‘लाउड स्पीकर’ क्या है? वह हमारी आवाज को बढाने वाला एक विद्युत संचालित माध्यम है। इसके जरिए हम अपनी आवाज अधिक लोगों तक पहुंचा पाते हैं। इसीलिए लाउड स्पीकर का दूसरा नाम ‘पब्लिक एडेस सिस्टम’ है! इस ‘लाउड स्पीकर’ का भी एक इतिहास है :1861 में जान फिलिप राइस ने टेलीफोन की आवाज को बढ़ाने को लेकर शोध किया तो 1876 में ग्राहम बेल ने आवाज को बिजली के करेंट से सींचकर उसकी वोल्यूम (घोष) को बढ़ाया और इस तरह उस यंत्रा की ईजाद हुई, जिसे आज ‘लाउड स्पीकर’ के नाम से जाना जाता है और जो हमारे आज के निजी और पब्लिक जीवन का अभिन्न हिस्सा बन चुका है! कहने की जरूरत नहीं कि आज इसी के धर्मिक ‘उपयोग’ को लेकर आज देशभर में एक घृणात्मक सांप्रदायिक किस्म का विवाद जारी है।
एक पक्ष कह रहा है कि पहले मस्जिदों के लाउड स्पीकरों को बंद करो/कराओ नहीं तो तो हम भी मंदिरों में लाउड स्पीकर लगाकर अपनी धर्मिक टेक्स्टों का पाठ करेंगे! जबाव में कहा जा रहा है कि मंदिरों में भी तो आरती कीर्तन अखंड पाठ होते हैं तो वो लाउड स्पीकर से प्रसारित होते हैं! उनको हटाओ! लेकिन जब लाउड स्पीकर नहीं था तब भी तो ‘अजान’ होती थी और ‘आरती कार्तन’ होते थे! तब लाउड स्पीकर जरूरी क्यों? इसलिए कि लाउड स्पीकर धर्म स्थल पर लगकर अपने-अपने समुदायों को अपने अपने धर्म में बांधे रखने का माध्यम बन चला है! इसी तरह यह मुहल्ले का मीडियम भी बन चला है। यह गली-सड़क का यानी ‘पब्लिक प्लेस’ की आमने सामने की स्पर्धात्मक ‘धर्मिक सांस्कृतिक राजनीतिक’ का मीडियम भी बन चला है!
लाउड स्पीकरों के ऐसे शोर भरे उपयोग को लेकर बड़ी अदालत ने 2005 में व्यवस्था दी थी कि रात के दस बजे से लेकर सुबह छह बजे तक सीमित वोल्यूम में बजना चाहिए, आदि इत्यादि! लेकिन तब किसी सरकार ने इस आदेश का पालन नहीं किया क्योंकि मामला सिर्फ ‘वोल्यूम’ का नहीं था न है बल्कि ‘वोल्यूम’ की ‘राजनीति’ का था और है! ‘वोल्यूम की राजनीति’ का मतलब है : मुहल्ले में बजती हमारी धर्मिक आवाज का दायरा! जिन दिनों कदम-कदम पर धर्मिक स्पर्धात्मक सांस्कृतिक राजनीति का बोलबाला हो उन दिनों तो ‘अपने मुहल्ले के अपने लोगों तक अपनी पहुंच’ की इस तरह की राजनीति की जरूरत और बढ़ जाती है! इसीलिए मस्जिद-मंदिर आज की मुहल्ला सांस्कृतिक राजनीति के नये केंद्र बन चले हैं!
मुहल्ले की राजनीति हमेशा ‘भीड़’ और ‘शोर’ की राजनीति होती है वह ‘जिसका जितना हल्ला उसका उतना पव्वा’ का नियम से काम करती है! लाउड स्पीकर इसमें हमारी मदद करता है! इसीलिए लाउड स्पीकर हमारे लिए हमारी ताकत की आवाज, हमारी पहचान, हमारी अथॉरिटी और हमारे रुतबे की तरह काम करता है। उसका बजना हमारे धर्म की ताकत का बजना है। इसीलिए लाउड स्पीकर को लेकर आए अदालती आदेश अपनी जगह बने रहे और मस्जिदों, मंदिरों और गुरुद्वारों के लाउडस्पीकर अपनी जगह बने रहे! एनजीओ कुछ भी कहे, पढ़े-लिखे भद्रजन कुछ कहें, उनका होना आम आदमी को बहुत नापसंद नहीं है! कारण कि हम एक शोर पसंद समाज हैं, जिस तरह ‘भीड़’ को हम अपनी ताकत समझते हैं ‘शोर’ को भी हम अपनी ताकत समझते हैं!
इसे शादी ब्याह मेले उत्सवों में लाउड स्पीकर के कानफोडू शोर भरे इस्तेमाल में देख सकते हैं! इसे हम टीवी की बहसों को देखकर भी समझ सकते हैं कि जिनमें हर आदमी अपनी आवाज, अपने शोर को ही अपनी ताकत समझता है! यही आवाज की राजनीति है जो लाउड स्पीकर के जरिए शोर बढ़ाकर अपना काम करती है! हमारे चैनलों की बहसों में इस तरह की ‘शोर की राजनीति’ के उदाहरण खूब देखे जा सकते हैं। वहां भी शोर की राजनीति का ही बोल बाला रहता है! यह टीवी की आवाज को जीतना है! आज आप लाख लाउड स्पीकर हटाएं, उनकी आवाजें कम करें, देर-सबेर वे फिर अपनी सी करने लगेंगे क्योंकि इतने धर्म स्थलों के लाउडस्पीकरों को नियंत्रित करना मामूली काम नहीं। क्यों? क्योंकि लाउड स्पीकर गली मुहल्ले की सांस्कृतिक राजनीति का माध्यम हैं। वह गली की राजनीति का, सड़क की राजनीति का माध्यम है। सब अपने अपने धर्मिक संदेशों को जोर-शोर से सब तक पहुंचाना चाहते हैं। यही गली-मुहल्ले की दैनिक सांस्कृतिक राजनीति है! लाउड स्पीकर उस का अनिवार्य हिस्सा है! अपने शोर-पसंद समाज में शोर की राजनीति ही असली राजनीति है!