नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी अमेरिका यात्रा पर है. यह भी अब एक रवायत सी बन गयी है कि किसी भी चुनाव (प्रदेशों या देश का) से पहले राहुल गांधी एक विदेश यात्रा करते हैं, वहां कुछ बयान देते हैं और वह विवादित हो जाता है, उनको सुर्खियों में ले आता है. इस यात्रा में भी उन्होंने आरएसएस पर तीखा हमला किया है, सनातन धर्म के त्रिदेवों में एक भगवान शंकर की एक नयी परिभाषा दी है और यह भी कहा है कि भारत में हिदी को लेकर संघर्ष चल रहा है. सोशल मीडिया पर राहुल की इस यात्रा पर जमकर चर्चा हो रही है. राहुल के साथ कर्नाटक के उप-मुख्यमंत्री डी शिवकुमार भी गए हैं. हालांकि, उन्होंने इसे निजी यात्रा बताया है और इससे इनकार कर दिया है कि वह कमला हैरिस के बुलावे पर जा रहे हैं.
भारतीय मानसिकता अब भी गुलाम
हमारे देश की जो मानसिकता है, वह अब भी गुलाम है. तो, ऐसी मानसिकता में विदेश से आनेवाली बातों को अधिक महत्व दिया ही जाता है. इसका इस्तेमाल हरेक राजनेता करता है. विदेश में जाकर कुछ ऐसा बोल देना जो घर पर चर्चा का विषय बने और फिर उसका फायदा वोटों में बदला जा सके, यह राहुल की नीयत है. उनके बयान को बहुत अधिक तूल दिए जाने का भी मतलब नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि उनके बयान को समर्थक भी जस का तस स्वीकार लेते हैं. हमने देखा है कि कई बार उनके समर्थक भी अच्छे-खासे परेशान रहते हैं. हालांकि, दिक्कत यह है कि हम जिस दौर में रह रहे हैं, वह नैरेटिव-बिल्डिंग और उसे फैलाने का दौर है. उसमें धारणाएं बनाने, नैरेटिव गढ़ने और चुनाव लड़ने और इन हथियारों की मदद से जीतने पर ही जोर है.
2014 के चुनाव से देखें, तो राहुल गांधी अक्सर विदेशी दौरों पर जाते हैं. हालांकि, वह जिस खानदान से हैं, तो उनको विदेश में ही रहना अधिक जंचता. वे चुनाव के तुरंत बाद भी विदेश जाते हैं. यह कांग्रेसी संस्कृति भी रही है. उसमें आप उनसे कुछ और उम्मीद नहीं कर सकते. एक और बात बहुत गौर करने की है. उनके इर्द-गिर्द जितने भी लोग हैं, वे वामपंथी मानसिकता के हैं. राहुल उनसे घिरे हुए हैं. उनका एकमात्र उद्देश्य है आजकल -भारत और भारतीयता की बात करनेवाले हरेक व्यक्ति का विरोध करना. राहुल बिल्कुल उसी धारा में बह रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस में इसका विरोध नहीं होता. बहुत जमकर होता है, लेकिन जो विरोध करनेवाले हैं, उनकी स्थिति कमजोर हुई है. उसकी एक वजह है कि पिछले 60 साल जिस कांग्रेस ने सत्ता चलायी, वह अब सत्ता से दूर है.
बेमतलब की बयानबाजी
राहुल के बयानों का मुकम्मल जमीनी असर नहीं होता. वह चर्चा में भले आ जाते हों, लेकिन जनता को उनका बयान नहीं जमता. आप देख सकते हैं कि थोड़ा सा असर कर्नाटक चुनाव में हुआ, लेकिन उससे पहले जिस गुजरात में उन्होंने पूरा जोर लगा दिया था, वह हार गए. हिमाचल में तो खटाखट-खटाखट योजना की जीत हुई है. इस तरह जनता में उनकी जोकर की छवि भले बन गयी हो, लेकिन मुद्दों पर बहुत असर राहुल गांधी नहीं छोड़ पाते हैं. वह जान बूझकर बस बयानबाजी करते हैं और अपने लोगों, खासकर मतदाताओं और मोदी-विरोधियों को आकर्षित करते हैं, उनको उत्तेजित करते हैं.
सनातन पर बोलने का अधिकार
राहुल के आसपास जो वामपंथी टोली है, खास तौर पर जेएनयू का जो समूह है, जिसे भाजपा टुकड़े-टुकड़े गैंग कहती रही है, वह राहुल गांधी को ऐसी सलाह देता है, जिसके बाद वह सनातन पर अनाप-शनाप या बेढंगी बातें बोल जाते हैं. पहले कांग्रेस में ऐसा नहीं होता था. उनका शीर्ष नेतृत्व खासकर ऐसा नहीं करता था. उनकी दादी खुद देवराहा बाबा से आशीर्वाद लेती थीं, उनके आसपास कई संत-महात्मा रहते थे. नेहरू कहने को भले बड़े सेकुलर या हिंदुत्व के विरोधी थे, लेकिन उनके पास भी लोग रहते थे, देश की सांस्कृतिक नब्ज को समझते थे. राहुल गांधी की पूरी परवरिश ही ऐसी हुई है कि वह देश की संस्कृति को समझते ही नहीं हैं. वह शांत पानी में पत्थर फेंकते हैं और उसकी प्रतिक्रिया बस देखते हैं. इसको भारतीय न्यायपालिका को भी देखना चाहिए. यहां याद दिलाना चाहिए कि आरएसएस पर की गयी बेतुकी बयानबाजी से ठाणे में उन पर मुकदमा चला और जहां कहीं भी मुकदमा चलता है, तो वह माफी मांग लेते हैं. हां, राहुल के जो विरोधी राजनीतिक दल या कार्यकर्ता हैं, वह इन बातों को जनता के बीच प्रभावी तरीके से नहीं ले जा पाते हैं. कुछ फैनेटिक किस्म के लोग ही हैं, जिनको राहुल की बात अच्छी लगती है. कांग्रेस के बहुतेरे लोग उससे असहज रहते हैं, लेकिन राहुल गांधी की जो मंडली है, जो कोटरी है, वह बड़ी प्रभावित रहती है.
कट्टरता और सामंजस्य
राहुल मुझे लगता है कि कट्टरवाद के शिकार हो चुके हैं. खासकर, जब वह विदेश जाते हैं तो अधिक बोलते हैं. शिव जब संहारक हैं, तो संहार का मतलब यह थोड़े होता है कि सब कुछ खत्म ही कर देते हैं. भारतीय संस्कृति में तो प्रलय के बाद भी सृजन होता है. शिव ही तो सत्य भी हैं, सुंदर भी हैं. राहुल गांधी से हालांकि कुछ सुंदर की उम्मीद नहीं की जा सकती है. उनकी बोली फिलहाल अधिक इसलिए निकल रही है कि अखिलेश यादव ने उनका अधिक साथ दे दिया है. अगर यूपी में भाजपा की जमीन कम नहीं होती और अखिलेश बढ़िया जीत नहीं दर्ज कर पाते, तो राहुल की ऐसी बोली और बयानबाजी का मतलब ही नहीं होता. चुनाव में राहुल गांधी को कोई बड़ी सफलता नहीं मिल रही है.
जो कांग्रेस कभी भारतीय राजनीति की धुरी थी, वह बिहार में लालू के पीछे घूम रही है. यूपी में अखिलेश हैं, तो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के पीछे घूमती है. दिल्ली में जिस केजरीवाल ने कांग्रेस की जड़ खोदी, अब वे उसी के पीछे घूम रहे हैं. झारखंड में राहुल हेमंत सोरेन के पिछलग्गू हैं और तमिलनाडु में अगर डीएमके न चाहे तो उनको सीटें न मिलें. कांग्रेस की हालत तो बहुत खराब है. अगर ऐसी कांग्रेस के नेता होकर वह कट्टरवाद को बढ़ावा दे रहे हैं तो यह देश से अधिक कांग्रेस के लिए सोचने की बात है. यह तो उनका मानसिक दिवालियापन दिखा रहा है.
राहुल का लक्ष्य किसी भी तरह केंद्रीय सत्ता में आना और स्थापित करना है. इस पूरी प्रक्रिया में वह भारत की सामासिक और बहुलतावादी संस्कृति को चोट पहुंचाते हैं. ऐसी चोट तो लालू या अखिलेश भी नहीं पहुंचाते, इस देश के बहुसंख्यक समाज को, जैसा कि वह पहुंचाते हैं. लालू प्रसाद तो दीवाली और छठ बहुत जबर्दस्त तरीके से मनाते हैं. वह अपनी राजनीति के चलते भले ही फैज कैप भी पहन लें, लेकिन अखिलेश भी इस सावन में रुद्राभिषेक करते और फोटो चिपकाते नजर आ रहे हैं. डीएमके में भी हिंदुत्व के सारे विरोधी ही नहीं है. राहुल जो भी कर रहे हैं वो लफ्फाजी है और यह दीर्घकाल में भारतीय समाज को नुकसान पहुंचाएगी.