तथ्य है कि देश के पांच राज्यों-गोवा, अरुणाचल प्रदेश, पंजाब, त्रिपुरा और राजस्थान-में भू-जल स्तर बुरी तरह से गिरा है। गोवा के 68 कुओं में 85 फीसद भू-जल स्तर गिरा है, अरुणाचल प्रदेश के 10 कुओं में 80 फीसद पानी गायब है, पंजाब के 176 कुओं में 69 फीसद पानी नहीं है। त्रिपुरा के 22 कुओं के निरीक्षण से ज्ञात हुआ कि 64 फीसद पानी गायब हो चुका है, और राजस्थान के 918 कुओं का सव्रेक्षण करने से पता चला कि 59 फीसद पानी कुओं में नहीं है। देश का हर भू-भाग पानी के लिए तरस रहा है।
दरअसल, जो विकास हम कर रहे हैं, उसमें बहुत सारी खामियां हैं-जैसे वनों की कटाई का होना। आप विकास के लिए वन तो काट रहे हैं पर उतने वृक्ष नहीं उगा रहे हैं, जिससे प्रकृति में जलवायु का तारतम्य नहीं बन पा रहा है। एकपक्षीय विकास ही हो रहा है जबकि हमें मौसम को नियंत्रित करने के लिए देश के पर्वतीय क्षेत्र में वनों का संरक्षण और तेजी से करना होगा क्योंकि वन ही भूमि के कटाव को रोक सकते हैं। वृक्षों की जड़ें ही मिट्टी को पहाड़ों में बांध कर रख सकती हैं। छोटी-छोटी वनस्पतियां भी मिट्टी को पहाड़ों में रोके रख सकती हैं। पूरे हिमालयी क्षेत्र के नियोजन की बहुत आवश्यकता है। ऐसा न होने से ग्लेशियर भी तेजी से पिघल रहे हैं। ये ग्लेशियर ही नदी के प्रवाह को बनाए हुए हैं। देखने में आ रहा है कि नदियों के उद्गम स्थल पीछे खिसकते जा रहे हैं। गोमुख को देखने से हमें यह महसूस हुआ। पहली बार जब हम गोमुख की यात्रा पर गए थे, तब उद्गम नीचे ही था। जब दूसरी बार जाना हुआ तो भागीरथी का उद्गम लगभग एक किमी. पीछे तक खिसक चुका था यानी उतनी बर्फ पिघल कर गंगा सागर में पहुंच चुकी थी। इसके साथ ही भागीरथी के उद्गम से ही रेतीला पानी लगातार बहता है, सिर्फ सर्दियों के मौसम को छोड़ कर। यह तो सिर्फ एक नदी का उदाहरण है। पूरे हिमालयी क्षेत्रों से बहने वाली हर नदी की यही स्थिति है।
ब्रह्मपुत्र नदी को ही देख लीजिए, यह हर समय असम को बाढ़ में डुबोए रहती है। हर नदी की दशा आज कमोबेश यही है। कहने का आशय है कि नदियों के उद्गमों में ज्यादा छेड़छाड़ नहीं होनी चाहिए तभी पानी के स्रोत जिंदा रह पाएंगे। नदी पानी सिर्फ बहाकर ही सागर में नहीं ले जाती, वह अपने आसपास के भू-भाग की मिट्टी को भी ले जाती है। जिस मिट्टी को बनाने में प्रकृति को हजारों वर्ष लगते हैं, उस उर्वरक मिट्टी का क्षरण तेजी से हो रहा है। टिहरी के बांध को ही देख लीजिए, उसमें लगातार गाद भर रही है। इसकी उम्र जो सौ साल की होगी तो हिमालय से बह कर आ रही गाद से यह झील अपने समय तक नहीं जिंदा रह पाएगी। जल्दी ही यह गाद भरकर झील को समाप्त कर देगी। तब बांध के पानी की कमी खलेगी। बिजली मिलना भी टिहरी से मुश्किल हो जाएगा। भू-जल स्तर को बनाए रखने के लिए उपाय करने होंगे। यह स्थिति टिहरी जैसे देश के कई बांधों की है, जो नदियों के मुहानों पर बने बांध हैं। उसमें मिट्टी का भराव बड़ी तेजी से हो रहा है, इसके लिए सही नियोजन की आवश्यकता है। हिमालयी नदियां तब तक हमारा साथ देंगी, जब तक ग्लेशियर हैं।
जिस दिन ग्लेशियर पूरे पिघल जाएंगे, उस दिन हिमालय की जलवायु पूरी तरह से बिगड़ जाएगी, उसका असर सीधा देश की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा। यह तो हिमनद से निकलने वाली नदियों के कारण होगा। देश के अन्य भागों से निकलने वाली नदियों का जल स्तर भी गिरेगा। उसका कारण वष्रा समय पर न होना होगा जो हिमालय के कारण ही होगा। आगे स्थिति और भी भयानक हो सकती है, जब समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा। इस जल स्तर के बढ़ने का कारण हिमनदों का पिघलना है। आने वाले समय में समुद्र के पास बसे शहर पानी में डूब सकते हैं, और समुद्र धीरे-धीरे अधिकांश शहरों और भूमि को लील जाएगा। इसके प्रमाण मिलने शुरू हो गए हैं।
आज जो स्थिति भू-जल स्तर गिरने की हो रही है, उससे देश की कृषि पैदावार प्रभावित होगी, अभी तो महसूस नहीं हो रहा, पर आने वाले समय में कई संकटों से देश को गुजरना पड़ सकता है। उन संकटों में यदि अन्न संकट आएगा तो देश की सवा सौ करोड़ से अधिक जनता का पेट कैसे भरेगा? इसलिए सही नियोजन की आवश्यकता है जिसमें पानी, मिट्टी और वनों को संरक्षित करने की जरूरत है। वष्रा जल को बहने से रोकने के लिए वाटर हाव्रेस्टिंग की भी आवश्यकता है। भू-जल स्तर को बनाए रखने के लिए यह हाव्रेस्टिंग प्रणाली सहायक हो सकती है, ताकि आपातकाल में भू-जल स्तर को रोकने में यह काम कर सके। ऐसे वन उगाने की जरूरत है, जो जलवायु चक्र को नियंत्रित कर सकें। साथ ही, सभी जीव-जंतुओं को रहने का स्थान मिल सके। देखने में आ रहा है कि जंगली जानवर भी शहरों की तरफ आ रहे हैं, उसकी वजह भी अनियोजित वनों की स्थिति है। एक ऐसी इको प्रणाली की जरूरत है, जो देश की जलवायु को अनुकूल बनाने में सहायक हो सके।