इस बात पर बहस क्यों नहीं होनी चाहिए कि जब एक समुदाय विशेष को उसकी मान्यताओं के अनुरूप खुलकर जीने के लिए एक पूरा देश १९४७ में दे दिया गया‚ तो आज उन्हीं मान्यताओं को ‘हम भारतवासियों के देश में’ लाने की जिद क्यों मानी जानी चाहिएॽ दरअसल‚ आजादी के बाद से अब तक चुपचाप दोबारा वैसी ही परिस्थितियां तैयार करने का प्रयास लगातार चलता रहा है। पीएफआई जैसे संगठन ये काम करते आ रहे हैं‚ और वामदलों का उन्हें समर्थन मिलता रहा है,
हाल ही में आए इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के एक बयान‚ २०१९ में दी गई सर्वोच्च न्यायालय की एक सलाह एवं इन दिनों चल रहे हिजाब विवाद को जोड़कर देखे जाने की जरूरत है। इन तीनों घटनाओं से मुंह छिपाना या कतराना‚ न तो देश के हित में है‚ न देश के बहुसंख्यक हिंदुओं के।
दरअसल‚ कर्नाटक के कुछ स्कूलों में ड्रेस विवाद को लेकर मुस्लिम देशों के संगठन इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआईसी) के महासचिव ने भारत से मुस्लिम समुदाय की सुरक्षा‚ संरक्षा और भलाई सुनिश्चित करने को कहा है। यह बात कुछ वैसी ही हुई कि हमारे घर का कोई उपद्रवी–जिद्दी बच्चा बेवजह शोर मचाए और हमारा पड़ोसी आकर हमारे ही उपद्रवी–जिद्दी बच्चे के समर्थन में हमें नसीहत देता दिखाई दे। यह स्थिति तो किसी भी बहाने पैदा की जा सकती है। पैदा की भी जा रही है। कभी सीएए के बहाने‚ कभी एनआरसी के बहाने‚ कभी ३७० के बहाने‚ तो आज हिजाब विवाद के बहाने। कौन नहीं जानता कि ये स्थितियां सिर्फ राजनीतिक कारणों से पैदा की जा रही हैं। पिछले सात वर्षों में देश में हुए सकारात्मक बदलाव किसे समझ में नहीं आतेॽ देश के कोने–कोने में होने वाले आतंकी विस्फोटों से मुक्ति सभी को याद होगी। चारों ओर हो रहे विकास के काम भी सभी को दिखाई दे रहे होंगे। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौरान इतनी बड़ी आबादी वाले देश में हो रहे काम आज भी जारी हैं।
महामारी में लोग भूखों न मरने पाएं‚ इसके लिए सरकार की तरफ से हर महीने या महीने में दो बार हो रहे राशन वितरण से वह आबादी भी कतई अछूती नहीं है‚ जिसकी सुरक्षा‚ संरक्षा और भलाई की नसीहत आज इस्लामी देशों का संगठन (ओआईसी) देता दिखाई दे रहा है‚ लेकिन उसे भलाई के ये काम नजर नहीं आते। नजर आता है‚ तो सिर्फ बेवजह खड़ा किया जा रहा निरर्थक विवाद। जिनका चलन दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है। बेवजह खड़े किए जा रहे ऐसे ही विवादों के कारण याद आती है सितम्बर २०१९ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई वह टिप्पणी‚ जिसमें न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरुद्ध बोस की पीठ ने कहा था कि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों से जुड़े भाग चार में संविधान के अनुच्छेद ४४ में निर्माताओं ने उम्मीद की थी कि राज्य पूरे भारत में समान नागरिक संहिता के लिए प्रयास करेगा‚ लेकिन आज तक इस संबंध में कोई कार्रवाई नहीं की गई है। अपना एक फैसला सुनाते हुए इस पीठ ने न सिर्फ देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाने पर बल दिया‚ बल्कि इस बात पर अफसोस भी जताया था कि सर्वोच्च अदालत के प्रोत्साहन के बावजूद इस मकसद को हासिल करने का कोई प्रयास आज तक नहीं किया गया। तब गोवा से संबधित एक मामले में अपने ३१ पृष्ठों के फैसले में इस पीठ ने कहा था कि हालांकि हिंदू अधिनियमों को वर्ष १९५६ में संहिताबद्ध किया गया था। इस अदालत के प्रोत्साहन के बावजूद देश के सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता लाने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय की यह चिंता जायज है।
यदि यह काम समय रहते कर लिया गया होता‚ तो शायद कपिल सिब्बल जैसे देश के शीर्ष वकीलों को कभी हिजाब‚ तो कभी सीएए–एनआरसी के बहाने सर्वोच्च न्यायालय में अपना समय नष्ट करने की जरूरत नहीं पड़ती। आज भारतवर्ष गणराज्य अपना अमृत महोत्सव मना रहा है। ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय की उक्त सलाह पर न सिर्फ गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है‚ बल्कि यह भी सोचने की जरूरत है कि हम अब तक ऐसा क्यों नहीं कर सके। माना कि देश की आजादी से पहले हम सबका एकमात्र उद्देश्य था देश को आजाद करवाना (ये और बात है कि हम देश को आजाद कराते–कराते उसे बांट ही बैठे!)‚ लेकिन आजादी के बाद तो हमें बचे–खुचे देश को सही तरीके से गढ़ने पर ध्यान देना ही चाहिए था। माना कि आजादी से पहले हमे खुलकर बोलने की स्वतंत्रता भी हासिल नहीं थी‚ लेकिन आजादी के बाद तो हमारे पास खुलकर अपने विचार व्यक्त करने के लिए हमारी संसद थी। बोलने वाले हमारे जनप्रतिनिधि सांसद थे।
तब ऐसे जरूरी विषयों पर बहस की शुरु आत क्यों नहीं की गई‚ जिनकी ओर आज सर्वोच्च न्यायालय को इशारा करना पड़ रहा है। चलिए जाने दीजिए। जो काम ७५ वर्ष में नहीं किया‚ उसे अब कर लीजिए। खासतौर से इन दिनों चल रहे हिजाब विवाद से तो यही महसूस हो रहा है कि हमें बिना देर किए अपनी संसद में एक बार समान नागरिक संहिता पर खुलकर बहस करनी ही चाहिए। चर्चा में इस बिंदु को भी जरूर लाया जाना चाहिए कि जब धर्म के आधार पर ही देश का बंटवारा हुआ था‚ तो स्वतंत्रता से ठीक पहलेवाली ही परिस्थितियां आज देश में दुबारा क्यों पैदा की जा रही हैंॽ
इस बात पर निस्संकोच बहस क्यों नहीं होनी चाहिए कि जब एक समुदाय विशेष को उसकी मान्यताओं के अनुरूप खुलकर जीने के लिए एक पूरा देश १९४७ में दे दिया गया‚ तो आज उन्हीं मान्यताओं को ‘हम भारतवासियों के देश में’ लाने की जिद क्यों मानी जानी चाहिएॽ दरअसल‚ आजादी के बाद से अब तक चुपचाप अंदर ही अंदर दोबारा वैसी ही परिस्थितियां तैयार करने का प्रयास लगातार चलता रहा है। पीएफआई जैसे संगठन ये काम करते आ रहे हैं‚ और वामदलों का उन्हें समर्थन मिलता रहा है। कांग्रेस एवं अन्य सेक्युलर दल अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए उस एक वर्ग की सभी करतूतों से आंख मूंदे रहे‚ लेकिन पिछले सात वर्षों में जब इस कुत्सित षड्यंत्र की पोल खुलने लगी‚ तो इस षड्यंत्र के पीछे खड़े लोगों को तकलीफ हो रही है। जरूरत है इस षड्यंत्र को उजागर करने की और रोकने की‚ ताकि देश को बचाया जा सके।