यों आज के जमाने में कोई जगह छोटी–बडी नहीं कही जा सकती। एक पत्रकार दिल्ली में पिट सकता है तो किसी मामूली से नगर में भी पिट सकता है। फर्क है तो इतना कि दिल्ली वाले की ‘खबर’ आसानी से ‘हल्ला’ बन सकती है‚ और उसके लिए कुछ दल एनजीओ या नेता खडे हो सकते हैं‚ लेकिन किसी मामूली कस्बे की वैसी ही खबर खुद मीडिया से बाहर आती है। उसका कोई ‘फॉलोअप’ नहीं होता। ऐसी खबरें जैसे पैदा होती हैं‚ वैसे ही मर जाती हैं। उन्हें स्थानीय मीडिया भी भूल जाता है और बडे मीडिया के लिए तो ऐसे मुद्दे तब तक होते ही नहीं जब तक ऐसे मुद्दे उनके एजेंडे के अनुकूल न हों या ऊपर से जोर न हो या कहीं कोई चुनाव न हों या कि घटना का कोई जातिगत या धर्मिक मानी न हों। वो एक दल के लिए लाभकारी और दूसरे के लिए हानिकारी न हो।
मध्य प्रदेश के ‘सीधी’ जिले में उन पत्रकारों के साथ थाने में जो किया गया वह हर हाल में निंदनीय है। सोशल मीडिया में वायरल हुए फोटो में कोई आधा दर्जन पत्रकार नंगे खडे हैं‚ उनके तन पर सिर्फ कच्छे हैं। उनका कसूर इतना है कि वे एक प्रोटेस्ट को कवर करने गए थे। हो सकता है कि उन्होंने नारे भी लगाए हों. लेकिन इतने से ‘अपराध’ के लिए इस तरह से उनको नंगा करना कहां का कानून हैॽ ऐसा आचरण तो आज किसी आम अपराधी तक के साथ नहीं किया जा सकता। ऐसा करके वे उनको शमिदा करना चाहते थे‚ उनके स्वाभिमान को तोडना चाहते थे। यही आपत्तिजनक है।
अगर इन पत्रकारों ने कानून तोडा है‚ तो उसके लिए केस करिए‚ सजा दिलवाइए लेकिन इस तरह नंगा करना‚ उनको शर्मसार करना कहां का कानून हैॽ इसका क्या जवाब है। सिर्फ दो पुलिसवालों को ‘सजा’ देने से इस अपराध की भरपाई नहीं की जा सकती। यह बताता है कि छोटे शहरों में पुलिस का आचरण कैसा हैॽ वह जब पत्रकारों के साथ ऐसा कर सकती है तो आम आदमी के संग क्या न करती होगीॽ यह सहज ही सोचा जा सकता है।
हमारा उद्देश्य इस घटना के मूल कारकों की खोजबीन करना नहीं है। वह जांच करने वालों का काम है। वो करे। हम यह भी नहीं पूछ रहे कि इस केस में ‘पहला पत्थर किसने मारा’ और कि जवाब में दूसरे ने क्या किया और बाकियों ने क्या कियाॽ अगर वह कानूनन अपराध है‚ तो करने वाले को सजा मिलनी चाहिए‚ लेकिन अगर इन पत्रकारों ने सिर्फ एक घटना की पैरवी की है‚ या उसकी रिपोटिग का काम किया है‚ और कोई हिंसा नहीं की तो इनके संग किया गया व्यवहार किसी तर्क से भी उचित नहीं कहा जा सकता। पत्रकारों के प्रति ऐसी बदसुलूकी को देखकर एडिटर गिल्ड तक ने आकोश जताया है।
देखने की बात है कि इस प्रसंग में आगे क्या होता है और इन पत्रकारों को न्याय मिलता है कि नहींॽ आगे ऐसी घटनाएं न दोहराई जाएं‚ इसके लिए जरूरी है कि हम आज के पत्रकार तेजी से बदलते समाज और मीडिया की नई चुनौतियों को समझें ताकि ऐसा किसी के साथ न हो। इसके लिए हमें मीडिया की ‘प्रकृति’ को समझना होगा और सोशल मीडिया की प्रकृति को भी समझना होगा और दोनों के बीच ‘घालमेल’ करने से बचना होगा।
कहना न होगा कि सोशल मीडिया ने हमें कुछ इस तरह से आजाद किया है कि हम ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और ‘आवारगी’ के फर्क को भूलने लगे हैं‚ और शब्द की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए भी अपने ही शब्दों की ‘शक्ति’ को भूल जाते हैं। प्रिंट मीडिया व चैनलों की भाषा किसी हद तक ‘अनुशासित’ व ‘संपादित’ भाषा होती है। वह किसी हद तक ‘तथ्य सम्मत’ होती है। फिर भी वहां इस बात का ख्याल रखा जाता है कि उस भाषा से किसी की ‘निजता’ को‚ उसके ‘स्वत्व’ या ‘व्यक्तित्व’ को चोट न पहुंचे‚ लेकिन सोशल मीडिया की भाषा ऐसी अनुशासित या संपादित नहीं होती। उसका उपयेाग करने वाले व्यक्ति को ही अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ बनानी होती है‚ लेकिन बहुत से लोग अपनी ‘लक्ष्मण रेखा’ बनाना या तो भूल जाते हैं या जान–बूझकर नहीं बनाते। सोशल मीडिया आदमी को सीधे ‘खुदा’ समझने की गलतफहमी में रहने लगता है। वह सोचता है कि ‘उसे चाहे जब‚ चाहे जो’ कहने का लाइसेंस हासिल है‚ और उसका कोई कुछ नहीं बिगाड सकता। और यहीं वह ‘शिकार’ बन जाता है। ध्यान रहे छोटे शहरों की पत्रकारिता की चुनौतियां अलग हैं। बडे नगरों की अलग। सब कुछ आपकी ताकत के हिसाब से चलता है। इसलिए आत्मानुशासन ही सबसे बडा कवच है।