संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण में भारी अवरोध के कारण एक दिन भी सुचारू रूप से कामकाज नहीं हो सका। वित्त वर्ष २०२३–२४ का ४५ लाख करोड़ रु पये का बजट बिना चर्चा के पास हो गया। काम के नाम पर संसद की विभाग संबंधी संसदीय समितियों की विभिन्न मंत्रालयों की अनुदान मांगों पर सभापटल पर रखी रिपोर्ट को माना जा सकता है। सभी दलों के सांसदों ने मिल कर काफी श्रम से रिपोर्ट तैयार की‚ लेकिन सत्र में लगातार अवरोध के कारण चर्चा न होने से इस श्रम को महत्व नहीं मिल सका।
इसी बीच सदन में वन संरक्षण संशोधन विधेयक को लेकर सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच तकरार बढती दिख रही है। २९ मार्च‚ २०२३ को लोक सभा में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने वन संरक्षण संशोधन विधेयक‚ २०२३ प्रस्तुत किया। विपक्ष इसे स्थायी समिति को भेजने की मांग कर रहा था‚ लेकिन इसे दरकिनार कर दोनों सदनों की संयुक्त समिति के हवाले कर दिया गया। विपक्ष का कहना था कि जब इस विषय के लिए संसद की विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी‚ पर्यावरण‚ वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी समिति मौजूद है तो केवल मनमानी के लिए संयुक्त समिति को भेजा गया है। स्थायी समिति के अध्यक्ष जयराम रमेश ने सभापति राज्य सभा से इस मामले में हस्तक्षेप की मांग की है। वहीं लोक सभा के अध्यक्ष से भी ऐसा ही आग्रह किया गया है। विपक्षी नेताओं का आरोप है कि प्रस्तावित संशोधन पारंपरिक वनवासियों के अधिकारों को प्रभावित करेगा और पर्यावरण खतरे मे पड़ेगा।
इस मामले में राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष हर्ष चौहान के ऐतराज का जिक्र भी जयराम रमेश ने किया है‚ जिसमें उन्होनें कहा है कि इससे आदिवासियों के हित प्रभावित होंगे। १९९३ में विभाग संबंधी स्थायी समितियों के गठन के बाद ऐसी परिपाटी बनी थी कि विधेयकों के सभा में रखने के बाद पीठासीन अधिकारी उसकी जांच के लिए उनको संबंधित विभाग संबंधी समितियों को सौंप देते रहे थे‚ लेकिन हाल के वर्षों में यह काम केवल संबंधित मंत्री की सिफारिश पर हो रहा है। मंत्री जल्दबाजी में विधेयकों को पारित कराना चाहते हैं। पिछले साल राष्ट्रीय जैव विविधता विधेयक भी स्थायी समिति की जगह संयुक्त समिति को भेज दिया गया‚ जिसका अध्यक्ष भाजपा के संजय जायसवाल को बनाया गया। वहीं २० दिसम्बर‚ २०२२ को बहुचर्चित बहुराज्य सहकारी समितियां (संशोधन) विधेयक‚ २०२२ को लोक सभा में भाजपा सांसद सीपी जोशी की अध्यक्षता में संसद की संयुक्त समिति के हवाले किया गया‚ जबकि विपक्ष इसे कृषि संबंधी समिति के हवाले करने की मांग कर रहा था। इसी तरह जनिवश्वास उपबंधों का संशोधन विधेयक २०२२ को भी दोनों सदनों की संयुक्त समिति के हवाले २२ दिसम्बर २०२२ को किया गया‚ लेकिन वन संरक्षण संशोधन विधेयक को लेकर विरोध का दायरा बढ़ रहा है। विपक्ष का आरोप है कि इस संशोधन से वन‚ वन्य जीव और वनवासियों पर नकारात्मक असर पड़ेगा।
अतीत में पर्यावरण और वन संरक्षण के लिए जो मजबूत कानून बने और जिस तरह कई संस्थाएं खड़ी हुइ‚ उन सब पर असर पड़ेगा। कानून लचीला बनाने के कई गंभीर खतरे हो सकते हैं। सत्तापक्ष जहां पर्यावरण के कानूनों को ईज आफ डूइंग बिजनेस के हक में नहीं मानता और तमाम परियोजनाओं में देरी का कारक बताता है‚ वहीं विपक्ष इसके विपरीत तर्क दे रहा है। तमाम उद्योगपति इन कानूनों को रोड़ा मानते रहे हैं‚ पर भावी पीढ़ी की बेहतरी के लिए ये अपरिहार्य हैं‚ लेकिन पर्यावरण से संबंधित कानूनों को लेकर विवाद पहले भी उठते रहे हैं। इसके पहले मोदी सरकार ने देश में पर्यावरण से संबंधित कानूनों की समीक्षा के लिए पूर्व कैबिनेट सचिव टी.एस.आर. सुब्रमण्यम की अध्यक्षता में २९ अगस्त २०१४ को उच्च स्तरीय समिति बनायी थी। इसे पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम‚ १९८६‚ वन (संरक्षण) अधिनियम १९८०‚ वन्यजीव (सुरक्षा) अधिनियम‚ १९७२‚ जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम‚१९७४‚ वायु (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम‚ १९८१ की समीक्षा करने का जिम्मा सौंपा गया था। इस समिति ने जब १८ नवंबर २०१४ को अपनी रिपोर्ट दी तो उसे लेकर काफी विवाद हुआ। बाद में इन सिफारिशों की पड़ताल संसद की विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी‚ पर्यावरण‚ वन और जलवायु परिवर्तन संबंधी समिति ने २०१५ में की और उच्च स्तरीय समिति की सारी सिफारिशों को सिरे से खारिज कर दिया था।
संसदीय समिति सुब्रमण्यम समिति की सिफारिशों से असहमत थी। उसका मत था कि १९७० और १९८० के दशक में पर्यावरण संरक्षण के जो कानून बने‚ वे संसद में व्यापक बहस और राज्यों से संवाद के बाद बने थे। कारपोरेट्स इस आधार पर इन कानूनों को उदार बनाने की लॉबिंग में लगा था कि इससे विकास की रफ्तार मंद है‚ लेकिन संसदीय समिति के विरोध के नाते एक अलग वातावरण बना और लोगों के बीच संदेश गया कि अगर कानूनों में बदलाव हुए तो पर्यावरण‚वन और वन्य जीव संरक्षण के साथ ग्राम सभाओं और आदिवासियों के हितों को भारी नुकसान होगा। तब संसदीय समिति ने इस मसले में ४३ संगठनों के प्रतिनिधियों से विचार किया। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट‚ बांबे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी‚ वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड फॉर नेचर जैसे संगठनों के ११ विशेषज्ञों ने समिति के समिति के समक्ष तमाम अहम तथ्य और आपत्तियां रखी थीं। उनकी राय थी कि हमारी नदियों‚ चारागाहों‚ झीले‚ रेगिस्तान और जंगल से लेकर जैव सम्पदा के खजाने को बचाने के लिए बेहद सावधानी अपेक्षित है।
संसदीय प्रणाली में विभाग संबंधी समितियों इतनी अहम है कि उनको लघु संसद कहा जाता है। १९९३ में ये समितियां अस्तित्व में आई। देश में विभाग संबंधी स्थायी समितियों का प्रयोग कृषि‚ पर्यावरण और वन‚ विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी तीन समितियों के गठन के साथ १८ अगस्त‚ १९८९ में हुआ। प्रयोग की सफलता के बाद १९९३ से इनको ठोस आकार मिला। मोदी सरकार में २०१४ से अप्रैल २०१९ के दौरान इन समितियों की ६‚२६० में से ४‚३९१ सिफारिशों को सरकार ने स्वीकार किया। यह आंकड़ा समितियों का महत्व बताता है। इन समितियों ने तमाम अहम रिपोर्टें दी हैं जो नीति निर्माताओं के काफी काम आइ‚ लेकिन अब बदलती तस्वीर कुछ और इशारा कर रही है।
१९९३ में ये समितियां अस्तित्व में आई। देश में विभाग संबंधी स्थायी समितियों का प्रयोग कृषि‚ पर्यावरण और वन‚ विज्ञान और प्रौद्योगिकी संबंधी तीन समितियों के गठन के साथ १८ अगस्त‚ १९८९ में हुआ। प्रयोग की सफलता के बाद १९९३ से इनको ठोस आकार मिला। मोदी सरकार में २०१४ से अप्रैल २०१९ के दौरान इन समितियों की ६‚२६० में से ४‚३९१ सिफारिशों को स्वीकार किया। यह आंकड़ा समितियों का महत्व बताता है………