र्थिक विकास की नीतियां तब अपने लक्ष्य से भटक जाती हैं जब उसमें राजनीतिक सोच और सियासत की चासनी के फायदे हावी हो जाते हैं। पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक विकास के मोर्चे पर एक नई राजनीतिक प्रवृति पैदा हुई है। वह है‚ जनकल्याणकारी योजनाओं के नाम पर लोक लुभावन एवं मुफ्तखोरी की राजनीति जिसका वास्तविक आधार कुछ वस्तुओं और सेवाओं को ‘मुफ्त बांटना’ होता है। मुफ्त बांटने की यह परिपाटी आर्थिक बदहाली को खुला आमंत्रण है। खैरात की सुविधा पर आश्रित रखना दरअसल‚ सामर्थ्य को कुंद करने की साजिष है। लोक लुभावनवाद की इस विकृत सोच ने लोगों के अधिकारों की रक्षा की राजनीतिक जिम्मेदारी को चुनावी निष्ठा सुरक्षित करने वाली सौदेबाजी में बदल दिया है।
यह एक सच्चाई है कि भारत एक लोकतांत्रित जनकल्याणकारी राज्य है। जिसका उद्ेश्य समाज का आर्थिक विकास करने के साथ–साथ उसका अधिकतम फायदा गरीब तबके को उपलब्ध कराना है। रोटी‚ कपड़ा‚ मकान‚ स्वास्थ्य एवं शिक्षा‚ केन्द्र और राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। इसके लिए योजनाएं बनाई जातीं हैं तथा प्रत्येक वर्ष साधन की उपलब्धता के लिए बजटीय प्रावधान भी किए जाते हैं। गरीबों को वस्तुएं या सेवाएं मुफ्त या कम मूल्य अथवा रियायती दरों पर उपलब्ध करवाना देश और समाज के हित में नहीं है। लेकिन कई बार चुनाव जीतने की लालसा में ऐसी घोषणाएं कर दी जाती है जिन्हें पूरा करने का दीर्धकालीन परिणाम राजकोषीय स्थिति पर नकारात्मक हो जाता है। सामान्यतः ऐसा तब होता है जब वोट के लिए राजनीतिक दल आम अवाम में विश्वास पैदा करने के लिए वस्तुओं और सेवाओं को मुफ्त उपलब्ध करवाने की होड़ में लग जाते हैं। विकास का एजेंड़ा और विजन की कमी या फिर नेतृत्व के प्रति आम लोगों में विश्वास का अभाव कुछ ऐसे कारण हैं‚ जो राजनीतिक दलों को मुफ्त की रेवडि़यॉं बांटकर सत्ता हासिल करने की ओर अग्रसर करता है। इससे समाज में मुफ्तखोरी की प्रवृत्ति तो बढ़ती ही है‚ देश की आर्थिक स्थिति भी बद से बदतर हो जाती है।
दक्षिण अमेरिका का एक देश है वेनेजुएला जहां सन २०१३ में शासक दल सत्ता में बने रहने के लिए करों में बेतहाशा कटौती करता है और मुफ्त में अनेक सुविधाएं लोगों को देने लगा। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि महंगाई तीव्र गति से बढ़गई जो सभी सीमाओं को लांघ गई। इस देश के पास सबसे अधिक प्राकृतिक तेल का ज्ञात भंड़ार है। इसके अतिरिक्त कोयला‚ लोह अयस्क‚ बॉक्साइट (एल्युमिनियम का अयस्क) और सोना का प्रचुर भंड़ार है। इन संसाधनों के कारण इस देश की गिनती अमीर देशों की श्रेणी में की जाती थी। लेकिन महंगाई इतनी अधिक बढ़ गई कि सोड़े की दो बोतलों की कीमत ८० लाख बोलीवर (वहां की करेंसी) हो गई। इस रकम को देने के लिए नोटों की कई मोटी गड्डि़यांं ले जानी पड़ती थी जो कहीं से भी व्यवहारिक नहीं थी। अतः वहां की सरकार ने एक नई करेंसी जारी की जो १० लाख बोलीवर के बराबर है। इस प्रकार महंगाई ने इस देश के सारे कीर्तिमान को ध्वस्त कर दिए।
इसी तरह पड़ोसी देश लंका की बदहाली के लिए वहां की बेतहाशा बढ़ी महंगाई मुख्य रूप से जिम्मेवार है। चुनाव के समय की गई घोषणा के अनुसार टैक्स की दरों में १५ प्रतिशत की भारी कटौती ने श्रीलंका सरकार की प्रतिवर्ष आय में लगभग ६० हजार करोड़ रुपये की कमी ला दी। फलतः श्रीलंका एक–एक पैसे के लिए मोहताज हो गया और आंख बंदकर चीन से कर्ज लेना शुरू कर दिया जिसका नतीजा आर्थिक पतन के रूप में सामने आया। दो दषक तक राजनीतिक परिदृष्य पर वर्चस्व बनाये रखने वाले परिवार का रातोरात बोरिया विस्तर बंध गया। ईंधन‚ खाद्य–वस्तुओं‚ दवाओं और बिजली की किल्लत से श्रीलंका की जनता इतनी अधिक आक्रोशित हो गई कि उसके अप्रत्याशित विरोध प्रदर्षन में राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे को देश छोड़कर भागने पर विवश कर दिया।
राजनीतिक दलों द्वारा जनता को मुफ्त सुविधाएं देने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। लेकिन कई राजनीतिक पार्टियां लोक लुभावन वादों को अमली जामा पहनाने की कोशिश में वित्तीय कर्जों के साथ–साथ कई महत्वपूर्ण ढांचागत विकास में कटौती कर मुफ्त की योजनाओं में लगा दे रहे हैं जो कि पूर्णतया अनुचित है। इस बात की चिंता रिजर्व बैंक ने भी अपनी रिपोर्ट में जाहिर की है। वर्तमान परिदृष्य में ९ राज्यों की आर्थिक स्थिति ड़वांड़ोल हालत में है। उनका वित्तीय कर्ज और राज्य के जीड़ीपी का अनुपात बहुत अधिक बढ़ गया है। इन सब में पंजाब की स्थिति सबसे विकट हालत में है। अन्य राज्यों में राजस्थान‚ झारखंड़‚ पष्चिम बंगाल‚ केरल‚ आंध्रप्रदेष‚ तामिलनाड़ु‚ हरियाणा और बिहार है। पंजाब इन दिनों मुफ्त में दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की सुविधाएं राज्य के जीड़ीपी का २५.६ प्रतिषत अनुमानित है तो वहीं यह वित्तीय आय का १७.५ प्रतिशत तथा कर–संग्रह का ४५.४ प्रतिशत के आसपास है। यह आंकड़ा आर्थिक विकास के मोर्चे पर भयंकर गिरावट का सूचक है।
ये लोक लुभावन कदम इसलिए भी गलत हैं क्योंकि इससे आर्थिक विकास की नीतियों पर नकारात्मक असर होता है। आज जरूरत है सभी राज्य अपने यहां डि़जिटल तकनीकी और सामाजिक सुविधाओं के बुनियादी ढांचे को तेजी से विकसित करें तथा आर्थिक नीतियों को रोजगारोन्मुख बनाने को सर्वोच्च प्राथमिकता दें। मुफ्त बांटने की योजनाओं के कारण राज्यों में पूंजीगत खर्च लगातार कम होते जा रहे हैं जिस कारण नई संपदा का निर्माण नहीं हो पा रहा है तथा सामान्य लोगों की आय भी नहीं बढ़ पा रही है। मुफ्त की रेवडि़यां देश के भविष्य के लिए एक बड़ा आर्थिक संकट का द्वार बन जाएगी। कुछ राज्यों के राजकोषीय घाटा वृद्धि की दर लगातार बढ़ती जा रही है‚ जो चिंता का विषय है।
भारत में लोक लुभावन योजनाओं की शुरूआत दक्षिण भारत से हुई थी । फिर जीत के लिए राजनीतिक दल यह फार्मूला उत्तर भारत में भी आजमाने लगे। राजनीतिक दलों का यह दांव चुनावों को प्रभावित करने लगा। दिल्ली व पंजाब इसके उदाहरण हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुफ्त की रेवडि़यॉं बांटने पर जो टिप्पणी की है उसे श्रीलंका और वेनेजुएला के संदर्भ में देखा जा रहा है। लेकिन वास्तव में लोक लुभावनवाद पर प्रधानमंत्री मोदी की चेतावनी को सुधार की मंषा से देखने की जरूरत है। उनकी सरकार ने शॉटकॉट के रास्ते मुफ्त में लुटाने की संस्कृति के बजाए देषवासियों के लिए एक्सप्रेस–वे‚ हवाई–अड़्ड़े‚ मकान और शौचालयों के निर्माण पर विषेष जोर दिया‚ जो विकास के अवसर और सामाजिक न्याय की बुनियाद को मजबूती देता है।
भारत के २९ में से ९ राज्य गहरे वित्तीय संकट में फंस गए हैं। इन राज्यों को सरकारी कर्मचारियों के वेतन के लिए भी कर्ज लेना पड़ रहा है। दरअसल जनकल्याणकारी योजनाओं और लोक लुभावन नीतियों के बीच एक पतली सी लकीर या फासला है। जनता को समझना होगा कि खुशहाली मुफ्तखोरी में नहीं‚ आत्मनिर्भर बनने में है। इसके लिए सबसे बड़ी जरूरत सब्सिड़ी के राजनीतिक दुरूपयोग को रोकने के साथ–साथ चुनावी रैलियों एवं घोषणा पत्रों के द्वारा मुफ्त के आर्थिक फायदे पहुंचाने की संस्कृति पर रोक लगायी जाए। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी दूरगामी सोच रखते हैं। यही कारण है कि मुफ्तखोरी या रेवड़ी संस्कृति पर प्रहार करने में उन्हें जरा भी ड़र नहीं लगा जबकि ऐसा बोलना एक राजनीतिज्ञ के लिए खतरे से खाली नहीं है लेकिन देश हित में अगले चुनाव में जीत से ज्यादा अगली पीढ़ी की भलाई को मोदी जी ने अधिक महत्व दिया।
वास्तव में प्रधानमंत्री सांकेतिक शैली में जनता से रेवड़ी संस्कृति यानी मुफ्त का सामान लेने से बचने का आह्वान कर रहे हैं। पिछले ८ वर्षों में मोदी जी द्वारा उठाये गए जोखिम भरे कदमों की जब हम समीक्षा करते हैं तो पाते हैं कि इस तरह के निर्णय के तत्काल बाद मोदी सरकार को बड़े नुकसान का अंदेशा लगाया जा रहा है लेकिन हमेशा इसका उल्टा हुआ‚ जो यह दर्शाता है कि मोदी की कार्यशैली पर जनता को अटूट विश्वास है।