अफगानिस्तान फिर तालिबान केे नियंत्रण में आ चुका है‚ जिस पर उन्होंने २००१ में अमेरिका–नीत सेनाओं द्वारा खदेड़े़ जाने से पहले पांच साल तक शासन किया था। अफगानिस्तान में बीस वर्षों तक अमेरिका और नाटो के नियंत्रण के बाद तालिबान का लौटना उनकी नीतियों की विफलता के कारण संभव हुआ है। अशरफ गनी के शासन के अंत की शुरुआत बीते वर्ष फरवरी में ही हो गई थी जब ट्रंप प्रशासन ने तालिबान से सीधे वार्ता आरंभ कर दी और २९ फरवरी‚ २०२० को उनके साथ समझौता किया। समझौते के तहत तय हुआ कि अमेरिका–नीत सेनाएं चरणबद्ध तरीके से अफगानिस्तान से लौट जाएंगी। बाद में राष्ट्रपति बाइडे़न ने पुष्टि कर दी कि ३१ अगस्त‚ २०२१ तक अमेरिका और मित्र देशों की सेनाएं पूरी तरह से अफगानिस्तान खाली कर देंगी। अफगान में अमेरिकी विशेष दूत जालमय खलीलजाद नेे अफगानिस्तान में अशरफ गनी की विधिवत सरकार को अनदेखा करते हुए समझौता किया था। समझौते से अशरफ गनी सरकार सत्ता में भागीदारी का फॉर्मूला तैयार करने के लिए तालिबान के साथ बातचीत को विवश हुई। बंदी तालिबान को छोड़़ना पड़़ा। समझौते के बाद में दोहा में तालिबान के प्रतिनिधियों और अफगान सरकार की बैठक हुई। तालिबान ने बैठक से पूर्व मांग रखी थी कि बीते बीस सालों के दौरान गिरफ्तार किए गए सात हजार से ज्यादा तालिबान लड़ाकों को छोड़़े जाने पर ही कोई बातचीत हो सकेगी। अफगान सरकार तालिबान बंदियों को रिहा करने के देश पर पड़़ने वाले असर से वाकिफ थी‚ इसलिए उसने उन्हें रिहा करने में हिचक दिखाई‚ लेकिन अमेरिकी प्रशासन के बेजा दबाव में उसके पास विकल्प नहीं था। यह मांग माननी पड़़ी। तालिबान ने आज देश में अराजकता फैला दी है। एक तरफ तालिबान देश में शांतिपूर्वक तरीके सत्ता में भागीदारी का फॉर्मूला तैयार करने के लिए दोहा में अफगान सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत कर रहे थे‚ वहीं ताकत के बल पर सत्ता पर फिर से काबिज होने के लिए गतिविधियां भी तेज किए हुए थे। बंदियों की रिहाई से तालिबान की ताकत एकदम से बढ़ गई। उसके पास बर्बर लड़़ाकों की संख्या बढ़ गई और तालिबान को काबुल पर कब्जा करने के अपने मंसूबे को पूरा करने में मदद मिली। हैरत की बात है कि अमेरिका तालिबान के मंतव्य को नहीं भांप पाया। उस समय भी नहीं जब समझौते का कार्यान्वयन शुरू होते ही क्षेत्रमें अफरातफरी फैलने लगी। तो यह समझा जाए कि अमेरिकी प्रशासन ने जान–बूझकर इसे अनदेखा किया और अशरफ गनी के शासन को धीरे–धीरे ध्वस्त होने दिया। और अफगानिस्तान पर तालिबान काबिज होते चले गए। पंद्रह अगस्त‚ जो हमारा स्वतंत्रता दिवस भी है‚ को तो तालिबान पूरे अफगानिस्तान पर काबिज हो गया। ॥ काबुल के पूरी तरह से तालिबान के नियंत्रण में आने से सबसे ज्यादा असर भारत‚ पाकिस्तान‚ ईरान‚ मध्य एशियाई देशों के साथ ही यूरोप और अमेरिका पर भी पड़ें़गे। तालिबान के उभार से इस क्षेत्र की भू–राजनीतिक स्थिति में खासा बदलाव आ सकता है क्योंकि भारत सरकार ने बीते दो दशकों के दौरान अफगानिस्तान के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ किया था। अफगानिस्तान में ढांचागत निर्माण के लिए तीन बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश किया। इस क्रम में अफगानिस्तान में अपने कई वाणिज्य दूतावास भी खोल लिये थे। बीते बीस वर्षों में अफगानिस्तान सरकार के पाकिस्तान से संबंध सौहार्दपूर्ण नहीं रहे। अफगानिस्तान सरकार का मानना था कि उनके यहां अस्थिरता के पीछे पाकि स्तान का हाथ था। लगता है कि भारत सरकार अफगानिस्तान में तालिबान को मान्यता नहीं देगी‚ जिससे तालिबान के साथ संबंधों में कड़वाहट बढ़ सकती है। चिंता इस बात की भी है कि अफगानिस्तान के साथ भारत के आर्थिक एवं वाणिज्यिक संबंध शिथिल पड़़ सकते हैं। अफगानिस्तान में तांबा‚ कोयला‚ लौह अयस्क‚ लीथियम और यूरेनियम जैसे खनिज पदार्थों के खासे भंड़ार हैं। तालिबान के सत्ता पर काबिज होने से चीन और रूस खनिज संसाधनों के दोहन के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करेंगे‚ जिससे यह देश महाशक्तियों का अखाड़़ा बन सकता है। भारत को काबुल में नई सरकार बनने के बाद अपने वाणिज्यिक हितों के मद्देनजर स्पष्ट रुûख अख्तियार करना पड़े़गा। ॥ भारत सरकार को अब अफगानिस्तान में फूंक–फूंक कर कदम रखना होगा क्योंकि वहां जो भी नई सरकार बनेगी; उसके संबंध चीन और पाकिस्तान के साथ सौहार्दपूर्ण होंगे क्योंकि नई सरकार का गठन होते ही ये दोनों देश उसे मान्यता देने में देर नहीं लगाएंगे। फिर अफगानिस्तान की धरती को भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर सकते हैं। चाबहार परियोजना को बचाए रखने के लिए भारत सरकार को मध्य–एशियाई देशों के साथ ही ईरान के साथ संबंध मैत्रीपूर्ण बनाने होंगे। तालिबान की मदद से पाकिस्तान इस परियोजना को नुकसान पहंुचा सकता है। ऐसा चीन की ग्वादर परियोजना को भी प्रोत्साहित करने के लिए कर सकता है‚ जो चीन के साथ उसकी महत्वकांक्षी परियोजना है और चीन–पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिड़ोर (सीपीईसी) का हिस्सा है। चीन अपनी बेल्ट एंड़ रोड़ परियोजना को तालिबान की मदद से आगे बढ़ाने की कोशिश कर सकता है‚ जिससे भारत के हित खासकर कश्मीर क्षेत्र में प्रभावित हो सकते हैं। हालांकि तालिबान तमाम आश्वासन दे रहा है कि अफगानिस्तान के नागरिकों की सुरक्षा को उनसे कोई खतरा नहीं होना चाहिए‚ लेकिन काबुल हवाईअड्डे़ पर आतंकी हमले में १०३ नागरिकों के साथ ही १३ अमेरिकी सैनिकों की मौत से उसके आश्वासनों पर सहसा यकीन नहीं होता। हालांकि तालिबान हमले में अपने लड़़ाकों के मारे जाने की बात कहते हुए हमले में अपना हाथ होने से इनकार कर रहा है‚ लेकिन तालिबान के आते ही देश में सुरक्षा व्यवस्था लचर हो गई है‚ इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। तालिबान ने बदले लेने के लिए हत्या किए जाने से नकारते हुए शरिया कानून के तहत महिलाओं और लड़़कियों की तालीम का आश्वासन दिया है‚ लेकिन काबुल से विचलित कर देने वाली महिला उत्पीड़़न की खबरें आ रही हैं। तालिबान पर पाकिस्तान और चीन के असर को देखते हुए भारत का चिंता में पड़़ जाना स्वाभाविक है। शांतिपूर्ण और प्रगतिशील अफगानिस्तान भारत की आंतरिक सुरक्षा और अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना संबंध के लिए जरूरी है।
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