हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने तलाक के एक मामले में सुनवाई करते हुए कहा कि मंगलसूत्र वैवाहिक जीवन की निरंतरता का प्रतीक है। पत्नी का अपने गले से मंगलसूत्र उतार देना पति के प्रति मानसिक क्रूरता की निशानी है। तलाकशुदा पत्नियों को इन वैवाहिक प्रतीक चिह्नों को हरगिज नहीं हटाना चाहिए। हाईकोर्ट ने अलग रह रही पत्नी के मंगल सूत्र न पहनने पर ये अजीबोगरीब टिप्पणी दी और तलाक की मंजूरी दे दी।
हैरानी की बात है कि समाज के इन प्रतीक चिह्नों को निभाने की नैतिक प्रतिबद्धता केवल महिलाओं के जिम्मे ही क्यों? मंगलसूत्र, चूड़ी, बिंदी और बिछुवा जैसी प्रतिकात्मक बंधनों में जकड़ी महिलाएं क्या केवल निषेध और वर्जनाओं के अनुरूप ही अपने जीवन को ढाल लेने के लिए पैदा हुई है। आखिर इन उपलब्धियों से महिलाओं को हासिल भी क्या हुआ है। ऐसा करके हर बार उसे अपनी आजादी और निज आकांक्षा से समझौता करना पड़ा है। सामाजिक रूढ़ियां और धार्मिंक वर्जनाएं महिलाओं को हमेशा से परास्त करती रही है। इस तरह की कोई रस्म अदायगी पुरुषों को अपने दायरे में क्यों नहीं लाती। आखिर वे भी तो अपने जीवनसाथी के साथ दांपत्य सूत्र के बंधन में बंधे होते हैं। उनके लिए समाजिक प्रतिबद्धताएं क्यों नहीं कभी गढ़ी गई। र्भत्सना और जगहंसाई केवल और केवल स्त्री के हिस्से ही क्यों?
मूलभूत स्वाभाविक आकांक्षाओं के आगे परास्त होकर एक अर्थहीन जीवन जीने वाली तलाकशुदा महिलाएं अपने नि:सारित जीवन में छद्म प्रतीकों के इन मुल्लमों को अपने ऊपर क्यों चढ़ाए। क्या हमारे समाज ने एकपक्षीय दृष्टि से इतर कभी इसे समग्रता में देखने का आग्रह किया। क्या केवल इन प्रतीकों को ओढ़ और पहन लेने से हम संस्कारी और आदर्शवादी कहलाएंगे। सच्चे मूल्य, संस्कार और परंपरा हमारी चारित्रिक शुचिता और नैतिक बोध और आदर्श कर्तव्यबोध में निहित है। संकीर्ण मान्यताएं और रूढ़ियां कभी हमारे असल जीवन मूल्य का अंकन नहीं कर सकती। इन रूढ़ियों का शमन के साथ सामाजिक रूप से इनकी अनिवार्यता समाप्त किए जाने पर ही समाज परिवर्तनगामी दिशा में आगे बढ़ सकेगा।
रस्म अदायगी के प्रपंच को सिरे से समाप्त किया जाना चाहिए। इन रूढ़ियों में दबकर स्त्री के अपने व्यक्तित्व के कुंठित हो जाने के अनेकों उदाहरण हमने देखे हैं। अनुशासन और धार्मिंक वर्जनाओं से पैदा हुई घुटन से स्त्री अब तक जकड़ी हुई तड़प रही थी। उसके प्रति स्वेच्छाचारी सामंती दृष्टिकोण के विरोध का एक हल्का सा आभास भी पुरुष सत्तात्मक समाज को हिला देता था। भीतर की इस उमस और घुटन से बचने के लिए जब भी स्त्री रूपी यह प्रतिमा बाहर आई तब तब उसके चारों ओर निषेधों की ऊंची दीवारें खींच दी गई। पुरुष की सारी कल्पित उदारता के बावजूद स्पर्धा और प्रतिद्वंद्विता के दुष्परिणाम स्त्रियों को ही झेलने पड़े। स्त्री की आत्मा सजगता, कलात्मक अभिरु चि, व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास के विरोध में उसे निरंकुश और दकियानूसी प्रमाणित करने में समाज कभी पीछे नहीं रहा। वस्तुत: छद्म प्रदर्शन के विभ्रम से मुक्त आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि भी यही कहती है कि सामाजिक लोक लाज और भय के कारण पुरातन मान्यताओं को ढोया जाना गैरवाजिब है। स्त्रियां खुद फैसले लें कि उन्हें क्या पहनना है क्या नहीं? केवल सामाजिक मान्यताओं के लिए ऐसी कुरीतियों को ओढ़ लेने का कोई अर्थ नहीं होता। इनसे तल्खी के साथ निपटा जान चाहिए।