भारत व चीन के सरहदी इलाकों में तनाव कम होने की संभावनाओं से दक्षिण एशिया में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का सकारात्मक स्वरूप निखर सकेगा. पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर फिर से गश्त शुरु करने के मामले पर दोनों देशों में सहमति बन गयी है. चीन की विस्तारवादी नीतियों के कारण उसके किसी भी आश्वासन को भारत में संदेह की निगाहों से ही देखा जाता है. भारत अपने इस पड़ोसी देश की सड़क परियोजना का विरोध करता है. कश्मीर के पाकिस्तान के कब्जे वाले हिस्से को चीन अपने हितों की पूर्ति हेतु उपयोग करना चाहता है. इस सड़क परियोजना से पाकिस्तान के हौसले बुलंद होंगे. ऐसी स्थिति में कदम सावधानीपूर्वक उठाने की जरूरत है. लेकिन कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत व चीन एक साथ काम कर रहे हैं. इसलिए द्विपक्षीय संबंधों में मधुरता आवश्यक है.
भारत और चीन के संबंध सुधारने की कवायद
भारत और चीन के मध्य संबंधों में सुधार के प्रयास जारी हैं. औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के बाद भारत ने साम्यवादी चीन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध की बुनियाद रखी थी. उन दिनों “हिंदी-चीनी भाई-भाई” का नारा बहुत लोकप्रिय था. प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू एशिया महादेश में साम्यवादी चीन की भूमिका को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे. अक्टूबर 1950 में जब चीन ने तिब्बत में प्रवेश किया तो उन्होंने चीन के इस कदम का विरोध करने के बजाय तिब्बत पर चीन की प्रभुसत्ता को स्वीकार कर लिया. भारत की विदेश नीति के नीति के निर्माता नेहरू ही थे. वे अंतर्राष्ट्रीय शांति व सद्भावना के समर्थक थे. चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई ने 1954 में भारत यात्रा की जिससे दोनों देशों के संबंधों को एक नई दिशा मिली. परंतु बाद के वर्षों में चीनी नेतृत्व की दुहरी चाल के कारण अविश्वास का माहौल निर्मित होने लगा.
पंचशील के सिद्धांतों का विस्तार नहीं हो सका, लेकिन सीमा-विवाद की चर्चाएं जोर पकड़ने लगीं. 1950-1951 में ही साम्यवादी सरकार ने भारत के एक बड़े भू-भाग को अपने नक्शे में चीन का अंग दिखाया. इस त्रुटि की ओर जब भारत सरकार ने चीन का ध्यान आकृष्ट किया तो उत्तर यही मिला कि यह पुराना नक्शा है जिसे कोमिन्तांग सरकार के दौरान तैयार किया गया था और इसे भविष्य में संशोधित कर दिया जायेगा. लेकिन चीन के इरादे नेक नहीं थे.
चीन का विस्तारवादी रवैया
भारत व चीन के मध्य व्यावहारिक रूप से मान्य सीमा को मैकमोहन रेखा के नाम से जाना जाता है जिसका निर्धारण 1914 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुआ था. साम्यवादी चीन की सरकार इस रेखा को औपनिवेशिक सरकार की देन मानकर इसके अस्तित्व पर हमेशा सवाल उठाती रही है. पूर्वोत्तर भारत के कई इलाकों में चीनी सैनिकों की हरकतें अमन-पसंद नेहरू के लिए भी परेशानी का सबब बनतीं थीं. विगत कुछ वर्षों में गलवान घाटी विवाद ने भारतीय मीडिया में इतनी सुर्खियां बटोर ली है कि सामान्यजन भी भारत-चीन के कूटनीतिक संबंध की संवेदनशीलता को समझने लगे हैं.
मुड़कर 1960 के दशक में देखें तो ज्ञात होता है कि 11-12 जुलाई, 1962 को गलवान घाटी की भारतीय सुरक्षा चौकी को चीनियों ने अपने घेरे में ले लिया था, जिसके कारण तनाव में बढ़ोत्तरी होने लगी. हालांकि भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई ने चीनी सैनिकों को अपनी रणनीति बदलने के लिए विवश कर दिया. अक्टूबर में जब चीनी सेना ने पूर्वोत्तर भारत के “नेफा” पर हमले करना शुरु कर दिया तो स्थिति बद-से-बदतर हो गयी, तब 13 अक्टूबर को पंडित नेहरू ने स्पष्ट रूप से कहा कि “हमने सेना को हुक्म दिया है कि ‘नेफा’ से चीनियों को मार भगाएं”. 20 अक्टूबर को भारत की उत्तरी सीमा के दोनों क्षेत्रों पर चीनी सैनिकों ने आकस्मिक रूप से भीषण आक्रमण कर दिया. नवम्बर का महीना भी कम दुखदायी नहीं रहा, लेकिन अंततः 21 नवम्बर को चीन ने एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी. कहना गलत नहीं होगा कि भारत-चीन पंचशील संधि की अकाल मृत्यु हो गयी.
माओ और नेहरूः आदर्शवाद और व्यावहारिकता
1976 में माओ-त्से-तुंग की मृत्यु के पश्चात् चीन के राजनीतिक नेतृत्व के विचार भारत-चीन संबंधों को लेकर बदलने लगे. दिसंबर 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीन की यात्रा की. इस यात्रा के दौरान एक बार फिर पंचशील के प्रति आस्था व्यक्त की गयी. माना गया कि अब दोनों देश विश्व-व्यवस्था को नया मोड़ देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर मिलकर काम कर सकते हैं. तब से अब तक भारत एवं चीन की नदियों में काफी पानी बह चुका है.
मौजूदा दौर में दोनों देश “शंघाई सहयोग संगठन” एवं “ब्रिक्स” के माध्यम से न केवल अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हुए नजर आ रहे हैं बल्कि बहु-ध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के निर्माण के स्वप्न को भी साकार कर रहे हैं. हाल ही में इस्लामाबाद द्वारा “शंघाई सहयोग संगठन” के शासनाध्यक्ष परिषद के सम्मेलन का आयोजन किया गया था. सम्मेलन में भाग लेते हुए भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा कि इस संगठन का उद्देश्य आपसी विश्वास, मित्रता और अच्छे पड़ोसी के रूप में संबंधों को मजबूत करना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस के शहर कजान में आयोजित 16 वें “ब्रिक्स” शिखर सम्मेलन से इतर चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ द्विपक्षीय वार्ता की है. जिनपिंग का मानना है कि विकास के सपनों को साकार करने के लिए आपसी सहयोग को मजबूत करना चाहिए. चीन के इस रुख का स्वागत तो किया जा सकता है, लेकिन सीमा पर शांति पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.
भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारतीय विदेशनीति नेहरूवादी आदर्शवाद की छाया से निकल चुकी है. हमारे विदेश मंत्री जयशंकर भी कई वैश्विक मंचों पर खुलकर यह बता चुके हैं कि भारतीय विदेश नीति में अब स्वहित प्रमुख है और वह किसी भी बड़े (या पश्चिमी देश) की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा नहीं करता. पश्चिमी देशों को यही बात खाए जा रही है कि जो भारत कभी गरीब, डरपोक और वैश्विक मंचों पर उनका पिछलग्गू था, वह अब वैश्विक पटल पर अपनी भूमिका तय कर रहा है, उसे किसी के पीछे नहीं चलना है, बल्कि विश्वबंधुत्व और वसुधैव कुटुंबकम् के अपने सनातनी, भारतीय आदर्शों को साथ लेकर दुनिया को एक नया रास्ता, एक नयी राह दिखानी है. भारत की यह भूमिका विश्व के अन्य देश समझ भी रहे हैं, तभी आज पूरी दुनिया भारत के साथ दोस्ती और बेहतर संबंधों के लिए लालायित भी दिखती है. भारत अब किसी से न आंख चुराता है, न दिखाता है, बल्कि आंखें मिलाकर बात करता है, जैसा हमारे प्रधानमंत्री कह भी चुके हैं.