जल्दी का काम शैतान का! यह मुहावरा उन लोगों पर लागू होता है, जो सोचे-समझे बिना जल्दबाजी में काम बिगाड़ लेते हैं। भारत सरकार की सबसे बड़ी जांच एजेंसी नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) के अधिकारी ऐसा करें तो सरकार और जनता, दोनों के लिए चिंता की बात है। ऐसी जल्दीबाजी से न सिर्फ जगहंसाई होती है, बल्कि एजेंसी की विश्वसनीयता व पारदर्शिता पर भी प्रश्न चिह्न लग जाता है।
पाठकों को याद होगा कि सुशांत सिंह राजपूत की आकस्मिक मृत्यु के बाद एनसीबी ने बॉलीवुड में जो तांडव रचा वो अप्रत्याशित था। जांच के परिणाम आरोपों के अनुरूप आते तो एनसीबी की वाहवाही होती पर ‘खोदा पहाड़ निकली चुहिया’। ताजा मामला आर्यन खान का है जिसे एनसीबी ने ड्रग के मामले में अब क्लीन चिट दे दी है जबकि आर्यन की गिरफ्तारी के समय ही कानून के जानकारों ने कह दिया था कि मामला अदालत में टिकेगा नहीं। उनका ऐसा मानना इसलिए था क्योंकि एनसीबी के जांच अधिकारियों से शुरु आती दौर में ही जल्दबाजी में कई ऐसी गलतियां हुई जो आर्यन खान को दोष-मुक्त करने के लिए काफी थीं। जैसे कि उसके पास ड्रग बरामद न होना, आर्यन की मेडिकल जांच का न होना, क्रूज पर रेड का सही पंचनामा न होना आदि। जांच टीम द्वारा ये ऐसी जल्दबाजी वाली गलतियां थीं, जिनसे एनसीबी जैसे विभाग पर भी उंगलियां उठीं। सबूतों की कमी होने के कारण ही एनसीबी ने न सिर्फ उसे क्लीन चिट दी, बल्कि इस मामले की जांच कर रहे अपने ही अधिकारियों को दोषी ठहराया, जिन्होंने यह सब नाटक रचाया था। उनकी मंशा पर अब और संदेह हो गया है। जिस मामले ने शुरुआत में इतना तूल पकड़ा वह 238 दिनों के ट्रायल के बाद सबूत न मिलने के कारण औंधे मुंह गिर पड़ा। किसी भी दोषी को सजा सबूतों और अदालत द्वारा दी जाती है न कि जल्दबाजी में किए गए मीडिया ट्रायल द्वारा।
आर्यन के मामले में प्रिंट और टीवी मीडिया के एक हिस्से ने जिस तरह का बवंडर खड़ा किया था वो हास्यास्पद ही नहीं, चिंताजनक भी था। इस हिस्से ने आर्यन को बिना किसी जांच और सबूत के अंतरराष्ट्रीय तस्कर बना दिया था। अब वही मीडिया खामोश है जबकि अगर उसमें थोड़ा भी नैतिक बल है तो उसे आर्यन खान और शाहरुख खान से सार्वजनिक माफी मांगनी चाहिए। जाहिर है कि वो मीडिया यह नहीं करेगा। तो फिर मीडिया का वो तबका जो संतुलित खबर दिखाने में यकीन रखता है, उसे चाहिए कि ऐसे गैर-जिम्मेदार टीवी चैनलों की आर्यन खान कवरेज को अपनी डिबेट में दिखा कर बेनकाब करे।
पंजाब के मशहूर गायक सिद्धू मूसेवाला की निर्मम हत्या हो या पंजाब में अन्य हिंसक घटनाएं, जानकार इन्हें भी जल्दबाजी का नतीजा मान रहे हैं। जिस तरह पंजाब की कमान संभालते ही आम आदमी पार्टी की सरकार ने जल्दबाजी में कई फैसले कर डाले उससे कई सवाल उठते हैं। ऐसी क्या जल्दी थी कि एक झटके में पंजाब सरकार ने 424 लोगों की सुरक्षा घटाई? जब किसी को सरकारी सुरक्षा दी जाती है तो उससे पहले संबंधित व्यक्ति पर धमकी का जायजा खुफिया विभाग, गृह मंत्रालय व स्थानीय पुलिसकर्मी द्वारा लिया जाता है, और उसी के अनुसार उस व्यक्ति को सुरक्षा प्रदान की जाती है। इसके बाद उसकी सुरक्षा का नियमित रूप से मूल्यांकन भी किया जाता है। उसी मूल्यांकन के अनुसार सुरक्षा बढ़ाई या घटाई जाती है। लेकिन इस मामले में भगवंत सिंह मान ने कुछ ज्यादा ही जल्दी दिखाई। पंजाब की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के अनुसार राज्य की पुलिस ने सिद्धू मूसेवाला की हत्या के बाद इसे ‘गैंग वार’ का नाम देकर सरकार की जल्दबाजी को छिपाने का प्रयास किया है, लेकिन यह सही नहीं। हां, जिस तरह मूसेवाला या पंजाब के अन्य पॉप गायक अपने गानों में हथियारों, हिंसा और नशे को दिखाते रहे हैं, उससे अपराध को बढ़ावा ही मिल रहा है।
आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अपनी सरकार बनाने के बाद अन्य राज्यों में पंख फैलाने की दृष्टि से सरकार बनते ही जल्दबाजी में कुछ ऐसे फैसले कर डाले जो घातक साबित हुए। अगर मान सरकार को कुछ अनूठा ही करना था तो गुरु ओं की धरती पर जिस तरह नशे और हथियारों का चलन बढ़ा है, उस पर रोकथाम के प्रयास करते तो बेहतर होता। पंजाब जैसे सीमावर्ती राज्य को चलाने के लिए जिस तरह के अनुभव और संयम की जरूरत होनी चाहिए वो शायद आम आदमी पार्टी की सरकार के पास फिलहाल तो नहीं ही है। सरकार बनते ही जिस तरह हिंसक घटनाएं बढ़ी हैं, उससे दुनिया भर में गलत संदेश गया है। पंजाब में सरकार ने वीआईपी कल्चर पर कैंची चलाई सो चलाई लेकिन जितने भी लोगों की सुरक्षा घटाई उनके नामों का खुलासा कर बड़ी गलती की। इससे उन लोगों के दुश्मनों को खुला निमंत्रण मिल गया। आर्यन खान का मामला हो, लखीमपुर में किसानों या सिद्धू मूसेवाला की हत्या का मामला हो, इन सभी में जांच अधिकारियों से पहले ही मीडिया ट्रायल के माध्यम से ऐसी जानकारी लीक कर दी जाती हैं, जिनसे जांच पर प्राय: विपरीत असर पड़ता है। जनता के मन में भी एक धारणा पैदा हो जाती है कि आरोपी दोषी है पर बाद में वही आरोपी आरोप मुक्त हो जाता है, तो भी उसके माथे पर नाहक अपराधी होने का तमगा लगा रहता है, जो गलत है। इसलिए जांच और पुलिस एजेंसियों को जांच के मामलों में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए।