क्षिण भारत में स्कूल में हिजाब पहनने या न पहनने को लेकर विवाद चल रहा है‚ जिसका सीधा असर मुस्लिम छात्राओं की शिक्षा पर पड़ रहा है। कहीं इस हिजाब विवाद के चक्कर में मुस्लिम छात्राओं की शिक्षा हाशिये पर ना आ जाए। ज्ञातव्य है कि मुस्लिम समाज में शिक्षा को लेकर जागरूकता का बड़़ा अभाव है। ऐसे में अगर लड़़कियां या उनके परिजन जिद पर आएंगे तो तरक्की की राह में उन्हें और दुश्वारियों का सामना करना पड़े़गा। दरअसल‚ इसे कैसे केवल मुस्लिम महिला मुद्दा न मानकर एक सामाजिक मुद्दा माना जाए।
शिक्षा को धर्म‚ संप्रदाय और पंथ से हमेशा दूर रखना चाहिए। हिजाब को धार्मिक और अभिव्यक्ति की आजादी और स्कूल यूनिफॉर्म कोड से जोड़कर देखा जा रहा है‚ परंतु हमें यह सोचना चाहिए कि चाहे ‘हिजाब हो या ना हो‚ लड़कियां स्कूल में होनी चाहिए’ अर्थात लड़कियों की शिक्षा बाधित नहीं होनी चाहिए। सकारात्मक सोच को गति देने के वास्ते हमें हिजाब और भगवा शॉल दोनों से ऊपर उठकर सोचना होगा‚ तभी हम विकसित देश की श्रेणी में खड़े हो सकते हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षा और कुछ परम्परावादी धार्मिक सोच की वजह से ही हिजाब विवाद को तूल दिया जा रहा है‚ जिससे मुस्लिम लड़़कियों की शिक्षा हाशिए पर है। इस मसले पर महिलाओं में मत भिन्नता है। इसलिए केरल के राज्यपाल ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को उनके हिजाब पहनने के अधिकार के लिए विरोध करने के लिए उकसाया जा रहा है। उन्होंने छात्राओं को सलाह दी कि असमाजिक तत्वों और लोगों के बहकावे में नहीं आएं और अपनी पढ़ाई पर ध्यान दें। उन्होंने यह भी कहा कि ‘मुस्लिम लड़कियां हर जगह बहुत अच्छा कर रही हैं और इसलिए उन्हें प्रोत्साहन की जरूरत है। उन्हें नीचे धकेलने की जरूरत नहीं है। इस विवरण से यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि स्त्रियों की स्थिति कितनी जटिल और दुविधापूर्ण है। मानसिक रूप से बंदी बना ली गइ इन मुस्लिम महिलाओं इस कैद से आजादी मिलनी चाहिए। वह पुरुषों की दखलंदाजी से आजाद हों। जब देश ने स्वतंत्रता के बाद अपनी योजनाओं को लागू करना शुरू किया तो इस बहुमूल्य दस्तावेज को पूरी तरह से भूला दिया गया। स्वतंत्रता के बाद स्त्री की जिस छवि को मान्यता दी गई वह परिवार पालने वाली और समाज में अनेक दयित्व से बंधी थी। शायद कहने की आवश्यकता नहीं है कि हिजाब की चर्चा से यह साफ है कि सार्वजनिक राजनीतिक संस्थाओं से मुस्लिम महिलाओं को अभी भी बाहर ही रखा जा रहा है। हिजाब का सवाल फिलहाल चर्चा में है और इसके बहाने कई और कठिन मुद्दे उठ गए हैं। यहां यह तर्क दिया जाता है कि सबको समाहित करने वाले कोई भी कानून चाहे भारतीय जनता पार्टी द्वारा लाया जाए‚ चाहे कोर्ट की समझदारी से; मौजूदा समय में वह अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के हितों को नुकसान पहुंचाएगी‚ क्योंकि आज के तीखे सांप्रदायिक राजनीतिक वातावरण में वे अल्पसंख्यक और महिला होने का भार सहन करती हैं। शायद इसलिए राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान हिजाब मामले में सुधार की पहलकदमी पर मजबूती के साथ खड़े हैं‚ ताकि महिलाओं के अधिकार के रहते अल्पसंख्यक समुदायों के लिए एक समान कानून बनने से उनकी अपनी पहचान पर फर्क न पड़े। इस प्रकार समाज में मुस्लिम महिलाओं की दोयम स्थिति को केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने सफलतापूर्वक कटघरे में खड़ा किया । जो पहले से ही छदम राजनीति में हैं उन्हें लगता है कि हिजाब की बात उठाने से उनका महत्व कम होता है । महिलाओं के इस राजनीतिकरण के व्यापक असर की और जांच की जानी जरूरी है। क्या उससे उनकी रोजमर्रा की जिंदगी पर कोई असर पड़ाॽ क्या उनकी स्थिति में कहीं कोई बदलाव आया हैॽ मुस्लिम महिलाओं के किसी भी राजनीतिक व्यवहार का विश्लेषण करने से पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना जरूरी है कि मुस्लिम महिलाएं शायद ही कभी राजनीति में अपनी मर्जी और इच्छा से जाती होंगी। इसमें पूरे घर का हर तरह का दबाव और खिंचाव शामिल होता है। भारतीय महिलाएं खासकर मुस्लिम महिलाएं विभिन्न पारिवारिक रिश्तों का जोड़ भर होती हैं।
महिलाओं के संबंध में इस पूर्वधारणा की छानबीन राष्ट्रीय परिपेक्ष्य के संदर्भ में करना उपयोगी होगा। आज कई विकसित देशों में जैसे फ़्रांस में १८ साल की लड़कियों के सार्वजनिक जगहों पर हिजाब पहनने पर पांबदी है। इसके अलावा बेल्जियम‚ नीदरलैंड और चीन में भी हिजाब पहनने पर रोक है। हमें इन देशों की सार्वजनिक व्यवस्था से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा है कि हिजाब पहनना इस्लाम धर्म में आवश्यक धार्मिक प्रथा का हिस्सा नहीं है। किसी भी देश के विकसित और सकारात्मक होने में वहां की आधी आबादी का बड़़ा रोल होता है। इसलिए महिलाओं की शिक्षा बेहद जरूरी है। मुस्लिम समाज यह बात समझे तो बेहतर होगा।