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बिहार में नयी सरकार के बजट में विकास की चमक दिखने की जरूरत है……….

UB India News by UB India News
February 21, 2021
in खास खबर, पटना, ब्लॉग
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बिहार में नयी सरकार के बजट में विकास की चमक दिखने की जरूरत है……….
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दवाई, कमाई, पढ़ाई, सिंचाई, सुनवाई और कार्रवाई के नारों से गूंजते 2020 के विधानसभा चुनाव के बाद बिहार में नयी सरकार अपना बजट पेश करने जा रही है. विधानसभा का बजट सत्र शुरू हो चुका है, आर्थिक सर्वेक्षण पेश किये जा चुके हैं. 22 फरवरी को बजट पेश किया जायेगा. मगर क्या इस बजट में उन नारों और सवालों की गूंज हमें सुनाई देगी, जिसने चुनाव के दौरान मतदाताओं को उद्वेलित किया था, या फिर यह बजट भी पिछले बजटों जैसा होगा?

यह सच है कि 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता ने एक बार फिर से नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को बहुमत दिया. मगर बेरोजगारी और दूसरे जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर चुनाव लड़ने वाली यूपीए को भी खूब सीटें दी. सीटों और वोटों दोनों के मामले में दोनों गठबंधन आसपास ही रहे. चुनाव के दौरान एनडीए को भी बेरोजगारी और राज्य के दूसरे जरूरी सवाल पर गंभीर कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा. जनादेश को पढ़ने वाले लोग कहते हैं, बिहार के लोगों का मानना यह था कि भले वे तेजस्वी से अधिक नीतीश के नेतृत्व पर भरोसा जता रहे हैं. मगर उनसे उम्मीद कर रहे हैं कि वे अपनी उन सुस्त नीतियों में बदलाव करें, जिसके कारण बिहार में विकास की गति तेज नहीं हो पा रही है. 15 साल के कथित सुशासन राज के बावजूद बिहार वहीं के वहीं है, जहां 15 साल पहले था.

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आय देश से काफी पीछे सिर्फ 9383.66 रुपये है
आज बिहार विधानसभा में पेश हुए आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़े भी यही कहते हैं कि नीतीश कुमार सरकार के तमाम दावों के बावजूद बिहार में उस तरह का आर्थिक बदलाव नहीं आया है, जैसा अपेक्षित था. जहां देश के लोगों की प्रति व्यक्ति आय 11,254 रुपये प्रति माह पर पहुंच गयी है, बिहार के शिवहर जिले के लोग औसतन सिर्फ 1463.24 रुपये प्रति माह की आमदनी पर गुजारा करते हैं. राजधानी पटना जो बिहार का सबसे समृद्ध जिला है, वहां भी लोगों की प्रति व्यक्ति मासिक आय देश से काफी पीछे सिर्फ 9383.66 रुपये है.
आर्थिक संतुलन स्थापित कर सके.

अगर जारी हुए आर्थिक सर्वेक्षण के सिर्फ एक इसी आंकड़े पर बात की जाये तो जाहिर होता है कि पूरा बिहार आर्थिक समृद्धि के मामले में देश से पीछे है और साथ ही साथ बिहार के अंदर भी आमदनी को लेकर काफी असमानता है. राजधानी पटना के लोगों की मासिक आय और शिवहर, अररिया और किशनगंज जिला जैसे इलाकों की मासिक आय में लगभग छह से सात गुने का फर्क है. नीतीश कुमार की सरकार के लगातार 15 साल तक राज करने के बावजूद यह पिछड़ापन और असमानता जाहिर करती है कि उनकी शासकीय नीति में कोई भारी चूक है, जो न सिर्फ बिहार को देश के साथ कदम से कदम चलने लायक बना पा रही है, बल्कि विकास की नीति भी ऐसी है जो राज्य के अंदरूनी इलाकों में आर्थिक संतुलन स्थापित कर सके.

बिहार का विकास मुमकिन नहीं हैयही वजह है कि बिहार लगातार पलायन को मजबूर होता है. चाहे पढ़ाई-लिखाई के लिए हो, रोजी-रोजगार के लिए हो या इलाज के लिए. ये ऐसे तथ्य हैं, जिन्हें बार-बार दुहराने की जरूरत नहीं है. सवाल बस यह है कि क्या सरकार अपनी इस नीति पर विचार करेगी और उसे बदलकर किसी ऐसी समावेशी नीति को अपनाने की पहल करेगी, जिससे बिहार का समावेशी विकास हो. पिछले दिनों आये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के आंकड़ों ने जहां बताया कि बिहार में महिलाओं और बच्चों के बीच पिछले चार वर्षों में कुपोषण और एनीमिया के मामले बढ़े हैं. वहीं इस आर्थिक सर्वेक्षण ने स्कूली बच्चों के ड्राप आउट की समस्या को उजागर किया है. बिहार में ऐसे लोगों की बड़ी आबादी है जो भूमिहीन है, उसके पास रोजी रोजगार के साधन नहीं हैं. वह चार-पांच हजार रुपये प्रति माह की आमदनी के लिए भी हजारों किमी की यात्रा करता है. वह हर साल आने वाली बाढ़ की वजह से बार-बार गरीब होता है. वह अपने परिवार के लिए पोषक भोजन जुटा नहीं पाता. लिहाजा वह एक तरह से गरीबी के दुष्चक्र में फंस गया है. जब तक यह तबका इस दुष्चक्र से बाहर नहीं निकलेगा, बिहार का विकास मुमकिन नहीं है.

फोकस इसी काम के लिए होना चाहि
इन्हें इनकी जटिल परिस्थिति से उबारने के लिए सरकार को पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य के मसले पर गंभीरता से काम करने की जरूरत है. उसे आंगनबाड़ियों को अधिक से अधिक मजबूत करने की जरूरत है, ताकि वह बिहार की बड़ी कुपोषित आबादी को स्वस्थ कर सके. फिर उसे सरकारी स्कूलों को अधिक प्रभावी बनाने की जरूरत है, ताकि यह तबका शिक्षा के सहारे बेहतर रोजगार हासिल कर सके. और साथ में ठप पड़े सरकारी अस्पतालों को क्रियाशील बनाने की जरूरत है, ताकि छोटी-छोटी बीमारियां और उसकी वजह से होने वाले भरी खर्चे के बोझ से गरीब लोग बच सकें. क्योंकि गरीबों को हर बीमारी कर्जदार और अक्षम बनाती है, उसकी राह में बाधा खड़ी करती है. इस बजट में बिहार का सबसे अधिक फोकस इसी काम के लिए होना चाहिए.

खाली पद भरेंगे तो शिक्षा व्यवस्था बेहतर होगी
दूसरा फोकस रोजगार पर होना चाहिए. राज्य सरकार के साढ़े चार लाख से अधिक पद खाली हैं. चनावी वादों के बावजूद इन खाली पदों को भरने की कोई गंभीर कोशिश नजर नहीं आ रही. दिखती भी है तो ठेके पर लोगों को बहार करने की कोशिश. मगर जब तक सरकार अपने शिक्षित युवाओं के लिए ढंग की नौकरी नहीं देगी बिहार आगे नहीं बढ़ेगा. युवाओं को नौकरी मिलेगी तो वे तो समृद्ध होंगे ही, वह मैनपावर राज्य को भी समृद्ध करेगा. अभी सरकारी अस्पतालों में अमूमन 60 से 75 फीसदी पद खाली हैं, ये पद भरेंगे तो लोगों को बेहतर इलाज मिलेगा. उसी तरह सरकारी स्कूलों को खाली पद भरेंगे तो शिक्षा व्यवस्था बेहतर होगी.

विकास की चमक दिखने की जरूरत है
इसके बाद राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने की जरूरत है. बाढ़ मुक्ति के उपाय तलाशने की जरूरत है. पलायन को लेकर सुदृढ़ नीति बनाने की जरूरत है. राज्य में जिस तरह क्षेत्रीय विषमता साफ-साफ नजर आती है, उसी तरह योजनाओं में व्यय की विषमता भी खूब दिखती है. जहां सड़कों, पुल-पुलियों, भवनों और फ्लाईओवरों पर सरकार खुलकर धन खर्च करती नजर आती है. शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण के मुद्दे पर उसकी मुट्ठी बंद हो जाती है. सरकार को इस विषमता को भी दूर करने की जरूरत है. अभी उसका फोकस मानव विकास पर होना चाहिए. इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास अभी ठीक-ठाक हो चुका है. राज्य में चमकीली सड़कें, आलीशन भवन, इमारतें और 24 घंटे बिजली की व्यवस्था हो चुकी है. अब यहां के लोगों के चेहरे पर विकास की चमक दिखने की जरूरत है.

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