हाल ही के चुनावों में मिले–जुले परिणाम आए हैं। दिल्ली‚ गुजरात और हिमाचल प्रदेश में जो नतीजे आए हैं‚ उनका अनुमान लगा रहे राजनैतिक पंडितों की भविष्यवाणी काफी हद तक सही साबित हुई। विपक्षी दलों ने जिस तरह कमर कस कर इन चुनावों में पहले के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया है‚ उससे अब यह बात तो स्पष्ट है कि विपक्षी दल २०२४ के लोक सभा चुनावों से पहले २०२३ में नौ राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को भी काफी गंभीरता से ले रहे हैं। बिखरा हुआ विपक्ष किसी भी लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं होता। शायद इसीलिए तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता एक दूसरे के साथ बैठकें कर रहे हैं‚ और आगे की योजना बना रहे हैं।
गुजरात में भाजपा ने जीत का कीर्तिमान स्थापित किया है पर हिमाचल प्रदेश और दिल्ली में शिकस्त के बाद भाजपा को आने वाले चुनावों की तैयारी में जुटना होगा। दिल्ली एमसीडी के चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को बहुमत मिला। भाजपा समर्थक इसे १५ साल की ‘एंटी इनकम्बेंसी’ बता रहे हैं। वहीं केजरीवाल दावे कर रहे हैं कि उन्हें उनके काम पर वोट मिला। जिस तरह केजरीवाल ने ‘दिल्ली मॉडल’ का ढोल पीट–पीट कर पंजाब में अपनी सरकार बनाई‚ ठीक उसी तरह दिल्ली की एमसीडी में भी अपनी पकड़ बना ली परंतु हिमाचल प्रदेश और गुजरात में उनका ‘झाड़ू’ नहीं चल सका। गुजरात के नतीजों को गौर से देखें तो कई सीटों पर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के वोटों को अगर जोड़ा जाए तो भाजपा को मिले वोटों के मुकाबले वो संख्या काफी अधिक है। इसका मतलब हुआ कि विपक्षी एकता न होने के कारण भाजपा को न मिलने वाले वोट बंट गए। इसका सीधा फायदा भाजपा को ही हुआ और वो ऐतिहासिक जीत हासिल कर पाई। शायद इसीलिए केजरीवाल को भाजपा के लिए विपक्ष के वोट काटने वाला कहा जा रहा है। परंतु जिस तरह केजरीवाल ने हिमाचल प्रदेश के चुनावों में गुजरात और दिल्ली जैसी ताकत नहीं झोंकी और कांग्रेस को इसका फायदा मिला‚ उससे तो यही लगता है कि आम आदमी पार्टी ने वोट काटने का ही काम किया है।
हिमाचल प्रदेश के चुनावों में अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने हिमाचल प्रदेश के प्रभारी सत्येंद्र जैन की कमी महसूस की और चुनाव प्रचार से अचानक हट गए। जो लोग केजरीवाल को भाजपा की ‘बी टीम’ कहते हैं‚ वो इस बात पर हैरान हैं कि यदि यह बात सच है तो सत्येंद्र जैन को हिमाचल प्रदेश के चुनावों से पहले जेल से क्यों नहीं छुड़ाया गयाॽ भाजपा द्वारा सत्येंद्र जैन के जेल के वीडियो हर रोज वायरल क्यों किए जा रहे थेॽ यदि भाजपा और आम आदमी पार्टी एक हैं‚ तो क्या भाजपा सरकार द्वारा सत्येंद्र जैन को इतने दिनों तक तिहाड़ में रखना एक गलत रणनीति थीॽ
आम तौर पर जब भी किसी राज्य में उपचुनाव हुए हैं‚ फिर वो चाहे लोक सभा हों या विधानसभा के‚ वहां पर सत्तारूढ़ दल ही विजयी होता है। परंतु २०१७ के लोक सभा उपचुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य की सीट सत्तारूढ़ भाजपा के पक्ष में नहीं जा सकी। इसका कारण था सपा और बसपा का समझौता। ठीक उसी तरह मुलायम सिंह की मृत्यु के बाद मैनपुरी के उपचुनाव में डिंपल यादव की ऐतिहासिक जीत का कारण केवल सहानुभूति नहीं था। नेता जी जैसे कद्दावर नेता की लोकप्रियता को देखते हुए भाजपा को भी और दलों की तरह इस चुनाव में किसी उम्मीदवार को नहीं खड़ा करना चाहिए था परंतु अपना उम्मीदवार उतार कर भाजपा ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया है। राहुल गांधी का गुजरात में ‘भारत जोड़ो यात्रा’ न निकालना भी गलत निर्णय था। परंतु यदि वे सोच लेते कि उन्हें गुजरात में मोदी–शाह की जोड़ी को ध्वस्त करना है‚ तो उन्हें केजरीवाल के साथ कुछ सीटों पर समझौता कर लेना चाहिए था। उनका ऐसा न करना भाजपा के फायदे में रहा। जो भी हो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे तो अभी से चुनावी मोड में आ चुके हैं। उन्होंने आगामी विधानसभा चुनावों की रणनीति तय करने के लिए पदाधिकारियों की बैठकें बुलानी शुरू कर दी हैं। शायद उन्हें इस बात का विश्वास है कि हिमाचल प्रदेश की जीत को अन्य राज्यों में दोहराया जा सकता है।
चुनाव के बाद तमाम टीवी चर्चाओं में राजनैतिक विश्लेषक इस बात पर खास जोर दे रहे हैं कि विपक्षी दलों को आपस में एकजुट हो कर चुनाव मैदान में उतरना चाहिए था। जो भी क्षेत्रीय दल अपने–अपने राज्यों में मजबूत स्थिति में हैं‚ उन्हें २०२४ के लोक सभा चुनावों से पहले जनता के बीच अभी से प्रचार शुरू कर देना चाहिए। उन्हें मजबूत दलों का सहयोग भी करना चाहिए। विपक्षी दल यदि एक दूसरे के वोट नहीं काटेंगे तो उनकी एकता के चक्रव्यूह को भेदना भाजपा या किसी अन्य बड़े दल के लिए मुश्किल होगा। ऐसा तभी हो सकता है‚ जब सभी विपक्षी दल एकजुट हो जाएं। आम सहमति पर पहंुच कर चुनाव लड़ें। सफल लोकतंत्र में सत्ता पक्ष और विपक्ष का मजबूत होना जरूरी है। विपक्ष मजबूत तभी होगा जब एकजुट होगा।