नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लागू होते ही देश के कई हिस्सों में विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया. पश्चिम बंगाल में विरोध का झंडा खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने थाम लिया है. सोशल मीडिया पर भी ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे’ का पोस्ट ट्रेंड कर रहा है.
ऐसे में सवाल उठ रहा है कि सीएए कानून लागू होने से मुसलमान क्यों डर रहे हैं? वो भी तब, जब केंद्र सरकार बार-बार यह कह रही है कि भारतीय मुसलमानों पर इस कानून का कोई असर नहीं होगा और न ही उनके कोई अधिकार छीने जाएंगे.
12 मार्च को भी केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सीएए को लेकर एक बयान जारी किया. मंत्रालय ने कहा कि 18 करोड़ भारतीय मुसलमानों को किसी भी स्थिति में सीएए से डरने की जरूरत नहीं है. वे भारत में रहने वाले हिंदुओं की तरह ही अपने सभी अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते हैं.
इस स्पेशल स्टोरी में इन्हीं सवालों के बारे में विस्तार से जानते हैं…
सीएए देश में लागू, एनआरसी की चर्चा
देश में कानून बनने के 4 साल बाद केंद्र सरकार ने सीएए का नोटिफिकेशन जारी किया है. केंद्र के इस नोटिफिकेशन से अब बांग्लादेश, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अल्पसंख्यकों को आसानी से भारत की नागरिकता मिल जाएगी.
हालांकि सीएए लागू होने के बाद अब एनआरसी की चर्चा देशभर में है. हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि केंद्र जल्द ही एनआरसी और एनपीआर कानून लागू करने जा रही है.
ओवैसी के मुताबिक, संसद में अमित शाह ने एक बार कहा था कि पहले सीएए आएगा, फिर एनआरसी और एनपीआर लाया जाएगा.
NRC क्या है और NPR से कितना अलग है?
राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर एक दस्तावेज है, जो नागरिकता से जुड़ा हुआ है. इसमें स्थाई नागरिकों का रिकॉर्ड रखा जाता है. भारत में पहली बार 1955 में नागरिकता से जुड़े कानून में इसका जिक्र किया गया था.
आमतौर पर विदेशी सीमा से घिरे हुए राज्यों में एनआरसी दस्तावेज तैयार करने की बात कही गई है, जिससे अवैध घुसपैठियों की आसानी से पहचान की जा सके.
बात एनपीआर की करें तो यह भी एक रजिस्टर है, लेकिन इसमें देश और विदेश के सभी नागरिकों को शामिल किया जाता है. सरकार डेटा मैंटेन रखने के लिए यह तैयार करवाती है. एनपीआर का मुख्य उद्देश्य लोगों की गतिविधियां भी जानने की है, जिससे कोई बड़ी अनहोनी न हो जाए.
मुसलमानों को एनआरसी से डर क्यों, 3 पॉइंट्स
1. असम का एनआरसी लिस्ट एक बड़ा उदाहरण
पूर्वोत्तर के राज्य असम देश का एकमात्र जगह है, जहां पर एनआरसी रजिस्टर तैयार किया गया है. असम सरकार के मुताबिक राज्य में एनआरसी तैयार करने में 3 साल का वक्त लगा.
इन 3 साल में 3.29 करोड़ नागरिकता साबित करने के लिए 6.5 करोड़ दस्तावेज सरकार को भेजे.
सरकार ने जो फाइनल ड्राफ्ट पेश किया, उसके मुताबिक सिर्फ 3.11 करोड़ लोगों ही नागरिकता के पात्र थे. सरकार के मुताबिक करीब 19 लाख लोग अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाए.
यह असम के कुल नागरिकों का 10 फीसदी है. असम में एनआरसी लिस्ट आने के बाद गैर-सरकारी संस्था सिटिजन्स फॉर पीस एंड जस्टिस (सीजेपी) ने राज्य का दौरा किया.
सीजेपी के मुताबिक असम में एनआरसी सूची से बाहर होने वाले लोगों की जो लिस्ट जारी हुई है, उसमें 69 प्रतिशत महिलाएं हैं.
वर्ग की बात की जाए, तो अधिकांश मुस्लिम ही है. ऐसे में देश के मुसलमानों को डर है कि राष्ट्रीय स्तर पर इसे लागू किया जाता है, तो असम जैसी स्थिति बन सकती है.
2. एनपीआर, सीएए और एनआरसी की क्रोनोलॉजी
मुसलमानों को एक बड़ा डर एनपीआर, एनआरसी और सीएए की क्रोनोलॉजी को लेकर है. मुसमलानों को डर है कि एनपीआर में नाम होने के बाद अगर वे एनआरसी में अपना नाम रजिस्टर नहीं करा पाए, तो उनकी नागरिकता रद्द हो सकती है.
येल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर रोहित डे और कैंब्रिज के प्रोफेसर सुरभी रंगनाथन ने 2019 में एनआरसी को लेकर न्यूयॉर्क टाइम्स में एक लेख लिखा था.
इसके मुताबिक भारत सरकार जो एनआरसी और सीएए लागू करने की तैयारी कर रही है, वो म्यांमार के 1982 में नागरिकता नीति से मिलता-जुलता है. म्यांमार ने इसी तरह की नागरिकता नीति अपनाकर स्वदेशी जातियों को विशेषाधिकार दिया, जबकि रोहिंग्या को बाहर रखा.
जब वहां नागरिकता कानून लागू हुआ, तो पहले सभी समुदाय के लोगों को दस्तावेज के आधार पर बाहर किया गया. हालांकि, विशेषाधिकार नीति की वजह से स्वदेशी समुदाय के लोगों को नागरिकता मिल गई, लेकिन रोहिंग्या समुदाय इससे वंचित रह गया.
नागरिकता छिनने के बाद रोहिंग्या के खिलाफ बाद के दिनों में पूरे म्यांमार में हिंसक घटनाएं हुई.
3. अधिकारियों पर ही सारा दारोमदार, इन्हें चुनौती देना जटिल काम
देश में अगर एनआरसी लागू होता है, तो इसे अमल में लाने की जिम्मेदारी सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर ही रहेगी. असम में एनआरसी डेटा फाइनल करने के लिए राज्य सरकार ने 60 हजार कर्मचारी लगाए थे.
असम में एनआरसी कार्यों में शामिल रहे आईएएस अधिकारी प्रदीप हेजला पर अनियमितता का आरोप है. उनके खिलाफ असम सरकार की जांच चल रही है.
गैर-सरकारी संस्था सीजेपी के मुताबिक असम में ऐसे कई लोग थे, जिनके पास नागरिकता के दस्तावेज थे, लेकिन अधिकारियों की अड़ियल रवैए और लापरवाही की वजह से उनका नाम एनआरसी की सूची में शामिल नहीं किया गया.
सीजेपी के मुताबिक असम ग्वालपाड़ा स्थित खूटापुर गांव के सकेन अली के दस्तावेज में मामूली गलती होने की वजह से अधिकारियों ने उसके दस्तावेज को संदिग्ध बता दिया , जिसके बाद उसे डिटेंशन सेंटर में भेज दिया गया.
सकेन अली के दस्तावेज में सकेन की जगह पर सखेन लिखा गया था. सीजेपी की मानें तो असम में उसके पास इस तरह के कई मामले सामने आए थे.
(Photo- CJP)
असम सरकार के मुताबिक जिन लोगों का दावा सरकार ने खारिज कर दिया है, उन्हें ट्रिब्यूनल और हाईकोर्ट जाना पड़ेगा. जानकारों का कहना है कि यह एक जटिल प्रक्रिया है.
पूरे भारत में अगर यह लागू होता है, तो कोर्ट पर मुकदमों का बोझ बढ़ेगा और लोगों को नागरिकता साबित करने में सालों का वक्त लग सकता है.
NRC से जुड़े यह 2 मुद्दे भी परेशान करने वाले
- केंद्र सरकार खुलकर यह नहीं कह रही है कि वो राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करेगी या नहीं. अगर तैयार करती है तो इसका स्वरूप क्या रहने वाला है?
- क्या असम की तरह केंद्र का भी कट ऑफ डेट 1970 ही रहेगा. क्योंकि अधिकांश लोगों की शिकायत है कि उनके पास इतना पुराना डॉक्यूमेंट्स नहीं है.