प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते सोमवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में टीकाकरण की नीति में बड़़ा बदलाव करते हुए यह कहा कि अब १८ से ऊपर आयुवर्ग के सभी लोगों को मुफ्त वैक्सीन दी जाएगी और इसकी पूरी जिम्मेदारी केंद्र सरकार की होगी। इसका अर्थ यह हुआ कि अब राज्यों को कोरोनारोधी टीका खरीदने की जिम्मेदारी से पूर्णतः मुक्त कर दिया गया। वास्तव में टीकाकरण की नीति में यह बदलाव आवश्यक था और केंद्र सरकार के इस फैसले का सभी को स्वागत करना चाहिए‚ लेकिन यह समझना भी आवश्यक है कि आखिर केंद्र सरकार को एक महीने के अंदर ही टीकाकरण की नीति में बदलाव क्यों करना पड़़ा। लोगों को याद होगा कि देश में १६ जनवरी से टीकाकरण की शुरुआत हुई थी। उस दौरान प्राथमिकता वाले समूहों को टीकाकरण के दायरे में शामिल किया गया था। इस नीति के तहत टीकों की खरीद से लेकर वितरण तक की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के पास थी। यह व्यवस्था ३० अप्रैल तक कायम रही‚ लेकिन जब कोरोना की दूसरी लहर का कहर बरपा तब कुछ राज्य टीकाकरण की नीति की विकेंद्रीकरण की मांग करने लगे थे। केंद्र सरकार को राज्यों की इस मांग के दबाव में आकर एक मई से टीका खरीदने का अधिकार राज्यों को देना पड़़ा‚ लेकिन टीकाकरण की खरीद से लेकर इसकी पूरी प्रक्रिया की जटिलताओं का बोझ उठाने में राज्य सरकारें सक्षम साबित नहीं हुइ और वे पुनः टीकाकरण की पुरानी व्यवस्था की ओर लौटने पर जोर देने लगे। आखिरकार प्रधानमंत्री को टीकाकरण की पुरानी नीति की ओर लौटने की घोषणा करनी पड़़ी। हालांकि राज्यों की टीकाकरण की विकेंद्रीकरण की मांग अनुचित थी और केंद्र का राज्यों की इस मांग के आगे झुकना गलत था। सभी जानते हैं कि समूची आबादी का टीकाकरण करके ही कोरोना से मुक्ति पाई जा सकती है। अभी तक ३० करोड़ से ज्यादा लोगों का टीकाकरण हो चुका है। देश की बड़़ी आबादी को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि टीकाकरण के अभियान को और अधिक तेज करने की जरूरत है। दिसम्बर के अंत तक यदि ७० फीसद आबादी का टीकाकरण करने में सरकार सफल हो जाती है तो संभावित तीसरी लहर का आसानी से मुकाबला किया जा सकता है‚ लेकिन टीकाकरण के इस महाअभियान में केंद्र सरकार के साथ राज्य सरकारों को भी अपना महती योगदान देना होगा।
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