कोविड-19 महामारी के प्रभावों से उबरने का प्रयास कर रही दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं रूस-यूक्रेन युद्ध की दोहरी मार से हांफनेलगी हैं। बढ़ती महंगाई और खाद्य संकट के चलते विश्व बैंक ने भी इस असर को स्वीकार कर लिया है और कई देशों के आर्थिक मंदी में फंस जाने की आशंका जता दी है। इसी आशंका से बचने के प्रयास में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने प्रमुख नीतिगत दर रेपो को 0.5 प्रतिशत बढ़ाकर 4.9 प्रतिशत कर दिया। यह कदम तेजी से बढ़ती महंगाई को काबू में रखने के लिए उठाया गया है। इससे ऋणों का महंगा होना और ईएमआई बढ़ना तय है।
चार मई को ही आरबीआई ने अचानक रेपो दर में 0.4 प्रतिशत की वृद्धि कर दी थी। रेपो दरें बढ़ने का यह सिलसिला रुकने वाला नहीं है। इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार ने मुद्रास्फीति को लक्ष्य के दायरे में रखने के मकसद से किए गए राहत उपायों को धीरे-धीरे वापस लेने का भी फैसला कर लिया है। आरबीआई का अनुमान है कि महंगाई दर चालू वित्त वर्ष की पहली तीन तिमाहियों में छह प्रतिशत से ऊपर बनी रहेगी। सरकार के आपूर्ति व्यवस्था में सुधार के कदमों से इसे नीचे लाने में मदद मिलेगी। पहली तिमाही में खुदरा मुद्रास्फीति के 7.5 प्रतिशत, दूसरी तिमाही में 7.4 प्रतिशत, तीसरी तिमाही में 6.2 प्रतिशत और चौथी तिमाही में 5.8 प्रतिशत रहने की संभावना है। इसमें घट-बढ़ का जोखिम लगातार बना हुआ है। केंद्रीय बैंक को खुदरा महंगाई दो से छह प्रतिशत के दायरे में रखने की जिम्मेदारी मिली हुई है।
घरों के दाम में वृद्धि और ग्राहकों की जरूरतों को देखते हुए शहरी सहकारी बैंकों और ग्रामीण सहकारी बैंकों के लिए व्यक्तिगत आवास ऋण की सीमा बढ़ाने की अनुमति दी गई है जो राहत की बात है, लेकिन यहां विश्व बैंक की चेतावनी को भी पर्याप्त महत्त्व दिया जाना चाहिए कि यूरोप और पूर्वी एशिया के कई देश आर्थिक मंदी का सामना कर सकते हैं। विश्व बैंक का कहना है कि स्टैगफ्लेशन की संभावना और भी बढ़ गई है। स्टैगफ्लेशन की स्थिति में विकास दर स्थिर रहती है और मुद्रास्फीति तथा बेरोजगारी दर में तेज बढ़ोतरी जारी रहती है। ध्यान रहे कि महंगाई पर काबू पाने के लिए 1970 में ब्याज दरों में इतनी अधिक बढ़ोतरी कर दी गई थी कि 1982 में वैश्विक आर्थिक मंदी की स्थिति पैदा हो गई थी।