निकहत जरीन तमाम मुश्किलों को पार करते हुए इस्तांबुल (तुर्की) में हुई विश्व बॉक्सिंग चैंपियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल करने में सफल हो गइ। उन्होंने फ्लाईवेट वर्ग में थाईलैंड़ की मुक्केबाज जुटामास जितपोंग को हराकर यह स्वर्ण पदक हासिल किया। वह यह स्वर्ण जीतने वाली पांचवीं भारतीय महिला मुक्केबाज हैं। उनसे पहले एमसी मैरीकॉम (छह स्वर्ण)‚ सरिता देवी‚ आरएल जेनी और केसी लेखा हैं। मैरीकॉम ने आखिरी बार २०१८ में स्वर्ण पदक जीता था‚ उसके बाद वह यह सम्मान पाने वाली निकहत पहली भारतीय हैं।
निकहत ने स्वर्ण पदक जीतने के बाद कहा कि अब उनकी निगाह २०२४ के पेरिस ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतने पर है। वह अभी इस साल होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स में और फिर एशियाई खेलों में इसी ५२ किग्रा वर्ग में चुनौती पेश करेंगी। वैसे एशियाई खेल स्थगित हो गए हैं और उनकी नई तारीखों की अभी घोषणा नहीं हुई है। असल में ओलंपिक खेलों में निकहत में जिस भार वर्ग में स्वर्ण पदक जीता है‚ वह नहीं होगा। इसके लिए उन्हें या तो ५० किग्रा या ५४ किग्रा वर्ग में भाग लेना होगा। वह यदि ५० किग्रा वर्ग में भाग लेती हैं तो उनका एक बार फिर अपनी आदर्श मैरीकॉम से टकराव हो सकता है। उन्होंने कहा कि पेरिस ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतना मेरा सपना है और उसके रास्ते में जो भी चुनौती आएगी‚ उसे मैं पार करूंगी। अभी पिछले साल हुए टोक्यो ओलंपिक में भी उनका मैरीकॉम से टकराव हो चुका है।
भारतीय बॉक्सिंग फेड़रेशन ने ओलंपिक क्वालिफिकेशन में मैरीकॉम को भेजने का तय किया था‚ लेकिन निकहत ने खेल मंत्री से इसके लिए ट्रायल कराने को कहा था। ट्रायल होने पर निकहत अनुभव की कमी की वजह से आसानी से हार गइ थी। इस दौरान मैरीकॉम ने जीत के बाद निकहत से हाथ तक नहीं मिलाया था। यह निकहत के लिए निश्चय ही दिल तोड़़ने वाला था। निकहत के लिए इस झटके से उबरना आसान नहीं था। वह इसके बाद अपने घर चलीं गइ और उसी दौरान कोविड़ की वजह से लॉकड़ाउन भी लग गया था। उन्होंने घरवालों के साथ रहकर अपने को इस झटके से उबारा। निकहत की मां जो शुरू में उसके बॉक्सिंग को अपनाने की पक्षधर नहीं थीं‚ क्योंकि उन्हें लगता था कि उसके मुक्केबाज बन जाने पर उससे शादी कौन करेगा। उसी मां ने ट्रायल में हार से लगे झटके से उबारने में अपनी बेटी की मदद की। वह भारतीय बॉक्सिंग टीम के प्रशिक्षण शिविर में लौटकर एक बार फिर तैयारियों में जुट गइ। अब वह अपने एक सपने को पूरा करने में सफल हो गइ हैं। यह सही है कि उन्होंने जिस तेजी से इस सपने को पूरा करने की सोची थी‚ उसे पूरा होने में काफी समय लग गया‚ क्योंकि वह महान मुक्केबाज मैरीकॉम के वर्ग में हैं। निकहत ने मात्र १४ साल मी उम्र में विश्व यूथ बॉक्सिंग चैंपियनशिप में खिताब जीत लिया था और इसके ११ साल बाद वह विश्व चैंपियनशिप में स्वर्ण जीत पाइ हैं‚ लेकिन लगता है कि उनके कॅरियर ने अब उड़़ान पकड़़ ली है। निकहत जरीन की राह वैसे भी आसान नहीं रही है। निजामाबाद में फुटबाल और क्रिकेट खेले पिता मोहम्मद जमील के घर में जन्म लेने वाली निकहत ने पहले एथलेटिक्स को अपनाया। इसकी वजह उनके पिता चाहते थे कि उनकी चार लड़़कियों में से कोई एक खेलों को अपनाए और इस कारण ही निकहत ्प्रिरंटर बन गइ। उनकी दो बड़़ी बहनें ड़ाक्टर हैं और छोटी बहन बैड़मिंटन खिलाड़़ी है।
उन्होंने प्रिरंट दौड़़ में राज्य स्तर पर दोनों स्पर्धाओं को जीत भी लिया‚ लेकिन तभी उनके अंकल ने निकहत को बॉक्सिंग अपनाने की सलाह दी और वह बॉक्सर बन गई‚ लेकिन उनकी सोसायटी में लड़़कियों का बॉक्सर बनना सभी के लिए पचाना आसान नहीं था। कुछ रिश्तेदारों ने तो यह तक कहा कि वह यदि इस खेल को अपनाएगी तो उससे शादी कौन करेगाॽ वह दौर था‚ जब मुस्लिम समाज के लोग लड़़कियों को खेलों में भेजना पसंद नहीं करते थे‚ क्योंकि उन्हें लगता था कि इनमें छोटे कपड़े़ पहनने पड़़ते हैं‚ जो सही नहीं है। लेकिन पिता ने समाज की आशंकाओं और दकियानूसी सोच की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। वह निकहत का पूरी तरह समर्थन करते रहे। जमील कहते हैं‚ ‘वर्ल्ड़ चैंपियनशिप में गोल्ड़ जीतना एक ऐसी कामयाबी है‚ जो मुस्लिम ही नहीं देश की हर लड़़की को कामयाबी हासिल करने क लिए प्रेरित करेगी। लड़़का हो या लड़़की सभी को अपनी राह खुद बनानी पड़़ती है और निकहत ने भी ऐसा ही किया है।’
टोक्यो ओलंपिक में भारतीय महिला मुक्केबाजों से मैरीकॉम की अगुआई में शानदार प्रदर्शन की उम्मीद की जा रही थी‚ लेकिन महिला मुक्केबाजों ने देशवासियों को निराश कर दिया था। सिर्फ लवलीन बोरगेहन ही कांस्य पदक जीत सकीं थीं‚ मगर अब लगता है कि निकहत जरीन देशवासियों के सोने के तमगे की उम्मीदों को जरूर पूरा कर देंगी। अभी उनके पास ओलंपिक में किस भार वर्ग में भाग लें‚ फैसला लेने के लिए समय है‚ क्योंकि अभी तो क्वालिफिकेशन कैलेंड़र की भी घोषणा नहीं की गई है। वह कॉमनवेल्थ गेम्स में भाग लेने के बाद इस बारे में फैसला कर सकती हैं।
जब हम ‘भारत के लोग’ अपना नया स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं‚ बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध कविता का वह सवाल पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गया है‚ जिसमें पहले वे पूछते ैहैंः किसकी है जनवरी‚ किसका अगस्त हैॽ बाबा अपने सवाल को कौन त्रस्त‚ कौन पस्त और कौन मस्त तक भी ले जाते हैं‚ तो लगता है कि उन्हें आज की तारीख में हमारे सामने उपस्थित विकट हालात का पहले से इल्म था।
इन हालात की विडम्बना देखिएः एक ओर तो अब हमारे नेता देश को समता‚ स्वतंत्रता और न्याय पर आधारित संपूर्ण प्रभुत्व–संपन्न‚ समाजवादी‚ पंथनिरपेक्ष‚ लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने का २६ नवम्बर‚ १९४९ को अंगीकृत‚ अधिनियमित और आत्मा संकल्प को संविधान की पोथियों में भी चैन से नहीं रहने देना चाहते; और दूसरी ओर गैर–बराबरी का भस्मासुर न सिर्फ हमारी बल्कि दुनिया भर की जनतांत्रिक शक्तियों के सिर पर अपना हाथ रखकर उन्हें धमकाने पर आमादा है कि लोकतंत्र की अपनी परिकल्पनाओं को लेकर किसी मुगालते में न रहें।
अमीरी का जाया यह असुर उनके सारे के सारे मूल्यों को तहस–नहस करने का मंसूबा लिए उन्मत्त होकर आगे बढ़ा आ रहा है‚ और आरजू या मिनती कुछ भी सुनने के मूड में नहीं है। अभी जब हम अपना पिछला गणतंत्र दिवस मनाने वाले थे‚ गरीबी उन्मूलन के लिए काम करने का दावा करने वाले ऑक्सफेम इंटरनेशनल ने एक सर्वेक्षण में बताया गया था कि आर्थिक विषमता की‚ जो सभी तरह की स्वतंत्रताओं और इंसाफों की साझा दुश्मन है‚ दुनिया भर में ऐसी पौ–बारह हो गई है कि पिछले साल बढ़ी ७६२ अरब डॉलर की संपत्ति का ८२ फीसदी हिस्सा एक प्रतिशत धनकुबेरों के कब्जे में चला गया है‚ अधिसंख्य आबादी को जस की तस बदहाल रखते हुए। इस संपत्ति के रूप में धनकुबेरों ने गरीबी को सात बार सारी दुनिया से खत्म कर सकने का सार्मथ्य इस एक साल में ही अपनी मुट्ठी में कर लिया तो क्या आश्चर्य कि गरीबों के लिए ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ का अर्थ एक संचार सेवाप्रदाता कंपनी के झांसे का शिकार होना भर हो गया है। तिस पर अनर्थ यह कि ५० प्रतिशत अत्यंत गरीब आबादी को आर्थिक वृद्धि में कतई कोई हिस्सा नहीं मिल पाया है‚ जबकि अरबपतियों की संख्या बढ़कर २‚०४३ हो गई है। इनमें ९० फीसदी पुरु ष हैं यानी यह आर्थिक ही नहीं लैंगिक असमानता का भी मामला है‚ पितृसत्ता के नये सिरे से मजबूत होने का भी। बताने की जरूरत नहीं कि यह अनर्थ भूमंडलीकरण की वर्चस्ववादी नीतियों से पोषित अर्थ नीति का अदना–सा ‘करिश्मा’ है‚ और यह गरीबों के ही नहीं‚ बढ़ते धनकुबेरों के प्रतिद्वंद्वियों के लिए भी हादसे से कम नहीं है क्योंकि इन कुबेरों ने यह बढ़त कठिन परिश्रम और नवाचार से नहीं‚ बल्कि संरक्षण‚ एकाधिकार‚ विरासत और सरकारों के साथ साठगांठ के बूते कर चोरी‚ श्रमिकों के अधिकारों के हनन और ऑटोमेशन की राह चलकर स्पर्धा का बेहद अनैतिक माहौल बनाकर पाई है। निश्चित ही यह इस अर्थनी ति की निष्फलता का द्योतक है क्योंकि इन कुबेरों द्वारा संपत्ति में ढाल ली गई पूंजी अंततः अर्थ तंत्र से बाहर होकर पूरी तरह अनुत्पादक हो जानी है‚ और उसे इस तथ्य से कोई फर्क नहीं पड़ना कि कई अरब गरीब आबादी बेहद खतरनाक परिस्थितियों में भी ज्यादा देर तक काम करने और अधिकारों के बिना गुजर–बसर करने को मजबूर है।
अपने देश की बात करें तो यहां २०१७ में उत्पन्न कुल संपत्ति का ७३ प्रतिशत हिस्सा ही एक प्रतिशत सबसे अमीरों के नाम रहा है। यह विश्वव्यापी औसत ८२ से कम है‚ लेकिन देश की जिस अर्थव्यवस्था के अभी हाल तक ‘दुनिया की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था’ होने का दावा किया जाता रहा है‚ उसमें अमीरों द्वारा सब–कुछ अपने कब्जे में करते जाने की रफ्तार इतनी तेज हो गई है कि २०१६ में ५८ प्रतिशत संपत्ति के स्वामी एक प्रतिशत अमीरों के कब्जे में अब ७३ प्रतिशत संपत्ति है यानी २०१७ में उनकी कुल संपत्ति में २०.७ लाख करोड़ की बढ़ोतरी हुई‚ जो उसके पिछले साल ४.८९ लाख करोड़ रु पये ही थी। चूंकि हमने बेरोकटोक भूमंडलीकरण को सिर–माथे लेकर अनेकानेक विदेशी कंपनियों को देश में कमाया मुनाफा देश से बाहर ले जाने की छूट भी दे रखी है‚ इसलिए विदेशी अरबपतियों को खरबपति बनाने में भी हमारा कुछ कम योगदान नहीं है। ऐसे में यह समझने के लिए अर्थशास्त्र की बारीकियों में बहुत गहरे पैठने की जरूरत नहीं कि यह अमीरी ज्यादा से ज्यादा लोगों को आर्थिक विकास का फायदा देकर यानी ‘सबका साथ‚ सबका विकास’ के नारे को सदाशयता से जमीन पर उतारकर संभव ही नहीं थी।
इसलिए विकास के सारे लाभों को लगातार कुछ ही लोगों तक सीमित रखकर हासिल की गई है। तथाकथित आर्थिक सुधारों के उस मानवीय चेहरे पर अमानवीयतापूर्वक तेजाब डालकर‚ जिसकी चर्चा २४ जुलाई‚ १९९१ को देश में भूमंडलीकरण की नीतियों का आगाज करते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने की थी।
गैर–बराबरी के ये आंकड़े हमारे लिए इस लिहाज से ज्यादा चिंतनीय हैं कि ये हमारे दुनिया का सबसे ‘महान’ जनतंत्र होने के दावे की कनपटी पर किसी करारे थप्पड़ से कम नहीं हैं। इसलिए और भी कि जहां कई अन्य छोटे–बड़े देशों ने भूमंडलीकरण के अनर्थों को पहचानना और उनसे निपटने के प्रतिरक्षात्मक उपाय करना शुरू कर दिया है‚ हमारे सत्ताधीश कतई किसी पुनवचार को राजी नहीं हैं। उन्हें इस सवाल से कतई कोई उलझन नहीं होती कि अगर इस जनतंत्र के सात दशकों का सबसे बड़ा हासिल यह एक प्रतिशत की अमीरी ही है‚ तो बाकी निन्यानवे प्रतिशत के लिए इसके मायने क्या हैंॽ
बड़े–बड़े परिवर्तनों के दावे करके आई नरेन्द्र मोदी सरकार को भी अपने चार सालों में इस अनर्थ नीति को बदलना गंवारा नहीं है। भले ही यह नीति कम से कम इस अर्थ में तो भारत के संविधान की घोर विरोधी है कि यह किसी भी स्तर पर उसके समता के मूल्य की प्रतिष्ठा नहीं करती और उसके संकल्पों के उलट आर्थिक ही नहीं‚ प्राकृतिक संसाधनों के भी अंधाधुंध संकेंद्रण पर जोर देती है। यह सरकार इस सीधे सवाल का सामना भी नहीं करती कि किसी एक व्यक्ति के अमीर बनाने के लिए कितनी बड़ी जनसंख्या को गरीबी के हवाले करना पड़ता है‚ और क्यों हमें ‘ह्रदयहीन’ पूंजी को ब्रह्म और ‘श्रम के शोषक’ मुनाफे को मोक्ष मानकर ‘ह्रदय’ मनुष्य को संसाधन की तरह संचालित करने वाली अर्थव्यवस्था के लिए अनंतकाल तक अपनी सारी लोकतांत्रिक–सामाजिक नैतिकताओं‚ गुणों और मूल्यों की बलि देते रहना चाहिएॽ
एक ओर इन सवालों के जवाब नहीं आ रहे और दूसरी ओर इन्हें पूछने वाले हकलाने लग गए हैं‚ तो साफ है कि हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक विचारों की कमी खतरनाक स्तर तक जा पहुंची है। यह कमी ऐसे वक्त में कोढ़ में खाज से कम नहीं है कि गरीबों को और गरीब और अमीरों को और अमीर बनाने वाली आर्थिक नीति के करिश्मे अब किसी एक देश तक सीमित नहीं हैं। वे सारे लाभों को अमीर देशों के लिए सुरक्षित कर उन्हें और अमीर जबकि गरीब देशों को और गरीब बना रही हैं। एक प्रतिशत लोगों की अमीरी की यह उड़ान हमें कितनी महंगी पड़ने वाली है‚ जानना हो तो बताइए कि गरीबों के लिए इस गैरबराबरी से उबरने की कल्पना भी दुष्कर हो जाएगी तो वे क्या करेंगेॽ