दुनिया भर में नागरिक विरोध के स्वर मुखर हुए हैं, और फसाद बढ़े हैं। पिछले दशक में पहले के मुकाबले दुनिया में टकराव के मामले दुगने रहे।
ये बात साल 2020 में जारी ग्लोबल शांति इंडेक्स से जाहिर हुई। देश में दंगे और दुनिया में जंग हमारे भीतर खौल रही सोच की नुमाइश भर है, या सोची-समझी साजिशों का नतीजा? साल 2016 से 2020 के बीच भारत में 3400 सांप्रदायिक दंगे हुए और इस दौरान ढाई लाख से ज्यादा मामले दर्ज हुए।
साल 2016 में दुनिया के अलग-अलग देशों में विरोध के स्वर चरम पर थे जिनमें से कई फसाद में बदल गए। फ्रांस में श्रमजीवी कानून को लेकर, ब्राजील में भ्रष्टाचार, अमेरिका में पुलिस ज्यादती के खिलाफ हिंसक विरोध हुए। भारत में किसान आंदोलन और चुनावी हिंसा शर्मिंन्दगी का सबब बनी। लेकिन सांप्रदायिक दंगों का जो सिलसिला नजर आ रहा है, उसके पीछे कोई खास मकसद और ताकतें जरूर छिपी होती हैं। यह संकेत दंगों-फसाद पर हुए तमाम अध्ययनों में मिलता है। हल्की सी चिंगारी कैसे खून खराबे में भड़क जाती है, और हताशा के कगार पर पहुंचे कमजोर लोग, गैर-बराबरी वाले पूरे कुनबे में उन्माद पैदा कर देते हैं, इसे ‘जोकर’ फिल्म में योआक्विन फीनिक्स की बेहतरीन अदाकारी ने पर्दे पर उतारा है। ‘वायलेंस एंड द सेक्रेड’ में फ्रांसिसी आलोचक रेने जेरार्ड, ग्रीक और ईसाई इतिहास की रौशनी में धर्म के मूल में हिंसा होने की बात कहते हैं। वहीं राजनीतिक विचारक थॉमस हॉब्स का कहना है कि लोग अपनी सुरक्षा के बदले ही सत्ता का चुनाव करते हैं यानी वो अपने कुनबे या जातीय पहचान पर मंडरा रहे खतरों से उबरने के लिए सत्ता का घेरा चाहते हैं। हॉब्स यह भी कहते हैं कि समाज में अराजकता और टूटन के लिए कुलबुलाहट हमेशा ही कायम रहती है।
मगर हाल का तजुर्बा कह रहा है कि तोड़फोड़ की फितरत को काबू करने में न धर्म, न समाज और न ही सत्ताएं कामयाब हुई हैं। अपने वजूद के लिए भटकता और भयभीत आदमी जब भीड़ से भिड़ जाता है, तो न तर्क से काबू आता है, न ही समझाइश से। उस वक्त मजहबी लिबास में छिपी झिझक पल भर में उन्माद में तब्दील हो जाती है।
दंगों पर हुए शोध यह भी कहते हैं कि सामूहिक तौर पर नजर आ रहा बर्ताव बेतुका नजर भले ही आए मगर होता रणनीतिक और योजनाबद्ध ही है। दंगाइयों और उनके आकाओं की अपनी आपसी बुनावट भी होती है, जिसका खुलासा लोकतंत्र की हिफाजत का बड़ा मसला है। करीब 130 देशों में दंगों और हिंसक विरोधों के नफे-नुकसान का जायजा इंटरनेशनल मॉनिटरी फंड यानी आईएमएफ साल 1985 से ‘रिपोर्टेड सोशल अनरेस्ट इंडेक्स’ के जरिए ले रहा है। इसका आकलन यह है कि किसी भी देश में हिंसक विरोधों के बड़े मामलों की आशंका का औसत एक फीसदी है। मगर एक बार कहीं हिंसा भड़कने के बाद छह महीने में ही उसके फिर से भड़कने का जोखिम बढ़ जाता है। दंगाई मानसिकता के लिए अक्सर वर्ग संघर्ष को जिम्मेदार माना जाता है, लेकिन बात साझी चेतना की भी है। पिछली घटनाओं का असर दिमाग पर छाया रहता है, और अंदर के उबाल को मौका मिलते ही वो बेचैनी हिंसक वारदात में बदल जाती है। बड़े पैमानों पर हुई हिंसा से देशों के शेयर बाजार पर भी असर आता है, लेकिन छोटे इलाकों में सिमटे दंगों में छोटे व्यापारियों और दुकानदारों के जान-माल के नुकसान का गणित कभी लगाया ही नहीं गया। फसाद की जद में आम आदमी की दुकान, मकान जलता है, और मुनाफा उन ताकतों का होता है, जिन्हें उकसावे के बदले अपनी कौम की शाबाशी ही नहीं, ओहदेदारी भी हासिल होती है। दंगों के मुकाबले जंग का गणित सीधा सा है। हथियार बनाने वाली कंपनियों के मुनाफे पर रान पॉल ने अमेरिका के मेजर जनरल स्मेडली की साल 1935 में कही एक बात का हवाला देते हुए लिखा कि ‘जंग पूरा रैकेट’ है। आम दुनिया को नजर आ रही हकीकत से परे। बेहद खुफिया तौर पर काम कर रही एक जुदा दुनिया। जंग में बड़ी आबादी की तबाही के बदले चंद लोग अपनी जेबें भरते हैं। यूक्रेन और रूस के बीच छिड़ी जंग में ऐसा माहौल बनाया जा रहा है, जैसे अमेरिका और नाटो देश यूक्रेन को हथियारों का जखीरा नहीं भेजेंगे तो वो नहीं बचेगा। अमेरिका तीन सौ करोड़ रुपये के हथियार भेजने का वादा कर चुका है। मगर फायदे में सिर्फ अमेरिकी सेना और उद्योगपतियों ही हैं। एक हथियार कंपनी के मुखिया ने कहा कि डिफेंस विभाग या नाटो के साथी देशों में बेकार पड़े हथियार झाड़-पोंछ कर यूक्रेन के काम आ रहे हैं। यह कारोबारी फायदे की बात है। रूस की जवाबी कार्रवाई में यूक्रेन पहुंचते ही उड़ाए जा रहे अमेरिकी एंटी टैंक मिसाइल से कंपनियां खुश हैं। जितने टैंक उधर उड़ रहे हैं, उतने ही टैंकों का ऑर्डर पैंटागन से मिल रहा है।
वॉरसा समझौते में शामिल देश नाटो में शामिल होने के कारण तीन दशक पुराने सोवियत हथियारों को जंग के बहाने अमेरिकी और नाटो देशों के आधुनिक हथियारों से अदला-बदली कर रहे हैं। अमेरिका के मरीन इंटेलिजेंस के अफसर स्कॉट रिटर ने एक रिपोर्ट में कहा कि जंग के मैदान में जितना भी जखीरा पहुंच रहा है, इससे हार-जीत पर कोई असर नहीं होगा। जंग हों या दंगे, हार ईमान और इंसानियत की ही होती रही है। आज भारत में मजहबी ताकतें सिर उठा रही हैं, तो यह लोकतंत्र के नाते खुद को खंगालने का वक्त है। सुभाष चंद्र बोस ने महाराष्ट्र प्रोविंशियल कॉन्फ्रेंस के छठे अधिवेशन में कांग्रेसियों को दिए अपने संबोधन में कहा था, ‘आप ऐसा नहीं कर सकते कि अपनी आधी आत्मा को आजाद कर दें और आधी को कैद में रहने दें। एक कमरे में उजाला कर दें और चाहें कि एक हिस्सा अंधेरे में रहे। राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना भी चाहें और समाज के ताने बाने में लोकतंत्र का प्रतिरोध करें, ऐसा नहीं हो सकता। हमें राजनीतिक डेमोक्रेट्स और सोशल कंजर्वेटिविज्म का अजीब घालमेल नहीं बनना है। राजनीतिक संस्थाएं लोगों के सामाजिक जीवन से उपजती हैं। अगर हम भारत को असल में महान बनाना चाहते हैं, तो हमें लोकतांत्रिक समाज की नींव पर राजनीतिक लोकतंत्र खड़ा करना होगा। जन्म, जात-पात, पंथ के आधार पर विशेषाधिकार खत्म करने होंगे।’ यह वक्त नेताजी की नसीहत पर चलते हुए नफरतों के ताने बाने की चीरफाड़ का भी है ताकि असल ताकतों का पर्दाफाश हो। कट्टरता और दंगों को कुचलते हुए दिमागों में जारी जंग का इलाज भी होता रहे तो सबके लिए बेहतर।