संसद में बुधवार को परंपरा हार गई और हंगामा जीत गया। विपक्ष के लगातार हंगामे के कारण संसद का पूरा मानसून सत्र बर्बाद हो गया। राज्यसभा और लोकसभा, दोनों सदनों की कार्यवाही को निर्धारित समय से दो दिन पहले अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करना पड़ा। हालांकि मानसून सत्र 13 अगस्त तक चलना था लेकिन जिस तरह से संसद चल रही थी उसे चलना नहीं कहा जा सकता। वो बस दिखावे की कार्यवाही रह गई थी। विपक्षी दलों के पास अपने तरीके थे और जो वे चाहते थे, वो करवा लिया। उन्होंने संसद में न तो चर्चा और न ही कोई सामान्य कार्यवाही होने दी।
इस मुद्दे पर मानसून सत्र के पहले दिन यानी 19 जुलाई से ही सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट थीं। लेकिन मंगलवार को राज्यसभा के अंदर जिस तरह का उपद्रव हुआ कोई नहीं चाहता कि वैसी घटना दोबारा हो। सदन स्थगित होने के बाद कुछ सदस्य रिपोर्टर्स टेबल पर चढ़ गए और रूल बुक को चेयर की ओर फेंक दिया।
इसे विरोधी दल अपनी ‘जीत’ मान सकते हैं लेकिन यह लोकतान्त्रिक मर्यादाओं और परंपराओं की बड़ी ‘हार’ है। विपक्ष ने संसद की पवित्रता को भंग कर दिया।राज्य सभा के सभापति एम. वेंकैया नायडू सदन की कार्यवाही शुरू होते ही राज्यसभा में हुए हंगामे पर अपनी बात कहते-कहते रो पड़े। वेंकैया ने कहा कि विपक्ष के सांसदों ने जो किया उससे वे मंगलवार की रात सो नहीं पाए।
उन्होंने कहा कि संसद लोकतंत्र का सर्वोच्च मंदिर होता है और इसकी पवित्रता पर आंच नहीं आने देना चाहिए। उन्होंने कहा कि आधिकारियों की मेज और उसके आसपास का हिस्सा सदन के पवित्र गर्भ गृह की तरह है। उन्होंने कहा-‘जिस तरह कल सदन की पवित्रता भंग की गई, उससे मैं बेहद दुखी और आहत हूं। कुछ सदस्य सदन की आधिकारिक मेज पर चढ़ गए, कुछ मेज पर बैठ गए, शायद वो अपनी इस बेअदबी हरकतों को ज्यादा ज्यादा दिखाना चाहते हों… मेरे पास अपनी पीड़ा जाहिर करने और कल की घटना की निंदा करने के लिए शब्द नहीं हैं। मैं पिछली रात सो नहीं पाया।’
इसके बाद नायडू की आंखों से आंसू निकल पड़े। लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, मुझे पता नहीं चल रहा कि प्रतिष्ठित उच्च सदन की गरिमा को इस तरह से चोट पहुंचाने की वजह क्या है। मैं वजह जानने के लिए काफी कोशिस कर रहा हूं। उन्होंने कहा कि हमारे मंदिरों में जब श्रद्धालु जाते हैं तो उन्हें एक निश्चित स्थान तक जाने की अनुमति होती है, गर्भगृह से आगे वे नहीं जा सकते। उन्होंने कहा कि सदन के बीचों-बीच आना या इसके गर्भगृह में प्रवेश करना इसकी पवित्रता को भंग करने जैसा है और पिछले कुछ वर्षों से ऐसा अक्सर हो रहा है।
राज्यसभा के चैयरमैन वेंकैया नायडू को मैं बहुत बरसों से जानता हूं। वे बहुत सरल, सहज और भावुक व्यक्ति हैं। वे हमेशा परंपराओं, संस्कृति और सार्वजनिक जीवन में गरिमा के हिमायती रहे हैं। उनकी आंखों में आंसू देखकर दुख हुआ। वेंकैया नायडू ने सदन को हमेशा गरिमा और संयम से चलाया। नायडू ने सबको साथ लेकर चलने की कोशिश की लेकिन जिस तरह विरोधी दलों के नेता टेबल पर चढ़कर शोर मचाते रहे, कागज फाड़ते रहे, रूल बुक फेंकी, ये संसद की परंपरा और इसके शिष्टाचार के अनुरुप तो नहीं है।
संसद में विरोध के कई तरीके हैं। एक-दो दिन हंगामा भी होता है। कभी-कभार पोस्टर भी लहराए जाते हैं। लेकिन शुरुआती हंगामे के बाद अक्सर पूरा सदन बैठता है और विस्तार से बहस और चर्चा होती है। लेकिन पूरा का पूरा सत्र हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ जाए तो इसे जस्टिफाई कैसे किया जा सकता है। ऐसा पहली बार हुआ है जब पूरा का पूरा सत्र कुछ राजनीतिक दलों की सनक के चलते बाधित हुआ है। इस तरह के काम को कोई भी सही नहीं ठहरा सकता। मेरा व्यक्तिगत तौर पर मानना है कि विपक्ष ने पूरे सत्र को बाधित करके बहुत बड़ी गलती की है। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हुई मौतें, किसानों और पैगसस के मुद्दे पर सरकार को घेरा जा सकता था।
विपक्ष की तरफ से सरकार से मुश्किल सवाल पूछे जा सकते थे। ये सारे के सारे मुद्दे ऐसे हैं जिस पर सरकार को तर्कों से घेरे जाने की जरुरत थी। किसी भी सरकार के मंत्रियों के लिए संसद का सत्र इम्तिहान की तरह होता है। इस दौरान मंत्री के धैर्य और प्रतिभा की भी रोज परीक्षा होती है। क्योंकि उन्हें तथ्यों और तर्कों से लैस होकर सदन में जवाब देना पड़ता है। पूरी तैयारी करनी पड़ती है। लेकिन पूरे मानसून के दौरान विपक्ष ने तो कुछ पूछा ही नहीं। किसी बात पर बहस नहीं की तो मंत्रियों के लिए तो ये एक तरह से अच्छा हो गया लेकिन सवाल यह है कि क्या ये हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा है? इससे तो देश की जनता का नुकसान हुआ।
एक जमाना था जब अटल बिहारी वाजपेयी, राम मनोहर लोहिया, मधु लिमये जैसे नेता थे जो सरकार से तीखे सवाल पूछते थे। ठोस तथ्यों और तर्कों के साथ संसद में आते थे। बाद के दिनों में अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे नेता अपने तर्कों के तीरों से सरकार को आहत कर देते थे। अपने भाषणों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देते थे। इनके तर्कों से सरकार को डिफेंसिव होना पड़ता था। अगर विपक्ष इस तरह ही परंपराओं को आगे बढ़ाता तो अच्छा होता और देश की जनता भी इसका स्वागत करती। लेकिन संसद सत्र के दौरान जो हुआ वो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है।
राज्यसभा में हंगामा हुआ ये पूरे देश ने देखा। मंत्री के हाथ से बयान की कॉपी लेकर किसने फाड़ी ये भी सबने देखा। लोगों ने देखा किसने चेयरमैन की तरफ कागज किसने फेंके। टेबल पर चढ़कर नारेबाजी किसने की और रूलबुक चेयरमैन की तरफ किसने फेंकी। ये सारी बात देश की जनता जानती है कि किस सांसद ने क्या किया क्योंकि इसे पूरे देश ने देखा है। लेकिन बुधवार को विरोधी दलों ने खुद को विक्टिम की तरह पेश किया और यह सवाल किया कि महिला सांसदों के सामने पुरुष मार्शल को क्यों रखा गया और पुरुषों के सामने महिला मर्शलों को क्यों रखा गया।
बुधवार शाम करीब 7 बजे जब राज्यसभा की बैठक हुई तो विपक्षी सांसदों ने जोर-जोर से सीटी बजानी शुरू कर दी। विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने आरोप लगाया कि पुरुष मार्शलों ने महिला सांसदों के साथ मारपीट की, जिससे सदन के अंदर गड़बड़ी हुई। संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने इसका जोरदार विरोध किया।
हैरानी की बात यह है कि खड़गे की तरफ से इस मुद्दे को उठाने के आधे घंटे पहले ही टीएमसी सदस्य ओ’ब्रायन ने ट्वीट कर कहा था: ‘राज्यसभा टीवी की सेंसरशिप बद से बदतर। मोदी-शाह की क्रूर सरकार अब राज्यसभा के अंदर सांसदों के विरोध को नाकाम करने के लिए ‘जेंडर शील्ड्स’ का इस्तेमाल कर रही है। महिला सांसदों के लिए पुरुष मार्शल। पुरुष सांसदों के सामने तैनात महिला मार्शल। (कुछ विपक्षी सांसद सबूत के लिए वीडियो शूट कर रहे हैं)।
अगर विरोधी दलों के नेताओं को ये लगता है कि उनके आरोप सही हैं तो चेयरमैन को कमेटी बनाकर सारे आरोपों की जांच करा लेनी चाहिए। किसने हंगामा किया, किसने गड़बड़ की, कौन टेबल पर चढ़ा, किसने कागज फेंके और मार्शल ने क्या किया उसकी भी जांच होनी चाहिए। अगर अगले सत्र से पहले जांच की रिपोर्ट आ जाए तो जो भी दोषी हो उसे सख्त सजा दी जाए। क्योंकि कम से कम इस तरह का असभ्य व्यवहार राज्यसभा में दोबारा देखने को नहीं मिले।
इस पूरे मामले में सबसे दुखद बात ये है कि विपक्ष ने यह सब एक सुनियोजित रणनीति के तहत किया। विपक्ष पहले से ही कह रहा था कि वह संसद को तबतक नहीं चलने देगा जबतक तीनों कृषि कानून वापस नहीं लिए जाते हैं। लेकिन यही विपक्ष उस संविधान संशोधन विधेयक पर बहस में हिस्सा लेता है जो राज्यों को अन्य पिछड़ा वर्ग सूची में जातियों को शामिल करने का अधिकार देता है। विपक्षी दलों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वे अपने वोट बैंक पर कोई भी असर नहीं पड़ने देना चाहते। कोई भी दल पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का विरोध नहीं कर सकता।
दिलचस्प बात यह है कि जहां सभी दलों ने एकजुट होकर इस बिल का समर्थन किया, वहीं कुछ इस पर राजनीति करने लगे। तृणमूल कांग्रेस, शिवसेना, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी ने इस विधेयक की टाइमिंग पर सवाल उठाया और सरकार की मंशा पर संदेह जताया। टीएमसी सदस्य डेरेक ओ ब्रायन ने कहा, सरकार विधेयक लाती है और इसे जल्दबाजी में पारित करवाती है, और फिर गलतियों को सुधारने के लिए संशोधन लाने की कोशिश करती है। उन्होंने कहा, बिल पास हो सकता है लेकिन पिछड़े वर्गों को अभी-भी इसका लाभ नहीं मिलेगा।’
ओबीसी बिल पास होने के तुरंत बाद सदन की अन्य कार्यवाही जैसे ही शुरू हुई, विपक्ष के सदस्य सदन के वेल में आ गए। इस दौरान हंगामा कर रहे विपक्ष के सांसदों ने कागज फाड़कर उछाल दिया। हंगामे के बीच बीमा व्यवसाय संशोधन विधेयक पारित करने के बाद सदन को स्थगित करना पड़ा।
सबसे बड़ा सवाल ये है कि पार्लियामेंट में हंगामे से किसका फायदा है? सरकार को तो कोई फायदा नहीं है। विपक्ष नारेबाजी करता है लेकिन अपनी बात जनता तक नहीं पहुंचा पाता इसलिए फायदा विपक्ष का भी नहीं है। फायदा मतदाताओं का भी नहीं है क्योंकि संसद में जनता के हित के मुद्दों पर चर्चा नहीं हो पाती। अब ऐसे में सवाल ये है कि नुकसान किसका होता है?
सरकार तो हंगामे के बीच भी अपने बिल पास करवा लेती है इसलिए सरकार को तो खास फर्क नहीं पड़ता। सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के बावजूद विपक्ष के सासंदों की हाजिरी बन जाती है। उन्हें हंगामा करने पर भी उतना ही भत्ता मिलता है इसलिए नुकसान उनका भी नहीं है। इसमें सबसे बड़ा नुकसान देश का और इसकी जनता का है।
संसद की एक मिनट की कार्यवाही का औसतन खर्च करीब ढ़ाई लाख रुपए आता है। हर घंटे की कार्यवाही पर 1.5 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। इस तरह से देखें तो विपक्ष के हंगामे के कारण सवा सौ करोड़ रुपए से ज्यादा बर्बाद हो गए। यह नुकसान केवल आर्थिक नहीं है बल्कि इससे हमारी लोकतांत्रिक छवि और परंपराओं को भी नुकसान पहुंचा है।
संसद हंगामे के लिए नहीं होती है बल्कि यह चर्चा के लिए है। अगर चर्चा की जगह हंगामा होगा तो ये लोकतन्त्र का गला घोंटने जैसा है। ये किसी कीमत पर नहीं होना चाहिए। इसके लिए ये तर्क भी जायज नहीं है कि पहले उन्होंने ऐसा किया था इसलिए अब हम ऐसा कर रहे हैं। अब लोकसभा के स्पीकर और राज्यसभा के चेयरमैन को कड़े नियम बनाने चाहिए और सख्ती से उनका पालन करवाना चाहिए। जो सांसद नियमों का पालन न करें, हंगामा करें तो उनके खिलाफ एक्शन भी होना चाहिए। क्योंकि हंगामे का ये सिलसिला रूकना जरूरी है।