बिहार 110 साल का हो गया है. 22 मार्च, 1912 को बंगाल प्रोविंस से अलग होकर बिहार एक राज्य बना था. उस समय ओड़िशा भी बिहार का ही हिस्सा था. 1936 में बिहार और ओड़िशा को दो अलग-अलग राज्यों के रूप में दर्जा मिला. इन 110 वर्षों के सफर में चाहे राजनीति का क्षेत्र हो या समाज सुधार आंदोलन, कई ऐसे टर्निंग प्वाइंट आये, जिसने बिहार को देश-दुनिया में एक नये रूप में जगह दिलायी. वर्ष 2000 में एक बार फिर बिहार का भूगोल बदल गया, जब झारखंड एक नया प्रदेश बना.
आज बिहार दिवस है, आज के दिन ही बिहार का अस्तित्व दुनिया मे आया था। 22 मार्च 1912 में संयुक्त प्रांत बंगाल से अलग होकर बिहार, राज्य के रूप में स्वतंत्र अस्तित्व में आया था। 1857 के जब प्रथम सिपाही विद्रोह में बिहार के बाबू कुंवर सिंह बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था और अंग्रेजो ऐसे और विद्रोह का खतरा लगाने लगा तो उन्होंने बंगाल प्रेसिडेंसी से बिहार को अलग करने का निर्णय लिया। माना जाता है कि बंगाल से बिहार को अलग कराने में वीर कुंवर सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। साल 1912 में बंगाल का विभाजन के बाद बिहार नाम का राज्य स्थापित हुआ था, जिसके बाद ये राज्य अस्तित्व में आया था। इस राज्य का नाम बिहार कैसे पड़ा तो, इसके पीछे का इतिहास ये है कि बिहार नाम बौद्ध विहारों के विहार शब्द से हुआ है। जिसे विहार के स्थान पर इसके बिगड़े हुए रूप बिहार से संबोधित किया जाता है।
बंगाल विभाजन के बाद बिहार की राजधानी पटना को बनाया गया। सारी गतिविधियों का केंद्र पटना हो गया। जब 1942 में महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो और असहयोग आंदोलन चलाए तो उसमें भी यहां के लोग ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और 1946 में बिहार की पहली कैबिनेट बनी जिसमें श्री कृष्ण सिंह प्रथम प्रधानमंत्री बने और अनुग्रह नारायण सिन्हा प्रथम उपप्रधानमंत्री बनाये गए। तब प्रधानमंत्री बनाये जाने की प्रथा थी। आजादी के बाद मुख्यमंत्री नाम दिया गया।
इतिहास विषय के स्कॉलर कुमार राघवेंद्र बताते है कि 22 मार्च 1912 को ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर लार्ड हार्डिंग्स ने सम्राट जार्ज पंचम के निर्देश पर बंगाल, बिहार, और उड़ीसा और असम प्रांत के गठन की अधिसूचना जारी की थी। उन्होंने बताया कि सर चार्ल्स स्टुअर्ट वेली को संयुक्त बिहार का प्रथम लेफ्टिनेंट गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। उस समय बिहार को पांच प्रमंडलों में बांटा गया। ये प्रमंडल भागलपुर, पटना, तिरहुत, छोटानागपुर और उड़ीसा प्रमंडल थे।
कुमार राघवेंद्र बताते है कि बिहार जो वर्तमान रूप में है ये ऐसा नही था, इसको तीन बार बांटा गया है। पहली बार 1 अप्रैल 1936 को उड़ीसा प्रमंडल को बिहार से अलग कर उड़ीसा नाम के राज्य का गठन किया गया। दूसरी बार 01 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन की सिफारिश पर बिहार के पुरुलिया जिला और पूर्णिया जिले के इस्लामपुर को पश्चिम बंगाल में मिला दिया गया। फिर तीसरी बार 15 नवंबर 2000 को बिहार के खनिज एवं वन संपदा से संपन्न 18 जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य बनाया गया। आज का बिहार अपने सबसे छोटे रूप में है।
जब 2005 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब बिहार में सत्ता संभाली तो उन्होंने 22 मार्च को बिहार दिवस मनाने को ऐलान किया। इसका मुख्य मकसद अपने राज्य की विशिष्टताओं की दुनियाभर में ब्रांडिंग और बिहारी होने पर गर्व करना था। बिहार दिवस समारोह की शुरुआत 2008 में पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में एक दिवसीय उत्सव के रूप में हुई थी। इसका विस्तार 2009 से राज्यभर में हुआ। गांधी मैदान में तीन दिवसीय मुख्य समारोह तभी आरंभ हुआ। 2012 में 100वें स्थापना दिवस पर पटना सहित पूरे राज्य में भव्य समारो कराए गए। पटना के गांधी मैदान सहित अन्य भवनों को दुल्हन की तरह सजाया गया था। तीन दिनों के इस कार्यक्रम में पटना दुल्हन की तरह सजी थी। आज 110 साल हो गए बिहार को स्थापित हुए, इस दिन को महोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है।
आजादी की लड़ाई
अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हुए विद्रोह में बिहार अगुआ रहा. देश की आजादी के लिए 1947 तक जितने भी आंदोलन हुए, बिहार के लोगों ने उसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. सैकड़ों लोग जेल गये, हजारों अंग्रेजों की प्रताड़ना के शिकार हुए.
1917 में गांधी जी का आना
महात्मा गांधी का चंपारण आना और यहां के निलहे किसानों की समस्या को उठाना इतिहास की एक युगांतरकारी घटना बन गयी. चंपारण की घटना ने गांधी जी को महात्मा बना दिया और पूरे देश की निगाहें उनकी ओर टिक गयीं.
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन
महात्मा गांधी ने 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया था. बिहार में भी आंदोलन की आग फैली सचिवालय पर तिरंगा फहराने के लिए निकले छात्रों को अंग्रेजों की गोली खानी पड़ी.
1967 में संविद सरकार
बिहार में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी. पांच मार्च, 1967 को महामाया प्रसाद सिन्हा इस सरकार में मुख्यमंत्री बने. इसे संविद सरकार का नाम दिया गया.
1974 में छात्र आंदोलन
1974 में बिहार से निकली छात्र आंदोलन की हवा गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश होते हुए समूचे देश में फैल गयी. 1975 में देश में इमरजेंसी लागू कर दी गयी. लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने छात्र आंदोलन को नेतृत्व दिया था.
1990 में सत्ता में हुआ बदलाव
लंबी कांग्रेसी हुकूमत के बाद 1990 के मार्च में जनता दल के मुख्यमंत्री के तौर पर लालू प्रसाद ने शपथ ली. मंडल-कमंडल का मुद्दा राजनीति के केंद्र में था. भाजपा नेता एलके आडवाणी की समस्तीपुर में गिरफ्तारी के बाद लालू प्रसाद नये मुहावरे का प्रतीक बन गये.
2000 में बिहार बंटा झारखंड बना
15 नवंबर, 2000 को बिहार का भूगोल तब बदल गया, जब दक्षिण बिहार के 18 जिलों को अलग करते हुए झारखंड अलग प्रदेश बना. ज्यादातर कल-कारखाने और खनिज भंडार का इलाका झारखंड में चला गया.
2005 में नीतीश की सरकार
राजद के 15 साल के शासन के बाद 2005 के नवंबर में नीतीश कुमार के नेतृत्व में नयी सरकार बनी. 2006 में इस सरकार ने सबसे प्रभावी और असरदार कानून बनाया. यह पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण से जुड़ा कानून था.
2010 में भ्रष्टाचार पर वार
2010 में जब नीतीश कुमार की अगुआई में दूसरी बार सरकार बनी तो भ्रष्ट लोगों की संपत्ति जब्त कर उसमें स्कूल खोले जाने का अहम फैसला लिया गया. अवैध तरीके से बनाये गये कई अधिकारियों के आलीशान मकानों में सरकारी स्कूल खोले गये.
2016 में पूर्ण शराबबंदी
पांच अप्रैल, 2016. देश और बिहार के लिए ऐतिहासिक दिन रहा. बिहार सरकार ने राज्य में पूर्ण शराबबंदी कानून को लागू कर दिया. पूरे देश में इस प्रकार शराबबंदी कानून प्रभावी करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना. 21 जनवरी, 2017 को विश्व की सबसे लंबी मानव शृंखला बिहार में बनी. करीब तीन करोड़ से अधिक लोगों ने 11,400 किमी लंबी मानव शृंखला बनायी.
सच्चिदानंद सिन्हा ने शुरू की निर्णायक लड़ाई
1900 के बाद इस मांग को बल मिला जब सच्चिदानंद सिन्हा जैसे नौजवान बिहारी शब्द को लेकर पहचान की लड़ाई शुरू की. इसका ही एक प्रतिफलन बिहार का बंगाली विरोधी आन्दोलन था, जो बिहार के प्रशासन और शिक्षा के क्षेत्र में बंगालियों के वर्चस्व के विरोध के रूप में उभरा. उस वक्त बिहार का नौजवान बिहार के स्टेशन पर ‘बंगाल पुलिस’ का बैज लगाकर ड्यूटी देता था. आम तौर पर यह कहा जाता है कि ब्रिटिश सरकार ने बंगाल के टुकड़े करके उभरते हुए राष्ट्रवाद को कमजोर करने का प्रयास किया, लेकिन बिहार को बंगाल से अलग लेने का निर्णय के पीछे का कारण बिहार की उपेक्षा थी. एल. एस. एस ओ मैली से लेकर वी सी पी चौधरी तक विद्वानों ने बिहार के बंगाल के अंग के रूप में रहने के कारण बढ़े पिछड़ेपन की चर्चा की है. इस चर्चा का एक सुंदर समाहार गिरीश मिश्र और व्रजकुमार पाण्डेय ने प्रस्तुत किया है. सबने माना है कि बिहार का बंगाल से अलग किए जाने का कोई बड़ा विरोध बंगाल में नहीं हुआ. यह लगभग स्वाभाविक सा ही माना गया.
बिहार को लेकर लापरवाह थे अंग्रेज, पिछड़ता जा रहा था इलाका

बिहार के अलग प्रांत के रूप में स्थापित होने से पहले अंग्रेज़ भी बिहार के प्रति लापरवाह थे. यह इलाका उद्योग धंधे से लेकर शिक्षा, व्यवसाय और सामाजिक क्षेत्र में लगातार पिछडता रहा. दरभंगा महाराज को छोड़कर बिहार के किसी बड़े जमींदार को अंग्रेज महत्त्व नहीं देते थे. स्वाभाविक था कि बिहार को बंगाल के भीतर रहकर प्रगति के लिए सोचना संभव नहीं. स्कूल से लेकर अदालत और किसी भी सरकारी दफ्तरों की नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व बिहारियों को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया था. बिहार बन्धु ने तो यहां तक लिख दिया कि बंगाली ठीक उसी तरह बिहारियों की नौकरियां खा रहे हैं, जैसे कीडे खेत में घुसकर फसल नष्ट करते हैं. सरकारी मत भी यही था कि बंगाली बिहारियों की नौकरियों पर बेहतर अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण कब्ज़ा जमाए हुए हैं. 1872 में, तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर जॉर्जे कैम्पबेल ने लिखा कि हर मामले में अंग्रेजी में पारंगत बंगालियों की तुलना में बिहारियों के लिए असुविधाजनक स्थिति बनी रहती है.
बंगालियों का था प्रशासन पर कब्जा
आँकड़ों के आधार पर कहा जा सकता है कि उस वक्त बिहार के लगभग सभी सरकारी नौकरियां बंगाली के हाथों में थी. बडी नौकरियाँ तो थी ही छोटी नौकरियों पर भी बंगाली ही हैं. जिलेवार विश्लेषण करके पत्र ने लिखा कि भागलपुर, दरभंगा, गया, मुजफ्फरपुर, सारन, शाहाबाद और चम्पारन जिलों के कुल 25 डिप्टी मजिस्ट्रेटों और कलक्टरों में से 20 बंगाली हैं. कमिश्नर के दो सहायक भी बंगाली हैं. पटना के 7 मुंसिफों ( भारतीय जजों) में से 6 बंगाली हैं. यही स्थिति सारन की है जहां 3 में से 2 बंगाली हैं. छोटे सरकारी नौकरियों में भी यही स्थिति दिखती है. मजिस्ट्रेट , कलक्टर, न्यायिक दफ्तरों में 90 प्रतिशत क्लर्क बंगाली हैं. यह स्थिति सिर्फ जिले के मुख्यालय में ही नहीं थी, सब-डिवीजन स्तर पर भी यही स्थिति है. म्यूनिसिपैलिटी और ट्रेजेरी दफ्तरों में बंगाली छाए हुए थे.
बंगालियों को ही मिल रही थी सभी नौकरियां
जिस कालखंड में बिहार बंगाल से अलग हुआ, उस वक्त दस में से नौ डॉक्टर और सहायक सर्जन बंगाली थे. पटना में आठ गज़ेटेड मेडिकल अफसर बंगाली थे. सभी भारतीय इंजीनियर के रूप में कार्यरत बंगाली थे. एकाउंटेंट, ओवरसियर एवं क्लर्कों में से 75 प्रतिशत बंगाली ही थे. जिस दफ्तर में बिहारी शिक्षित व्यक्ति कार्यरत है, उसको पग पग पर बंगाली क्लर्कों से जूझना पड़ता था और उनकी मामूली भूलों को भी सीनियर अधिकारियों के पास शिकायत के रूप में दर्ज कर दिया जाता था. बंगालियों के बिहार में आने के पहले नौकरियों में कुलीन मुसलमानों और कायस्थों का कब्ज़ा था. स्वाभाविक था कि बंगालियों के खिलाफ सबसे मुखर मुसलमान और कायस्थ ही थे.
पटना कॉलेज तक को बंद करने की होने लगी थी बात
अंग्रेज़ी शिक्षा के क्षेत्र में बिहार ने बहुत कम तरक्की की थी. सबकुछ कलकत्ता से ही तय होता था इसलिए बिहार में कॉलेज भी कम ही खोले गये. बिहार में बड़े कॉलेज के रूप में पटना कॉलेज था, जिसकी स्थापना 1862-63 में की गयी थी. इस कॉलेज में बंगाली वर्चस्व इतना अधिक था कि 1872 में जॉर्ज कैम्पबेल ने यह निर्णय लिया कि इसे बंद कर दिया जाए. वे इस बात से क्षुब्ध थे कि 16 मार्च 1872 को कलकत्ता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में उपस्थित ‘बिहार’ के सभी छात्र बंगाली थे. यह सरकारी रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है कि “हम बिहार में कॉलेज सिर्फ प्रवासी बंगाली की शिक्षा के लिए खुला नहीं रखना चाहते. इस निर्णय का विरोध दरभंगा, बनैली और बेतिया के महाराजा जैसे लोगों ने किया. इन लोगों का कथन था कि इस कॉलेज को बन्द न किया जाए क्योंकि बिहार में यह एकमात्र शिक्षा केन्द्र था जहाँ बिहार के छात्र डिग्री की पढ़ई कर सकते थे.
नौकरियों में आरक्षण से भी नहीं सुधरे हालात
दरभंगा महाराज का प्रस्ताव था कि बिहारियों के शैक्षणिक उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिले, तो यहां के लोग भी आगे बढ़ सकते हैं. इसके बाद ही बिहार की सरकारी नौकरियों में बंगाली वर्चस्व पर अंकुश लगाना शुरू हुआ. सरकारी आदेश दिए गए कि जहाँ रिक्त स्थान हैं, उनमें उन बिहारियों को ही नौकरी पर रखा जाए. सरकारी विज्ञापन छपा करते थे- “बंगाली बाबुओं को आवेदन न करें. इस दौरान अखबारों में कई लेख प्रकाशित हुए जिसमें यह कहा गया कि बिहार की प्रगति में बड़ी बाधा बंगालियों का वर्चस्व है. नौकरियों में तो बंगाली अपने अंग्रेज़ी ज्ञान के कारण बाजी मार ही लेते थे, बहुत सारी जमींदारियां भी बंगालियों के हाथों में थी.
बंगाल को एक तिहाई राजस्व देने के बाद भी सुविधा नदारद
बिहार टाइम्स ने लिखा कि बिहार की आबादी 2 करोड 90 लाख है और जो पूरे बंगाल का एक तिहाई राजस्व देते हैं उसके प्रति यह व्यवहार अनुचित है. बंगाल प्रांतीय शिक्षा सेवा में 103 अधिकारियों में से बिहारी सिर्फ 3 थे, मेडिकल एवं इंजीनियरिंग शिक्षा की छात्रवृत्ति सिर्फ बंगाली ही पाते थे, कॉलेज शिक्षा के लिए आवंटित 3.9 लाख में से 33 हजार रू ही बिहार के हिस्से आता था, बंगाल प्रांत के 39 कॉलेज (जिनमें 11 सरकारी कॉलेज थे) में बिहार में सिर्फ 1 था, कल-कारखाने के नाम पर जमालपुर रेलवे वर्कशॉप था (जहाँ नौकरियों में बंगालियों का वर्चस्व था) , 1906 तक बिहार में एक भी इंजीनियर नहीं था और मेडिकल डॉक्टरों की संख्या 5 थी.
कांग्रेस के समर्थन के बाद अंग्रेजों को करना पड़ा विभाजन

ऐसे हालात में कांग्रेस ने 1908 के अपने प्रांतीय अधिवेशन में बिहार को अलग प्रांत बनाए जाने का समर्थन किया गया. कुछ प्रमुख मुस्लिम नेतागण भी सामने आये जिन्होंने हिन्दू मुसलमान के मुद्दे को पृथक राज्य बनने में बाधा नहीं बनने दिया. इन दोनों बातों से अंग्रेज शासन के लिए बिहार को अलग राज्य का दर्जा दिए जाने का मार्ग सुगम हो गया. इसके लिए बनी कमेटी में दरभंगा महाराजा रमेश्वर सिंह अध्यक्ष और अली इमाम को उपाध्यक्ष का ओहदा मिला. आख़िर 22 मार्च 1912 को बिहार भी अलग राज्य के रूप में स्थापित हुआ. पटना को राजधानी घोषित किया गया. अंतत: वह घड़ी आयी और 12 दिसंबर 1911 को बिहार को अलग राज्य का दर्जा मिल गया. बिहार की पहचान उसे 145 वर्ष बाद उसे प्राप्त हुई.