सुप्रीम कोर्ट ने तलाक को लेकर महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। शीर्ष अदालत ने कहा है‚ यदि पति–पत्नी के रिश्ते टूट चुके हों‚ उनमें सुलह की गुंजाइश ना बची हो तो परिवार अदालत भेजे बिना ही तलाक को मंजूरी दी जा सकती है। इसके लिए छह महीने का इंतजार जरूरी नहीं होगा। अदालत ने वे मुद्दे भी तय किए‚ जिनके आधार पर शादी में सुलह की संभावनाओं को परे माना जा सकेगा। अदालत दंपति के बीच बराबरी‚ गुजारा भत्ता‚ बच्चों की कस्टड़ी भी तय करेगी। यह मुद्दा संविधान पीठ के पास विचार के लिए भेजा गया था जिसमें हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा १३बी के तहत आपसी सहमति से तलाक की प्रतीक्षा अवधि को माफ किए जाने का सवाल था। डि़वीजन बेंच ने यह मामला २०१६ में पांच जजों की संविधान पीठ को रेफर किया था। पांच याचिकाओं की लंबी सुनवाई के बाद सितम्बर‚ २०२२ में फैसला सुरक्षित रखते हुए संविधान पीठ ने कहा था‚ सामाजिक परिवर्तन में थोड़़ा समय लगता है। कानून लाना आसान होता है मगर लोगों को राजी करना मुश्किल। दुनिया भर में सबसे कम १.१% तलाक अपने यहां होते हैं। हालांकि इधर के वर्षों में शादी टूटने के मामले बढते नजर आ रहे हैं। बावजूद इसके कानूनी प्रक्रिया इतनी जटिल है कि दंपति कानूनन संबंध विच्छेद की बजाय अलगाव कुबूल कर लेते हैं। सामाजिक/पारिवारिक स्थितियां जिस तेजी से बदल रही हैं‚ लोगों की सोच में भी उसी तरह परिवर्तन नजर आ रहा है। वे कलहपूर्ण संबंध को ढोते रहने को राजी नहीं हैं। जिन मामलों में आपसी कलह इतनी बढ जाती है कि तलाक ही अंतिम परिणति नजर आती हैं‚ उनको इस फैसले के बाद संविधान की धारा १४२ के तहत परिवार अदालतों के चक्कर नहीं काटने होंगे। अदालतों में तलाक के हजारों मामले सालों से पेंडिं़ग हैं। ये दंपति अलग हो कर नया जीवन शुरू करने की आस में वकीलों/अदालतों के चक्कर लगाते–लगाते थक जाते हैं। जब रिश्ते इतने बिगड़़ चुके हों और वे आपसी सहमति से अलग होने को राजी हों तो बिलावजह मामले को लटकाने का कोई मकसद नहीं होता। वास्तव में बुरी शादियों में फंसे लोग कई दफा मानसिक तौर पर बीमार हो जाते हैं। नतीजतन‚ मामला खुद को हानि पहुंचाने तक भी पहुंच जाता है। इसलिए जहां सुलह की गुंजाइश कतई नजर ना आ रही हो‚ उन्हें जबरन इस ऊहापोह में लटकाए रहने से राहत मिल सकती है। वास्तव में तो यह फैसला स्वयं दंपति का होता है कि वे इसे निभाने को राजी हैं‚ या अलग होने को। इसका सम्मान होना चाहिए।
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