दिल्ली एनसीआर में इस समय करीब 1.01 लाख फ्लैट बिना बिके खाली पड़े हैं। संपत्ति सलाहकार कंपनी प्रॉपटाइम के अनुसार इन फ्लैटों की बिक्री में ६ वर्ष से ज्यादा का समय लगेगा। कई दशकों में होम लोन की दरें सबसे निचले स्तर पर हैं। ऐसे में एक लाख से अधिक फ्लैटों का बिना बिके रहना‚ मन में कई सवाल खड़े करता है। कई बिल्डर फ्लैटों की बिक्री में तीव्रता लाने के लिए कई ऑफर भी दे रहे हैं‚ फिर भी यह स्थिति क्यों बनी हुई हैॽ
रेटिंग एजेंसी इक्रा का कहना है कि आम्रपाली‚ जेपी‚ सुपरटेक और लॉजिक्स जैसे बड़े बिल्डरों के खिलाफ अदालत में चल रहे कानूनी मामलों के कारण ग्राहकों का भरोसा बिल्डरों पर बन नहीं पा रहा है। बिल्डरों ने भी इस प्रतिकूल परिस्थिति में अपनी साख में वृद्धि के लिए कोई कदम नहीं उठाया है। बड़े बिल्डरों के डिफॉल्टर होने से इस क्षेत्र में एनबीएफसी से आसानी से कर्ज मिलना भी कठिन हो गया है। बड़े डवलपर्स के डिफॉल्ट की वजह से दिल्ली एनसीआर में छोटे और स्थानीय बिल्डर सामने आ रहे हैं। इन नये बिल्डर्स पर भी लोग भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। नये बिल्डरों को अपने विश्वसनीयता के लिए न सिर्फ आवासीय परियोजनाओं को समय पर पूरा करने का प्रयास करना चाहिए‚ बल्कि बेहतर गुणवत्ता का भी ध्यान रखना होगा। रेरा अर्थात रियल स्टेट (रेग्युलेशन एंड डवलपमेंट) एक्ट–२०१६ आने के बाद लग रहा था कि रियल स्टेट क्षेत्र में उपभोक्ताओं के अधिकारों को संरक्षित किया जा सकेगा। रेरा से उम्मीद थी कि इसके क्रियान्वित होने के बाद बिल्डर घर बनाकर खरीददार को सौंपने में देरी नहीं करेंगे। यह भी उम्मीद जगी थी कि ग्राहकों को घर उसी गुणवत्ता का मिलेगा‚ जैसा कि खरीदने के पहले उन्हें बताया गया था। रेरा २६ मार्च‚ २०१६ को नोटिफाई हुआ और १ मई‚ २०१७ को अमल में लाया गया। इस तरह रेरा को लागू हुए लगभग ५ वर्ष हो गए‚ फिर भी यह कानून बिल्डरों पर नकेल कसने में विफल रहा। इस विफलता के कारण रियल स्टेट सेक्टर के प्रति लोगों का भरोसा कम हुआ। दिल्ली एनसीआर सहित संपूर्ण देश में लाखों लोग ऐसे हैं‚ जिन्होंने घर खरीदने के लिए अपने जीवन की संपूर्ण पूंजी लगा दी है‚ फिर भी वर्षों से सपनों के घर के इंतजार में ही हैं। अनफिनिश्ड रेजिडेंशियल रियल स्टेट प्रोजेक्ट्स में निर्माण रु के होने की वजह या तो रियल स्टेट कंपनियों पर चल रहे मुकदमे हैं‚ या फिर उनका दिवालिया होना है। डवलपर्स अब भी एक प्रोजेक्ट से दूसरे प्रोजेक्ट में पैसा डायवर्ट करते रहते हैं। ऐसा तब तक चलता रहता है‚जब तक उनके सिस्टम में धन की कमी नहीं हो गई हो। इस मामले में रेरा ने स्थिति को संभालने के स्थान पर खराब करने का ही काम किया है।
रेरा में एक प्रोजेक्ट से हासिल किए फंड़ को बड़े पैमाने पर एस्क्रो खाते में रखने का प्रावधान है‚ जिससे बिल्डर फंड़ को उसी प्रोजेक्ट पर खर्च करे परंतु बिल्डरों के मनमानी के कारण ये प्रावधान कागजी ही साबित हो रहे हैं। दिल्ली एनसीआर में काफी बिल्डर ऐसे हैं‚ जो फ्लैट खरीददारों को फ्लैट पर कब्जा तो दे देते हैं‚ लेकिन लोगों के घर की रजिस्ट्री नहीं हो पाती है। इसका मुख्य कारण यह है कि बिल्डर प्राधिकरण को बकाया पैसा जमा नहीं करता है‚ और पैसा जमा नहीं होने के कारण प्राधिकरण द्वारा बिल्डर को कंपलीशन सर्टिफिकेट नहीं मिलता है। बिना कंपलीशन सर्टिफिकेट के फ्लैट का रजिस्ट्री संभव नहीं। इस कारण फ्लैट खरीददार सारा पैसा चुकाने के बावजूद अपने घर का मालिक नहीं बन पाता। नोएडा और ग्रेटर नोएडा में ही करीब १.२५ लाख लोग सारा पैसा चुकाकर भी घर के मालिक नहीं बन पाए हैं। इस समस्या का भी सरकार को शीघ्र नीतिगत समाधान खोजना चाहिए।
सरकार ने रियल स्टेट में सुधार के लिए आईबीसी (दिवालिया कानून) को भी संशोधित किया परंतु आईबीसी समाधान भी काफी स्लो है। इसकी वजह है कि इसमें होम बायर्स और फाइनेंसर को मिलकर कंपनी के नये मालिक का फैसला करना होता है‚ लेकिन उनके बीच हितों का टकराव रहता है। होमबायर्स अपने फ्लैट का जितना जल्द हो सके‚ पजेशन चाहते हैं। बैंक और वित्तीय संस्थान घाटे को सीमित करना चाहते हैं‚ और उन समाधान आवेदकों प्राथमिकता देते हैं‚ जो उन्हें सबसे अच्छे सौदे की पेशकश करते हैं। सरकार ने १.१ अधिक यूनिट के लक्ष्य को पूरा करने के लिए लास्ट माइल फाइनेंस प्रदान करने के लिए ‘स्वामी’ नामक २५ हजार करोड़ का फंड़ स्थापित किया है परंतु जमीनी स्तर पर ‘स्वामी’ फंड़ भी काम नहीं कर पा रहा। फंड़ में केंद्र सरकार ने शर्तं काफी रख दी हैं‚ जिससे अधिकांश बिल्डर अपात्र हो जाते हैं। इन समस्याओं के समाधान के लिए नये हाईब्रिड मॉडल की आवश्यकता है। मौजूदा डवलपर्स घर को डिलीवर करने में विफल हो जाते हैं‚ तो कुछ हस्तक्षेप की जरूरत है‚ ताकि एक नया प्रबंधन आ सके और प्रोजेक्ट को पूरा कर सके। सरकारों और बैंकों को सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि बातचीत के साथ ऋण निपटान सहित फंड़ का पर्याप्त फ्लो हो। स्थानीय अधिकारियों को अपने कुछ दावों को कम करने की जरूरत है‚ क्योंकि स्थानीय करों पर जुर्माना अक्सर मूल डिफॉल्ट राशि से कई गुना बढ़ जाता है। सरकार को यह भी समझना चाहिए कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व के ब्याज दरों में वृद्धि के बाद आरबीआई को भी भविष्य में ब्याज दरों में वृद्धि करनी होगी जिससे भारत में सस्ते होम लोन का युग भी समाप्त होगा और तब इस क्षेत्र के लिए चुनौतियां और ज्यादा होंगी।