नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश के नाम को लेकर दशकों पुराने द्वैत–दुविधा को खत्म कर दिया है। वह अब ‘भारत’ के रूप में अद्वैत हो गया है। इसके साथ‚ संविधान के अनुच्छेद–एक का प्रारंभिक वाक्य–‘इंडिया‚ दैट इज भारत.’सदा के लिए बदल दिया है। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि संविधान में प्रथम अध्याय में अंकित उस प्रथम वक्तव्य का क्रम बदल कर ‘भारत‚ दैट इज इंडिया.’लिखा जाएगा अथवा केवल ‘यह जो भारत है’कुछ ऐसा लिखा जाएगा। हालांकि सरकार ने जी–२० शिखर सम्मेलन की मेजबानी में राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए भोज के न्योते से इसकी बाकायदा शुरु आत की है। इससे सत्ता पक्ष के साथ देश–समाज के उन तबकों को गर्व हुआ है‚ जो इंडिया शब्द में गुलामी की गंध देखते थे और उससे छुटकारा पाना चाहते थे। दरअसल‚ अपने देश का नाम यहां आने वाले अपनी समझ और हिज्जे से बदलते रहे हैं। आर्यावर्त/भारतवर्ष देश सिंधु नदी के किनारे होने के कारण बाहर से आने वालों की बोली में इसके निवासी हिंदू हुए और यह स्थान हिंदवी‚ हिंदुस्तान हुआ। यूरोपीयन आए तो उनके उच्चारण में यह हिंदवी‚ हिंडिया होते हुए इंडिया के रूप में स्थापित हो गया। सरकार ने नाम सुधार कर संविधान सभा मेंे मिली पराजय को जय में बदल कर ठीक किया है। ‘भारत’ के पक्ष में एचवी कामथ‚ मौ. हसरत मोहानी‚ कमलापति त्रिपाठी और हरगोविंद पंत काफी मुखर थे। किंतु अम्बेडकर और नेहरू का पलड़ा भारी रहा‚ जो मोहानी के शब्दों में ‘इंडिया दैट इज भारत’ पर पहले से मन बना चुके थे। नतीजा‚ भारत इंडिया का पिछल्लग्गू बना रह गया। दरअसल‚ नेहरू‚ जो भारतवासी होते हुए भी ‘भारत की तरफ पश्चिम के रास्ते से आए थे’‚ उन्हें अपने अतीत का बड़ा हिस्सा अंधकारमय लगता था और यूरोप सब लिहाज से प्रगतिशील व आधुनिक लगता था। अम्बेडकर भी पश्चिम से पढ़े–लिखे थे‚ उन्हें अंग्रेजी भारतीय दासता से मुक्ति का एक अचूक औजार लगती थी। भारत के पक्षकार इतने से खुश हो गए कि कैसे भी ‘भारत’ का जिक्र तो हो गया। पर देश का बड़ा तबका विरोध में है। इसलिए इसकी टाइमिंग ठीक नहीं है। उसमें विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ नाम और से खौफ अधिक दिख रहा है–इतिहास–क्रम दुरु स्त करने का गौरव कम। सरकार ने विहित प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया है। संविधान सभा के निर्णय में एक लोकतांत्रिकता थी।