पिछले महीने में चैनलों में सबसे अधिक बोले गए शब्द हैं ‘निमंत्रण’ ‘प्राण प्रतिष्ठा’ और ‘जाएंगे कि नहीं जाएंगे’! ऐसे ही ‘राम लला’‚ ‘अयोध्या’‚ ‘मंदिर’ व ‘गर्भगृह ‘ जैसे शब्द भी सर्वाधिक बोले गए शब्द कहे जा सकते हैं। लेकिन इन सबके ऊपर जो शब्द सबसे अधिक बार बोला–सुना जा रहा है‚ वह है ‘राम नाम’! यह कभी ‘जैश्रीराम’ के रूप में बोला जाता है‚ कभी ‘जय सीताराम’ व ‘जय सियाराम’ के रूप में। ये शब्द पुराने भजनों में तो आते ही हैं‚ उनसे अधिक नये भजनों में भी आते हैं।
इनमें से एक भजन फिल्म ‘आदिपुरुष’ (जिसका विरोध किया गया था) का है कि ‘बजाओ ढोल स्वागत में मेरे घर राम आए हैं।’ यह अयोध्या से प्रसारित होते भजनों में बार–बार सुनाई पडता है। दूसरे नंबर पर लता मंगेशकर का गाया ‘श्री राम चंद्र कृपालु भजि मन हरण भव भय दारुणम्’ है। इसके बाद सुरेश वाडकर का गाया तुलसी का यह भजन सुनाई पडता है। इसके बाद ‘कौन कहता है कि भगवान आते नहीं आप शबरी की तरह बुलाते नहीं’ वाला भजन आता है। आप सुनना चाहें न चाहें‚ बोलना चाहें न चाहें‚ ‘रामलला’‚ ‘मंदिर’‚ ‘अयोध्या’‚ ‘प्राण प्रतिष्ठा’ आदि शब्द बार–बार सुनाई पडते हैं।
अयोध्या के इस ‘नये मंदिर कांड’ के प्रसारण के समानांतर चलती चुनावी राजनीति ने इसे राजनीतिक व धार्मिक विवाद का विषय बना दिया है। रामभक्त इसे साढे पांच सौ बरस के सांस्कृतिक संघर्ष का विजयोत्सव कह रहे हैं‚ भारत का ‘नया सांस्कृतिक नवजागरण’ बता रहे हैं और भारत के इतिहास का ‘स्वर्णकाल’ कह रहे हैं तो रामभक्तों से अपने को भिन्न और विरोधी कहने वाले इसे संघ‚ भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा और चुनाव जीतने का हथकंडा बता रहे हैं। एक ओर रामभक्त इसे अपनी विजय मानकर उल्लसित हैं तो विरोधी अब ‘एक हारी जा चुकी धार्मिक लडाई’ को फिर से लडते हुए दिखना चाहते हैं। लेकिन इस बार कुछ गजब के अंतर्विरोध नजर आते हैं। ‘धर्म को अफीम मानने वाले’ व ‘सेक्युलर’ अब किसी कट्टर धार्मिक की तरह इस ‘प्राण प्रतिष्ठा समारोह’ पर आपत्ति कर रहे हैं। शुरू में कहते रहे कि बुलाया नहीं जा रहा लेकिन जब ट्रस्ट ने बुलाया तो कहने लगे कि यह संघ‚ भाजपा का कार्यक्रम है। हम नहीं आते। उनकी नई आपत्तियां इस प्रकार की हैं कि ‘प्राण प्रतिष्ठा समरोह’ चुनावों में फायदा उठाने के लिए जल्दबाजी में किया जा रहा है‚ कि पीएम प्राण प्रतिष्ठा क्यों कर रहे हैं‚ उसे राष्ट्रपति को करना चाहिए था। लेकिन वे भी नहीं आ रही हैं; जबकि नई खबर के अुनसार वे आ रही हैं‚ कि चारों शंकराचार्य नहीं आ रहे‚ उनका कहना है कि हम क्या वहां ताली पीटने के लिए आएंगे‚ कि वे भी कह रहे हैं कि यह शास्त्र सम्मत नहीं हो रहा‚ कि मंदिर पूरा नहीं बना और अधूरे में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जाती।
कुछ ‘सेक्युलर’ कहने लगे हैं कि राम सबके हैं। वे हमारे मन में हैं। उनके लिए इतना कर्र्मकांड क्योंॽ भक्त कवियों ने कर्मकांड का विरोध किया है‚ तब यह ‘तमाशा’ क्योंॽ इसके जवाब में जब ‘प्राण प्रतिष्ठा’ कराने वाले मुख्य पुजारी ने कहा कि यहां तीन मंदिर बनने हैं‚ ‘मुख्य मंदिर’ पूरा बन चुका है। उसमें प्राण प्रतिष्ठा करना शास्त्र सम्मत है। बडे ज्योतिषियों ने शास्त्रानुसार प्राण प्रतिष्ठा के लिए शुभ मुहूर्त निकाला है और शुभ मुहूर्त में प्राण प्रतिष्ठा करना सर्वथा उचित है। बहरहाल‚ देखना मजेदार है कि जो ‘धर्म को अफीम मानते रहे’ वे भी विरोध के लिए शंकराचार्यों और शास्त्रों की आड ले रहे हैं और ऐसा करते हुए भूल रहे हैं कि ऐसे कुछ धर्माचार्य और उनके शास्त्र तो यह चाहते हैं कि राज्य के सभी कामकाज धर्माचार्यों के कहे अनुसार किए जाएं यानी धर्म को राज्य के ऊपर माना जाए। इसका अर्थ हुआ कि जिस तरह मध्यकालीन यूरोप में धर्म राज्य को होता था उसी तरह यहां भी हो! अगर ऐसा होता है तो फिर ‘सेक्युलरिज्म’ क्या होगाॽ धर्माचार्यों की मानें तो ‘धार्मिक राज्य’ में आज के ‘सेक्युलर राज्य’ की गुंजाइश ही नहीं!
कहने की जरूरत नहीं कि मंदिर के ‘अंध विरोध’ में कुछ लोग ‘धार्मिक राज्य’ की ही मांग करने लगे हैं! है न यह विचित्र बात जो टीवी की बहसों में बार–बार सामने आती है। ‘मंदिर’ भारत की ‘पापूलर कल्चर’ है। अयोध्या व मंदिर अब बडी पापूलर कल्चर का हिस्सा है जिसमें धर्म‚ राजनीति और इकनामी का ‘मिश्रण’ प्रसाद के रूप में हमेशा मिलने वाला है। इसलिए मीडिया में प्रसारित ‘रामलला’‚‘अयोध्या’‚ ‘मंदिर’‚ ‘प्राण प्रतिष्ठा’ जैसी ‘हिन्दुत्व’ की पदावली ‘भक्तों–अभक्तों’ सबको ‘लपेटे’ में रखने वाली है।