अतंरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर खास अपने देश के संदर्भ में बात करें तो कम से कम दो प्रेरणास्पद बातें याद आती हैं।
पहली, हमारा देश अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का संस्थापक सदस्य है, और दूसरी, भूमंडलीकरण के भरपूर व्याप जाने के बावजूद दुनिया के कई देशों में मजदूर दिवस सरकारी छुट्टी का दिन बना हुआ है। इसी के बाद सवाल सिर उठा लेता है कि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के संस्थापक सदस्य भारत में इस दिन छुट्टी क्यों नहीं होती?
बहरहाल, नई पीढ़ी की जानकारी के लिए जानना दिलचस्प हो सकता है कि 19वीं शताब्दी के नौवें दशक तक मजदूर अत्यंत कम और अनिश्चित मजदूरी पर सोलह-सोलह घंटे काम करने को अभिशप्त थे। 1810 के आसपास ब्रिटेन में उनके सोशलिस्ट संगठन ‘न्यू लेनार्क’ ने रॉबर्ट ओवेन की अगुआई में अधिकतम दस घंटे काम की मांग उठाई और उसके छह-सात सालों बाद आठ घंटे काम पर जोर देना शुरू किया, तो नारा था-आठ घंटे काम, आठ घंटे मनोरंजन और आठ घंटे आराम। लेकिन निर्णायक घड़ी एक मई, 1886 को आई, जब पुलिस की गोली से मेकॉर्मिंक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में चार हड़तालियों की मौत के अगले दिन अमेरिका के शिकागो स्थित हेमार्केट स्क्वायर में हड़ताली मजदूरों ने विराट प्रदशर्न किया और वहां पुलिस, नेशनल गार्ड और घुड़सवार दस्ते ऐसे बर्बर दमन पर उतर आए कि धरती मजदूरों के रक्त से लाल हो गई। जानकारों के अनुसार प्रदशर्न के दौरान शिकागो की हेमार्केट में बम धमाका हुआ था। यह बम किस ने फेंका किसी का कोई पता नहीं, लेकिन यह निष्कर्ष निकालकर कि ऐसा मजदूरों ने ही किया, पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी। तभी से उस संघर्ष की याद में हर साल एक मई को मजदूर दिवस मनाने का चलन शुरू हुआ।
भारत में यह दिवस सबसे पहले चेन्नई में 1923 में मनाया गया था। उस समय इसको मद्रास दिवस कहा जाता था, जिसकी शुरुआत भारतीय मजदूर किसान पार्टी के नेता कामरेड सिंगरावेलू चेट्यार ने की थी, लेकिन अब कई लोग पूछते हैं कि भूमंडलीकरण के चोले में आई नवउपनिवेशवादी नीतियों के ‘सफल’ तीन दशकों के बाद हमारे देश के कई ‘सयाने’ लोग कहते हैं कि जब मजदूरों के पुराने कौशल बेकार हो गए हैं, उनकी जगह नये कौशलों और प्रशिक्षणों ने ले ली है, न वे श्रमिक रहे हैं, न वह श्रमिक एकता और कथित रूप से कुछ ज्यादा ही कुशल श्रमिकों का एक हिस्सा अपनी निजी उपलब्धियों और महत्त्वाकांक्षाओं के फेर में पड़कर योग्यता और प्रतिस्पर्धा के नाम पर मजदूर आंदोलन के मूल्यों से गद्दारी पर आमादा है, तो इस दिवस का भला क्या औचित्य है?
लेकिन कोई यह कहे कि मजदूरों की एकता या उनके आंदोलनों की प्रासंगिकता ही खत्म हो गई है तो उससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। क्योंकि आज भी न वर्ग संघर्ष का इतिहास बदला है, न श्रम, उत्पादन और पूंजी का मूल संबंध। प्रगतिशील और क्रांतिकारी मजदूर आंदोलनों की पहले से ज्यादा आवश्यकता है। अलबत्ता, इस वक्त मजदूर आंदोलनों को आत्मावलोकन की सख्त जरूरत है। समझने की कि उनसे बड़ी गलती यह हुई है कि उन्होंने समाजवादी दशर्न की उन उम्मीदों को नाउम्मीद कर डाला है जिनके तहत समझा गया था कि मजदूर संगठन क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों की अगुआई करने वाले हिरावल दस्ते के रूप में काम करेंगे। इसके उलट उन्होंने खुद को मजदूरों, खासकर संगठित मजदूरों की चिंता तक सीमित कर लिया। मजदूरों और उनके आंदोलनों का भविष्य इस पर निर्भर होगा कि वे पुरानी गलतियों से सबक सीखेंगे और आत्मावलोकन करेंगे या नहीं?
सबक सीखना हो तो शंकर गुहा नियोगी की यह सीख तो उन्हें माननी ही चाहिए कि मजदूर संगठन सिर्फ आठ नहीं, चौबीस घंटों के लिए होने चाहिए। अब अनेक कंपनियां बारह-बारह घंटे काम के टाइमटेबल पर चलने लगी हैं। छंटनी आदि से डरे मजदूर उन्हें झेल रहे हैं। ठेके पर मजदूरी को मजबूर हैं, और कहीं वीआरएस लेकर घर बैठ जाने को। निरंकुश बड़ी पूंजी का एकतरफा भूमंडलीकरण जहां ‘देयर इज नो ऑल्टरनेटिव’ के घातक प्रचार के सहारे अपनी जड़ें लगातार गहरी करता जा रहा है, वहीं श्रम के भूमंडलीकरण की कहीं कोई चर्चा ही नहीं है, जबकि निर्बध पूंजी के बरक्स निर्बध श्रम की मांग के लिए यही सही समय है।