भले ही रूस–यूक्रेन युद्ध इस दौर का सबसे चर्चित एवं गंभीर विषय बन रहा हो लेकिन सूक्ष्म विश्लेषण करने के बाद प्रतीत हो रहा है कि यह जियो–पॉलिटिक्स और जियो–इकोनॉमिक्स की पूंछ ही है। सिर तो कहीं और है। सवाल है कि क्या रूस–यूक्रेन युद्ध में जो दिख रहा है उसके इतर भी बहुत कुछ है जो नहीं दिखाया जा रहा हैॽ बहुत से विश्लेषक इस युद्ध को एटामिक युद्ध तक ले जाने की वैचारिक कोशिश कर रहे हैंॽ क्या ऐसा नहीं लगता कि वे विचारों में स्वयं एक युद्ध लड़ रहे हैंॽ अंतिम प्रश्न यह‚ क्या एक मात्र व्लादिमीर पुतिन ही इस युद्ध के लिए दोषी हैंॽ सवाल यह क्यों नहीं उठाया जा रहा है कि रूस–यूक्रेन युद्ध के पीछे कौन सी शक्तियां हैं‚ और उनका उद्देश्य क्या हैॽ सवाल तो यह भी पूछा जाना चाहिए था कि ‘नाटो’ शीतयुद्ध के समापन के बाद भी क्यों बना हुआ है‚ और इसने अब तक वैश्विक शांति स्थापित करने का कौन सा उदाहरण पेश किया हैॽ यह सच का सिर्फ एक सिरा है कि राष्ट्र के रूप रूस किसी दूसरे राष्ट्र यानी यूक्रेन की संप्रभुता एवं अखंडता पर प्रहार कर रहा है‚ लेकिन इसके दूसरे छोर पर स्थापित एक दूसरा सच भी है। इस दूसरे सच के कई घटक हैं। इनमें से एक यह है कि नाटो शक्तियां सोवियत विघटन के बाद भी रूस को निरंतर कमजोर करने के प्रयास कर रही हैं।
महत्वपूर्ण बात तो यह है कि यूरोपीय संघ और यूरो जोन उन देशों को आर्थिक संकट के साथ–साथ वैश्विक महामारी कोरोना के समय बचाने के लिए आगे नहीं आया जिनके नेताओं ने लगभग दो दशक पहले एक ऑप्टिमम जोन‚ ऑप्टिमम अर्थव्यवस्था के लिए एकजुटता की कसमें खाई थीं। फिर वे किस आधार पर दावा कर सकते हैं कि सोवियत संघ के खंडहरों पर खड़े देश‚ जिनकी आर्थिक दशा कमजोर है‚ कल्पवृक्षों की रोपाई कर रहे हैं। ऐसा तो इन देशों का इतिहास भी नहीं रहा है‚ जिसे आईने की तरह देख कर खुश हुआ जा सके। औपनिवेशिक काल का इतिहास और उत्तर–औपनिवेशिक काल की इनकी गतिविधियां देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि ये पूर्वी यूरोप‚ दक्षिणी कॉकेशस और यूरेशिया को अपनी छतरी के नीचे लाने के लिए किस तरह की पटकथाएं लिख रहे होंगे। दरअसल‚ यूक्रेन में लड़ी जा रही लड़ाई एक तरह का शक्ति परीक्षण है। इसमें रूस शक्ति बनने की कोशिश कर रहा है। कारण यह है कि दुनिया इस समय अमेरिका और चीन के बीच शक्ति संतुलन के लिए चल रहे छद्मयुद्ध या यूं कहें कि सीमित शीतयुद्ध के बीच रूस को लग रहा है कि एक वैश्विक शक्ति केंद्र के रूप में अब उसे स्वीकार नहीं किया जा रहा है। शायद पुतिन इस उद्देश्य को पूर्वी यूरोप‚ दक्षिणी कॉकेशस और यूरेशिया पर नियंत्रण स्थापित करके पूरा करना चाहते हैं। लेकिन यह तभी संभव हो पाएगा जब यूक्रेन रूस के नियंत्रण में आ जाए। इसके लिए पुतिन सैन्य युद्ध ही नहीं लड़ रहे हैं‚ बल्कि वे रूस के भू–राजनीतिक और भू–आर्थिक हितों को उत्तर और दक्षिण में विस्तार देने की रणनीति भी अपना रहे हैं।
पुतिन की रणनीति सफल हो जाती है तो रूस के प्रभाव की परिधियां बैरेंट्स सागर से लेकर आर्कटिक महासागर तक विस्तृत हो जाएंगी जिसमें पूर्वी यूरोप‚ दक्षिणी कॉकेशस‚ यूरेशिया‚ मध्य पूर्व और उत्तरी अमेरिका का हिस्सा भी शामिल होगा। यही वजह है कि रूस और चीन ‘अंतरराष्ट्रीय संबंधों के नये युग में प्रवेश’ करने की बात कर रहे हैं (४ फरवरी‚ २०२२ को शीतकालीन ओलंपिक खेलों के उद्घाटन के समय दोनों देशों के राष्ट्रपतियों का साझा बयान)। वे भले ही इसका उद्देश्य ‘दुनिया का टिकाऊ विकास’ बता रहे हों‚ लेकिन वास्तव में ड्रैगन और पांडा (बियर–जिम ओ नील द्वारा रूसी अर्थव्यवस्था को पांडा की संज्ञा दी गई थी) यानी ड्रैगनबियर का वास्तविक उद्देश्य इससे कहीं अधिक जटिल और गैर–संभ्रांत है। यूरेशिया में अमेरिका और यूरोप के प्रभुत्व को कम करने के लिए भी रूस और चीन प्रतिबद्ध दिख रहे हैं। यही वजह है कि रूस और चीन ने अपने–अपने सीमा विवादों को नेपथ्य की ओर धकेल कर भू–राजनीतिक और भू–आर्थिक रणनीति को वरीयता दी है। ध्यान रहे कि फरवरी माह में द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन के दौरान दोनों देशों के राष्ट्रपतियों ने ऐलान किया था कि उनकी ‘दोस्ती की कोई सीमा नहीं’ है। यही बात अमेरिका और यूरोप के लिए सिरदर्द करने वाली है। दोनों ही नहीं चाहते कि रूस यूरेशिया में मजबूत पकड़ बना पाए या पूर्वी यूरोप‚ दक्षिणी कॉकेशस और यूरेशिया में एक शक्ति के रूप में स्थापित हो सके। इस दिशा में नाटो काफी पहले से अपना खेल खेल रहा है‚ लेकिन अब रूस इस पर विराम लगाना चाहता है‚ और विराम के लिए संभवतः युद्ध की जरूरत थी। इस युद्ध का मैदान यूक्रेन को बनना था। इसलिए यह मानकर निष्कर्ष तक नहीं पहुंचना चाहिए कि रूस–यूक्रेन युद्ध आकस्मिक घटना नहीं है। यही वजह है कि लड़ाई लंबी खिंच रही है‚ और चिंता की लकीरों को गहरा रही है।
फिलहाल बीते सप्ताह मोल्दोवा और यूक्रेन की सीमा पर स्थित रूसी प्रांत ट्रांसनिस्टिया और यूक्रेन की उत्तरी सीमा से लगे रूसी नगर बेल्गोरोद के शस्त्रगार में बड़े धमाके हुए। इसके बाद पुतिन ने धमकी दी‚ ‘जो भी तीसरा देश लड़ाई में हस्तक्षेप करेगा और हमारे लिए सामरिक खतरे खड़े करेगा‚ उसे बिजली जैसा कड़क जवाब दिया जाएगा।’ उन्होंने यह धमकी भी दी कि हमारे पास ऐसे शस्त्रास्त्र हैं‚ जिनके होने का दावा कोई और नहीं कर सकता और जरूरत पड़ी तो हम उनका प्रयोग करने से नहीं चूकेंगे। पुतिन की इस धमकी को सामान्य माना जाए या फिर असामान्य। यदि सामान्य तो फिर चिंता वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए लेकिन असामान्य है तो इसका मतलब हुआ कि रूस इस युद्ध में टैक्टिकल एटामिक वेपन्स का प्रयोग भी कर सकता है। इस बीच‚ नाटो देश रूस को उकसाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। ऐसे में दोषी किसे माना जाए‚ तय करना मुश्किल है। सच है कि रूसी सेना उम्मीद और हैसियत के मुताबिक सफलता हासिल नहीं कर पाई। कारण यह नहीं है कि यूक्रेनी सेना सक्षम है अथवा उसका नेतृत्व बहुत योग्य। बल्कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि युद्ध रूस और यूक्रेन के बीच लड़ा ही नहीं जा रहा। सही अर्थों में तो इस युद्ध में एक तरफ रूस है‚ और दूसरी तरफ नाटो। यूक्रेन तो केवल मोहरा है जबकि इसकी कीमत चुका रहे हैं यूक्रेन के नागरिक। जो भी हो‚ अमेरिका और यूरोप को तसल्ली हो सकती है कि रूसी सेना की अक्षमता बेनकाब हो गई है। पुतिन को इस बात की खीझ हो सकती है कि रूसी फौज यूक्रेन और जेलेंस्की को सबक क्यों नहीं सिखा पाई। यह सवाल लगातार छूटता जा रहा है कि यूक्रेन को युद्ध का मैदान आखिर बनाया किसनेॽ