पहले मीडिया ‘घटना’ तक जाता था। जहां एक्शन होता था वहां जाता था यानी ‘खबर के स्रोत’ तक जाता था। उसकी खोज–खबर में लगा रहता था। उसका ‘फॉलोअप’ भी दिया करता था। लेकिन अब खबरें मीडिया के पास खुद चली आती हैं। यह नया चलन है। जब सोशल मीडिया ही खबर का स्रोत बन जाए और टीवी को ‘खबर बनाने वाला’ मिल जाए तो कोई क्यों कष्ट करेॽ शायद इसीलिए वह ‘खोजी मीडिया’ बनने की जगह नेताओं या सेलीब्रिटीज की ‘राय’ (ओपिनियन) को ही ‘खबर’ की तरह देने लगा है। टीवी की इस कमजोरी को देख कुछ नेता या सेलीब्रिटीज या ऐसे ही तत्व ट्वीट करके अपनी ‘ओपिनियन’ को ही खबर बनाते–बनवाते हैं। एक ट्वीट कर देते हैं‚ और चैनल उसे ही ‘सबसे बडी खबर’‚‘सबसे बडी खबर’ कहकर पूरे दिन नाचते–गाते रहते हैं। ‘ट्वीट कल्चर’ अपने आप में एक भरी–पूरी ‘कल्चर’ है। हर ट्वीट करने वाले के पसंद करने वाले और रिट्वीट करने वाले होते हैं जो ‘ट्वीट’ जितना ‘रिट्वीट’ होता है‚ उतना ही ‘खबर बनाने वाला’ माना जाता है। फिर हर ‘ट्वीट’ का जबावी ‘ट्वीट’ भी होने लगता है‚ और इस तरह एक मामूली सी लाइन‚ ‘ओपिनियन’ का और ‘विचार’ का विषय बना दी जाती है। इसीलिए हम आजकल ‘दो लाइन’ की ओपिनियन पर दस घंटे की बहसें देखते हैं। और शायद इसीलिए हर ट्वीटकर्ता अकडा रहता है‚ और अपने को प्लेटो‚ अरस्तू या चाणक्य से कम नहीं समझता।
यहां भी हर ‘ओपिनियन’ के अपने–अपने वकील होते हैं। इसलिए हर ‘ओपिनियन’ के बरक्स एक ‘प्रति–ओपिनियन’ भी बनती रहती है‚ और इसी तरह हर ‘खबर’ एक ओपिनियन बनकर और फिर ‘बहस’ बन कर ऊपर से नीचे तक समाज को ‘डिवाइड’ करती रहती है। कई बार तो ऐसा भी महसूस होता है कि कई ट्वीटकर्ता किसी को जानबूझ कर ‘टारगेट’ करके ट्वीट करते हैं‚ फिर उसे या तो कोई चैनल लपक लेता है‚ या वे लपकवा देते हैं। टीवी की इस आदत को देख ऐसे नेताओं‚ सेलीब्रिटीज और धार्मिक नेताओं की पूरी फौज तैयार हो गई है‚ जो जानते होते हैं कि आज क्या ट्वीट करने से खबर बनाने वाले बन सकते हैं‚ और चैनलों के ‘प्राइम टाइम’ में छाए रह सकते हैं और चाहे जनता के दस वोट न ले सकते हों‚ मीडिया में अपने भाव बढा सकते हैं। इसी वजह से हम ऐसे बहुत से ‘ट्वीटजीवियों’ को देखते हैं‚ जो किसी न किसी मुद्दे पर ‘ओपिनियन’ देते रहते हैं‚ और छोटे–छोटे ‘प्लेटो’‚ ‘अरस्तू’ और ‘चाणक्य’ जैसे ‘ज्ञान–गुरु’ बने रहते है।
कई बार लगता है कि हम खबर चैनलों में खबरें कम ‘ओपिनियन’ या ‘विचार’ या ‘प्रतिक्रिया’ अधिक देखते हैं। इस प्रकार‚ आजकल हम एक प्रतिक्रिया से दूसरी प्रतिक्रिया तक आते–जाते रहते हैं‚ और हमारे आसपास प्रतिक्रियाओं का एक जंगल उगा रहता है‚ जहां हर ‘प्रतिक्रिया’ दूसरी‚ तीसरी‚ चौथी‚ सौंवी और हजारवीं प्रतिक्रिया पैदा करती है। इसीलिए इन दिनों न कोई ‘गहन विचार’ विकसित हो पाता है‚ न ‘गहन चिंतन’ हो पाता है। यह एक नई तरह का ‘प्रतिक्रियावाद’ है॥। इसीलिए समाज में ‘तू तू मैं मैं’ अधिक है क्योंकि आदमी कोई ‘क्रिया’ करे न करे‚ ‘प्रतिक्रिया’ अवश्य करता है‚ और इस तरह चलता–फिरता ‘प्रतिक्रियावादी’ बनकर रह जाता है‚ और प्रतिक्रिया की भाषा में ही बातचीत करता है। शायद इसीलिए लोग आजकल ‘असहमति’ को अधिक एंजाय करते हैं‚ और ‘झगडे’ कोे सेलीब्रेट करते हैं।
ट्वीट है ही ऐसा ‘जहरीला’ (टोक्सिक) माध्यम जो व्यक्ति के अहंकार को फुलाकर उसे तुरंता हीरो बनाता है। लोगों को कम शब्दों में अधिक बात कहने के लिए मजबूर करता है। कम शब्दों में अधिक प्रतिक्रिया तभी पैदा की जा सकती है‚ जब आपके शब्द कटखने हों। वे जितने कटखने होंगे जितने विषाक्त होंगे। उतने ही प्रतिक्रिया जगाने वाले होंगे। हर ‘ट्वीट’ इसी तर्क से काम करता है। इसीलिए कई ट्वीट–हीरो अपने ट्वीटों में ऐसी जहर बुझी भाषा का उपयोग करते हैं‚ जो नागरिक भाषा के एकदम विपरीत होती है। अगर आज टीवी की भाषा में आज ‘हेट’ (घृणा) बढी है‚ तो उसका एक बडा कारक ‘ट्विटर’ भी है। और जब हम देखते हैं कि एक बडा नेता भी गली छाप‚ गाली की भाषा में बात कर रहा है‚ तो हम भी उसी भाषा को अपनाने लगते हैं। आज यही हो रहा है। ज्यों–ज्यों मुख्यधारा का मीडिया सोशल मीडिया पर निर्भर होता जा रहा है‚ उसका मिजाज बिगडता जा रहा है‚ और उसका ‘रोल’ बदलता जा रहा है।