हिंदू त्योहार और आतिशबाजी
इस साल दीपावली पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पटाखों पर लगे पूर्ण प्रतिबंध का मिला–जुला असर दिखाई दिया। जहां इस आदेश को लेकर पटाखा व्यवसाय से जुडे व्यापारी परेशान रहे वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर कुछ लोग सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का खुलेआम मजाक उडाते दिखाई दिए। ऐसे मामले भी सामने आए जहां प्रशासन ने इस आदेश का पालन करते हुए लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की। आवश्यकता इस बात की है कि सर्वोच्च न्यायालय के ताजा आदेश के बाद भारत में पटाखों पर पूरी तरह से लगे प्रतिबंध का न सिर्फ सख्ती से पालन हो बल्कि जनता में जागरूकता भी आए।
हर साल की तरह दीपावली पर दिल्ली की जहरीली वायु से छुटकारा पाने के लिए हम अपने पूरे परिवार के साथ अपने वृंदावन के घर पर आए थे कि पटाखों से कुछ निजात मिलेगी। परंतु हुआ इसके विपरीत। वृंदावन में रात दो बजे तक पटाखों के शोर ने जहां हमारी गायों को परेशान किया वहीं छोटे बच्चे भी परेशान रहे। कोई सो नहीं सका। वहीं दिल्ली के कई इलाकों में जागरूकता और पुलिस की सख्ती की वजह से बहुत कम पटाखे चले। हम अपने बच्चों को कई दिन से समझा रहे थे कि पटाखों से निकलने वाले धुएं से पर्यावरण का कितना नुकसान होता है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस पर रोक लगा दी है। इसलिए केवल दीयों से ही दीपावली मनाएंगे परंतु सर्वोच्च न्यायालय की रोक का असर उत्तर प्रदेश के मथुरा जिले में तो दिखाई नहीं दिया।
वैसे सनातन धर्म के शब्दकोश में ‘आतिशबाजी’ जैसा कोई शब्द ही नहीं है। यह शब्द पश्चिम एशिया से आयातित है क्योंकि ‘मध्ययुग’ में गोला–बारूद भी भारत में वहीं से आया था। इसलिए दीपावली पर पटाखों को प्रतिबंधित करके सर्वोच्च न्यायालय ने उचित निर्णय लिया। हम जानते हैं कि पर्यावरण‚ स्वास्थ्य‚ सुरक्षा और सामाजिक कारणों से पटाखे हमारी जिंदगी में जहर घोलते हैं। इनका निर्माण और प्रयोग सदा के लिए बंद होना चाहिए। यह बात पिछले ३० वर्षों से बार–बार उठती रही है। इसी कॉलम में मैंने भी यह बात कई बार लिखी है। हमारी सांस्कृतिक परंपरा में हर उत्सव और त्योहार‚ आनंद और पर्यावरण की शुद्धि करने वाला होता है। दीपावली पर तेल या घी के दीपक जलाना‚ यज्ञ करके उसमें आयुर्वेदिक जडी–बूटियां डालकर वातावरण को शुद्ध करना‚ आम के पत्तों के तोरण बांधना‚ केले के स्तंभ लगाना‚ रंगोली बनाना‚ शुद्ध पकवान बनाना‚ मिल बैठ कर मंगल गीत गाना‚ धर्म चर्चा करना‚ बालकों द्वारा भगवान की लीलाओं का मंचन करना‚ घर के बहीखातों में परिवार के सभी सदस्यों के हस्ताक्षर लेकर समसामयिक अर्थव्यवस्था का रिकॉर्ड दर्ज करना जैसी गतिविधियों में दशहरा–दीपावली के उत्सव आनंद से संपन्न होते आए हैं जिनसे परिवार और समाज में नई ऊर्जा का संचार होता आया है।
गनीमत है कि भारत के ग्रामों में अभी बाजारू संस्कृति का वैसा व्यापक दुष्प्रभाव नहीं पडा‚ जैसा शहरों पर पडा है। अन्यथा सब चौपट हो जाता। ग्रामीण अंचलों में आज भी त्योहारों को मनाने में भारत की माटी का सोंधापन दिखता है। वैसे यह स्थिति बदल रही है‚ जिसे ग्रामीण युवाओं को रोकना चाहिए। बाजार के प्रभाव में आज हमने अपने सभी पर्वो को विद्रूप और आक्रामक बना दिया है। अब उनको मनाना‚ अपनी आर्थिक सत्ता का प्रदर्शन करना और आसपास के वातावरण में हलचल पैदा करने जैसा होता है। इनमें सामूहिकता‚ प्रेम–सौहार्द और उत्सव के उत्साह जैसी भावना का लोप हो गया है। रही सही कसर चीनी सामान ने पूरी कर दी है। त्योहार कोई भी हो‚ उसमें खपने वाली सामग्री साम्यवादी चीन से बनकर आ रही है। उससे हमारे देश के रोजगार पर भारी विपरीत प्रभाव पड रहा है। मिट्टी के बने दीए‚ मिट्टी के खिलौने‚ मिट्टी की बनी गूजरी व हटरी आदि आज भी हमारे घरों में दीवाली की पूजा का अभिन्न अंग होते हैं‚ पर शहरीकरण की मार से बडे शहरों में इनका उपयोग समाप्त होता जा रहा है। हम अपनी इस रीति को जीवित रखें तो हमारे कुम्हार भाइयों के पेट पर लात नहीं पडेगी। हम अपने बच्चों का जन्मदिन (हैपी बर्थडे) केक काटकर मनाते हैं‚ जिसका हमारी मान्यताओं और संस्कृति से कोई नाता नहीं है जबकि हमें उनका तिलक कर‚ आरती उतार कर और आशीर्वाद या मंगलाचरण गायन कर उनका जन्मदिन मनाना चाहिए।
अगर हम चाहते हैं कि हमारी आने वाली पीढियां अपनी भारतीय संस्कृति पर गर्व करे‚ परिवार में प्रेम को बढने वाली गतिविधियां हों‚ बच्चे बडों का सम्मान करें‚ तो हमें अपने समाज में पुनः पारंपरिक मूल्यों की स्थापना करनी होगी। वो जीवन मूल्य‚ जिन्होंने हमारी संस्कृति को हजारों साल तक बचाकर रखा‚ चाहे कितने ही तूफान आए। पश्चिमी देशों में जा बसे भारतीय परिवारों से पूछिए‚ जिन्होंने वहां की संस्कृति को अपनाया‚ उनके परिवारों का क्या हाल है। और जिन्होंने वहां रहकर भी भारतीय सामाजिक मूल्यों को अपने परिवार और बच्चों पर लागू किया‚ वे कितने सधे हुए‚ सुखी और संगठित है। तनाव‚ बिखराव तलाक‚ टूटन ये आधुनिक जीवन पद्धति के ‘प्रसाद’ हैं। इनसे बचना और अपनी जडों से जुडना‚ यह भारत के सनातधनर्मियों का मूलमंत्र होना चाहिए। पिछले कुछ वर्षों से टेलीविजन चैनलों पर सांप्रदायिक मुद्दों को लेकर आए दिन तीखी झडपें होती रहती हैं‚ जिनका कोई अर्थ नहीं होता। उनसे किसी भी संप्रदाय को कोई भी लाभ नहीं मिलता‚ केवल उत्तेजना बढती है जबकि हर धर्म और संस्कृति में कुछ ऐसे जीवन मूल्य होते हैं‚ जिनका अनुपालन किया जाए तो समाज में सुख‚ शांति और समरसता का विस्तार होगा।
अगर हमारे टीवी एंकर और उनकी शोध टीम ऐसे मुद्दों को चुनकर उन पर गंभीर और सार्थक बहस करवाएं तो समाज को दिशा मिलेगी। हर धर्म के मानने वालों को स्वीकारना होगा कि दूसरों के धर्म में सब कुछ बुरा नहीं है और उनके धर्म में सब कुछ श्रेष्ठ नहीं है। चूंकि हम हिंदू बहुसंख्यक हैं और सदियों से इस बात से पीडित रहे हैं कि सत्ताओं ने कभी हमारे बुनियादी सिद्धांतों को समझने की कोशिश नहीं की। या तो उन्हें दबाया गया या उपहास किया गया या उन्हें अनिच्छा से सह लिया गया। इन सवालों पर खुलकर बहस होनी चाहिए थी‚ जो नहीं हो रही। निरर्थक विषयों को उठाकर समाज में विष घोला जा रहा है। पटाखों की निरर्थकता को समझ कर आने वाले वर्षों में दीपावली जैसे हिंदू त्योहारों को आतिशबाजी किए बिना सनातनी तरीकों से ही मनाएं। इसमें ही सबका भला है॥।