आजकल एक प्रदेश के ताकतवर बताए जा रहे मुख्यमंत्री के मुख्य सलाहकार और वरिष्ठतम अधिकारियों पर हुए स्टिंग ऑपरेशन की भारी चर्चा है। मीडिया ही नहीं‚ प्रदेश के नौकरशाह और राजनेता चटखारे लेकर–लेकर इन किस्सों को एक दूसरे को सुना रहे हैं। यूं तो स्टिंग ऑपरेशन देश में लगातार होते रहते हैं। पहले यह काम मीडिया अपने जुनून में करता था। बाद में यह ब्लैकमेलिंग का हथियार बन गया। हम देख रहे हैं कि पिछले दो दशकों से राजनैतिक दल भी एक दूसरे के विरुद्ध और एक ही दल के बडे राजनेता तक एक दूसरे के विरुद्ध स्टिंग ऑपरेशन करवाने लगे हैं। कहना न होगा कि इनका मकसद अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी की छवि खराब करके उसे रास्ते से हटाना होता है‚ जिसके खिलाफ सफल स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है‚ वो किसी भी कीमत पर उसे दबाने की जी–तोड कोशिश करने में जुट जाता है।
सुना है कि जिस स्टिंग ऑपरेशन की आजकल चर्चा है‚ उसमें फंसा प्रदेश का वरिष्ठ अधिकारी उसे दबाने के लिए २० करोड रुपये तक देने को राजी हो गया है। अब अगर यह डील हो जाती है तो जाहिर है कि स्टिंग ऑपरेशन की खबर आम जनता तक नहीं पहुंच पाएगी। हां‚ यह बात दूसरी है कि डील करने वाला पहले ही अपने हाथ काट चुका हो और सबूतों को अपनी टीम के किसी साथी के साथ साझा कर चुका हो तो ऐसे में डील होने के बाद भी मामला प्रकाशित–प्रसारित होने से नहीं रुकेगा। खबर यह भी है कि उक्त स्टिंग ऑपरेशन में कई आला अफसर भी बेनकाब हुए हैं‚ जिनमें चरित्र से लेकर भारी भ्रष्टाचार के प्रमाण जुटाए जा चुके हैं। इसका जाहिरन उनके आका मुख्यमंत्री की छवि पर भी विपरीत प्रभाव पडेगा। विशेषकर उन राज्यों में जहां आने वाले समय में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं।
ऐसी स्थिति ही क्यों आती है कि पानी सिर से गुजर जाता है। ‘अब पछताए होत क्या‚ जब चिडिया चुग गई खेत’। ऐसा तो नहीं है कि प्रदेश का शासन चलाने वाला कोई मुख्यमंत्री इतना अयोग्य हो कि उसे पता ही न चले कि उसके ईद गिर्द साये की तरह मंडराने वाले उसके खासम–खास वरिष्ठतम अधिकारी दुकान खोल कर बैठे हैं और हर वर्ष सैकडों करोड रुपया कमा रहे हैं। जब ये घोटाले सामने आएंगे तो ऐसे मुख्यमंत्री का दामन कैसे साफ रहेगाॽ हर तरफ यही शोर होगा कि ये सब उस मुख्यमंत्री की मिलीभगत से हो रहा था। फिर अपनी कमीज दूसरों की कमीज से साफ बताने वाला दावा भी तो फुर्र से उड जाएगा।
प्रश्न है कि उस मुख्यमंत्री ने समय रहते सही और कडे कदम क्यों नहीं उठाएॽ हम सभी पत्रकारों का चार दशकों से यह अनुभव रहा है कि चुनाव जीतते ही‚ मुख्यमंत्री हो या प्रधानमंत्री‚ अपने चाटुकारों और चहेते अफसरों से ऐसे घिर जाते हैं कि उन्हें सब ओर हरा–ही–हरा दिखाई देता है क्योंकि वही उन्हें दिखाया जाता है। उनके चाटुकार और चहेते अफसर ही उनके नाक–कान हो जाते हैं। ऐसा नहीं है कि समय–समय पर जागरूक नागरिक या पत्रकार उनको सचेत न करते हों। पर सत्ता का अहंकार उनके सिर चढ कर बोलता है। ऐसे में वे सही सलाह भी सुनना नहीं चाहते। इस तरह वे जमीन से भी कट जाते हैं और अपने मतदाताओं से भी। पर जो मुख्यमंत्री वास्तव में ईमानदार होते हैं और प्रदेश की जनता का भला करना चाहते हैं‚ वे सुरक्षा के घेरे तोड कर और अपने पुराने विश्वासपात्र मित्रों की मदद से अपनी छवि का जनता में मूल्यांकन करवाते रहते हैं। जिस इलाके में उनकी या उनकी सरकार की छवि गिरने का संकेत मिलता है‚ वहां जाहिरन लोगों की बहुत सारी शिकायतें होती हैं‚ जिन्हें दूर करना एक अनुभवी मुख्यमंत्री की प्राथमिकता होती है। पर जहां सार्थक और उचित प्रश्न करने वालों का मुंह बंद कर दिया जाए‚ उन पर झूठे आरोप लगा कर अवैध तरीकों से पुलिस कार्रवाई की जाए या उनके प्रतिष्ठानों पर आयकर के छापे डलवाए जाएं तो वहां भीतर ही भीतर हालात इतने बगड जाते हैं कि बहुमत का दावा करने वाले नेता अपनी सत्ता छोड‚ इज्जत तक नहीं बचा पाते। भारत का राजनीतिक इतिहास ऐसी एक नहीं अनेक घटनाओं से भरा पड़़ा है‚ जहां इस प्रकार गफलत में रहने वाले सत्ताधीशों को अपनी लापरवाही का भारी खमियाजा भुगतना पड़़ा है।
पिछले तीस वर्षों में सत्ताधीशों का एक उदाहरण तो मैं अपने इसी कॉलम में कई बार पहले दे चुका हूं। एक बार फिर दोहरा रहा हूं‚ इस उम्मीद में कि शायद किसी की तो बुद्धि शुद्ध हो और वो अपने तौर–तरीके बदलने को राजी हो। यह उदाहरण वो है जो ईसा से तीन सदी पूर्व मगध सम्राट अशोक ने खोजा था। वे जादूगरों और बाजीगरों के वेश में अपने विश्वासपात्र लोगों को पूरे साम्राज्य में भेजकर जमीनी हकीकत का पता लगवाते थे और उसके आधार पर अपने प्रशासनिक निर्णय लेते थे। जमीनी सच्चाई जानने के लिए मुख्यमंत्रियों को गैर–पारंपरिक साधनों का प्रयोग करना पडेगा। ऐसे में मौजूदा सरकारी खुफिया एजेंसियां या सूचना तंत्र तो उनकी सीमित मदद ही कर पाएंगे। कहना न होगा कि प्रशासनिक ढांचे का अंग होने के कारण इनकी अपनी सीमाएं होती हैं। इसलिए भी इन्हें गैर–पारंपरिक ‘फीडबैक मैकेनिज्म’ या ‘सोशल ऑडिट’ का सहारा लेना पडेगा। अगर वे ऐसा कुछ करते हैं‚ तो उन्हें बहुत बडा लाभ होगा। पहला तो यह कि अगले चुनाव तक उन्हें उपलब्धियों के बारे में बढा–चढाकर आंकड़े़ प्रस्तुत करने वाली अफसरशाही और खुफिया तंत्र गुमराह नहीं कर पाएगा क्योंकि उनके पास समानांतर स्रोत से सूचना पहले से ही उपलब्ध होगी।
सोशल ऑडिट’ करने का यह तरीका किसी भी लोकतंत्र के लिए बहुत ही फायदे का सौदा होता है। इसलिए जो प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ईमानदार होगा‚ पारदर्शिता में जिसका विश्वास होगा और जो वास्तव में अपने लोगों की भलाई और तरक्की देखना चाहेगा‚ वो सरकारी तंत्र के दायरे के बाहर इस तरह का ‘सोशल ऑडिट’ करवाना अपनी प्राथमिकता में रखेगा। वैसे भी इस प्रकार के तौर–तरीके अपनाने वाले सत्ताधारी से स्वार्थी और धनलोलुप तत्व पहले से ही अपनी दूरी बना लेने या अपनी हरकतों से बाज आने की कोशिश कर लगेंगे। इससे देश के आमजन का भी भला होगा। चूंकि आजकल ज्यादातर नेता ‘जवाबदेही’ और ‘पारदर्शिता’ पर जोर देते हैं‚ इसलिए उन्हें यह सुझाव अवश्य ही पसंद आना चाहिए।