कृषि कानूनों के विरोध में जारी धरना लगभग एक वर्ष बाद खत्म हो गया। कोई भी आंदोलन स्थायी नहीं होता। एक न एक दिन खत्म होता ही है। इस आंदोलन को भी खत्म होना ही था। दिल्ली की सीमाएं खाली होने के बाद वे लाखों लोग राहत की सांस ले रहे होंगे जिनकी दैनिक जिंदगी इस घेरेबंदी से प्रभावित थी। इसलिए सरकार द्वारा मांगें माने जाने के बाद जश्न मना रहे इन संगठनों के नेताओं‚ कार्यकर्ताओं का उत्साह देखकर सच कहें तो उन लोगों के अंदर खीझ पैदा हो रही थी। देश में ऐसे लोगों की भारी संख्या भी है‚ जो उनके व्यवहार से क्रुद्ध थे।
वास्तव में आंदोलन खत्म होना उतना महत्वपूर्ण नहीं है‚ जितना यह कि खत्म कैसे हुआ। अब धरना समाप्त हो चुका है तो शांत मन से पक्ष–विपक्ष के सभी राजनीतिक नेताओं‚ विवेकशील और जानकार लोगों को विचार करना चाहिए कि क्या वाकई इस तरह इन धरनों का खत्म करना उचित हैॽ वास्तव में इसके साथ न तो इससे संबंधित बहस और मुद्दे खत्म हुए और न कृषि और किसानों से जुड़ी समस्याएं ही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा राष्ट्र के नाम संबोधन में तीनों कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा तथा बाद में इन नेताओं की ज्यादातर मांगें मांग लेने के बाद विपक्ष एवं विरोधी सरकार का उपहास उड़ा रहे हैं। भारतीय राजनीति की दिशाहीनता और वोट एवं सत्ता तक सीमित रहने के संकुचित चरित्र में इससे अलग व्यवहार की उम्मीद नहीं की जा सकती। कोई सोचने को तैयार नहीं है कि क्या वाकई यह धरना या आंदोलन इतना महkवपूर्ण था जिसके सामने सरकार को समर्पण करना चाहिएॽ लोकतंत्र में जिद और गुस्से से कोई समस्या नहीं सुलझती। कई बार चाहे–अनचाहे झुकना भी पड़ता है। इसे मान–अपमान का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। बावजूद प्रश्न तो उठेगा।
पिछले वर्ष सरकार ने किसानों से ११ दौर की वार्ताओं में और उसके बाद स्पष्ट कर दिया था कि किसी कीमत पर कृषि कानूनों को वापस नहीं लेगी। आखिर‚ लंबी प्रतीक्षा के बाद कृषि क्षेत्र में सुधार के साहसी निर्णय किए गए थे। उसमें थोड़ी कमियां हो सकती हैं‚ लेकिन कुल मिलाकर कृषि से जुड़े विशेषज्ञ‚ नीतियों की थोड़ी समझ रखने वाले किसान दिल से चाहते थे कि ये कानून लागू हों तथा उद्योगों की तरह निजी क्षेत्र कृषि में भी उतरे। स्व.चौधरी देवीलाल ने कृषि को उद्योग के समक्ष मानने की आवाज उठाई तो व्यापक समर्थन मिला था।
सरकार ने न केवल कृषि कानूनों की वापसी की‚ बल्कि जो अनावश्यक और झूठ पर आधारित मांगें इन लोगों ने रखीं‚ उन सबको स्वीकार कर लिया। २६ जनवरी को राजधानी दिल्ली में ट्रैक्टरों से पैदा किए गए आतंक और उत्पात को देश भूल नहीं सकता। कानून की धज्जियां उड़ाने वालों के खिलाफ कार्रवाई स्वाभाविक थी। सरकार के इस रु ख के बाद तो दोषी माने ही नहीं जा सकते। लाल किले पर देश को अपमानित करने वाले अब सही माने गए। इन धरनों में खालिस्तान समर्थक तत्व अपने झंडे–बैनर तक के साथ देखे गए‚ लाल किले पर उधम मचाने वालों में वे शामिल थे। मीडिया में उनकी तस्वीरें‚ वीडियो उपलब्ध हैं। सारे मुकदमे वापस होने का मतलब यही है कि उन्हें दोषी नहीं माना गया। पराली कई सौ किमी. के क्षेत्रों में प्रदूषण के मुख्य कारणों में से एक साबित हो चुकी है। उसे रोकने के लिए प्रोत्साहन और कानूनी भय‚ दोनों प्रकार के कदम आवश्यक थे। अब इसकी कोई बात करेगा नहीं। जिन्हें शहीद बताकर मुआवजे की मांग की गई उनके निधन के लिए किन्हें जिम्मेवार माना जाएॽ जब सरकार की ओर से एक बार भी बल प्रयोग हुआ नहीं‚ न गोली चली‚ न लाठी चली लेकिन मुआवजा मिलना चाहिए। हैरत की बात है कि केंद्र सरकार‚ जिसे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में दृढ़ संकल्पित सरकार माना गया है‚ ने इस सीमा तक मांगें मानीं।
इनसे टकराने की आवश्यकता थी या इनके सामने झुक जाने कीॽ यह ऐसा प्रश्न है जिस पर सभी को गंभीरता से विचार करना चाहिए। सारे तत्व संतुलित और समझदार नहीं कि वे मानेंगे कि सरकार ने देश विरोधी तत्वों को हतोत्साहित करने की दृष्टि से तत्काल किसी तरह धरने को खत्म करने के लिए इस सीमा तक समझौता किया है। इससे उन सब का मनोबल बढ़ेगा। सबसे घातक प्रभाव होगा कि उन लोगों पर जिनने लंबे समय से इस आंदोलन या धरने की सच्चाई को लेकर आवाज उठाई‚ इनका सामना किया‚ इनके विरुद्ध जनजागरण किया। वे अपने को अजीबोगरीब स्थिति में पा रहे हैं। जहां तक राजनीतिक स्थिति का प्रश्न है तो भाजपा का पंजाब में ऐसा आधार नहीं रहा है जिसके लिए इस सीमा तक जाकर किसानों के नाम पर उठाई गई गैर–वाजिब मांगें माननी पडें़। उत्तर प्रदेश में भी इस आंदोलन का व्यापक प्रभाव नहीं था। राकेश टिकैत के कारण जिस एक जाति की बात की जा रही है‚ उसमें संभव है कि भाजपा का जनाधार कुछ घटा हो और राष्ट्रीय लोकदल की ताकत बढ़ी हो। वह भी इसी कारण हुआ क्योंकि सरकार ने समय रहते इन धरनों को समाप्त करने के अपने कानूनी अधिकारों और संवैधानिक दायित्वों का पालन नहीं किया। २७ जनवरी को इन धरनों को आसानी से समाप्त किया जा सकता था। सरकार का उस समय का रवैया और वर्तमान आचरण दोनों नैतिकता‚ तर्क‚ कृषि‚ किसान और देश के वर्तमान तथा दूरगामी भविष्य की दृष्टि से कतई उचित नहीं है। स्वयं सरकार की छवि पर भी यह बड़ा आघात है। थोड़ा राजनीतिक नुकसान हो तो भी सरकार को इनके सामने डटना चाहिए था।
इससे नुकासन ज्यादा होगा। स्वाभिमानी और अपने कर्त्तव्यों के पालन का चरित्र वाले पुलिस और नागरिक प्रशासन के कर्मियोंयों का भी मनोबल गिरा होगा। आने वाले समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी‚ अमित शाह और उनके रणनीतिकारों को इन व्यापक क्षतियों को कम करने या खत्म करने के लिए कितना परिश्रम करना होगा इसे बताने की आवश्यकता नहीं। अगर नहीं किया तो देश को जितना नुकसान इससे होगा वह तो है ही‚ राजनीतिक दृष्टि से भी भाजपा के लिए काफी नुकसानदायक साबित होगा। जब उनके कार्यकर्ताओं‚ समर्थकों और उनकी नीतियों का समर्थन करने वाले सरकारी कर्मियों का मनोबल गिर जाएगा तो फिर किस आधार पर सरकार भविष्य की चुनौतियों का सामना करेगीॽ यह ऐसा प्रश्न है जो देश के सामने खड़ा है। मुट्ठी भर एजेंडाधारी तथा उनके झांसे में आने वाले नासमझ किसान नेताओं के दबाव में सरकार ने बहुत बड़ा जोखिम मोल ले लिया है। इस तरह धरना खत्म कराने के बाद चुनौतियां बढ़ेंगी‚ क्योंकि किसी नये रूप में यो सब खड़े होंगे।