटे बजट की होती हैं‚ बॉलीवुड का बाकी का ‘काम तमाम’ ओटीटी ने कर दिया है।
बॉलीवुड के फिल्म निर्माता निर्देशकों के लिए यह एक प्रकार से ‘आत्म मंथन’ का वक्त है कि वे सोचें कि बॉलीवुड इंडस्ट्री दक्षिण की फिल्मी इंडस्ट्री से क्यों पिट रही है‚ और उससे निजात पाने का रास्ता क्या हैॽ जिस बॉलीवुड को दुनिया में हॉलीवुड के बाद नंबर दो पर गिना जाता हो‚ उसे अपनी ऐसी ‘हीन स्थिति’ से तो निकलना ही होगा। इसके लिए अपेक्षित आत्मालोचना व आत्ममंथन करना ही होगा। तभी कोई नया रास्ता निकल सकता है॥।