आपको याद होगा कि आठ साल पहले तक जब आम बजट पेश किया जाता था तो सारे देश में एक उत्सुकता का माहौल होता था। देश के आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट तो बजट के काफी पहले आ जाती थी‚ जिससे देश की आर्थिक सेहत का अंदाजा लग जाता था। फिर शुरू होता था उद्योगपतियों‚ व्यापारियों‚ व्यवसाइयों व अर्थशा्त्रिरयों का वित्त मंत्री से संभावित बजट को लेकर वार्ताओं का दौर।
जिस दिन वित्त मंत्री लोक सभा में बजट प्रस्तुत करते थे; उस दिन शहरों में सामान्य गति थम सी जाती थी। उद्योगपतियों और व्यापारियों के अलावा कर सलाहकार टीवी के पर्देसे चिपके रहते थे। यहां तक कि मध्यमवर्गीय और नौकरीपेशा लोग भी इस उम्मीद में वित्त मंत्री का बजट भाषण सुनते थे कि शायद उन्हें भी कुछ राहत मिल जाए। बजट प्रस्तुति के साथ ही मीडिया में कई दिनों तक बजट का विश्लेषण किया जाता था‚ जिसे गम्भीर विषय होते हुए भी लोगों को सुनने में रुचि होती थी। जब से केंद्र में भाजपा की सरकार आई है तब से बजट को लेकर देश भर में पहले जैसा न तो उत्साह दिखाई देता है और न उत्सुकता। इसका मूल कारण है संवादहीनता। ऐसा नहीं है कि पिछली सरकारों में लोगों की हर मांग और सुझावों का उस वर्ष के बजट में समावेश होता हो। पर मौजूदा सरकार ने तो इस परम्परा की ही तिलांजलि दे दी है। नोटबंदी व कृषि कानून अचानक बिना संवाद के जिस तरह देश पर सौंपे गए‚ उससे देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक सौहार्द का भारी नुकसान हुआ। इसका खमियाजा देशवासी आज तक भुगत रहे हैं। नीतियों को बुल्डोजर की तरह थोपने और ‘डबल इंजन की सरकार’ जैसे दावे करने का कोई सकारात्मक परिणाम अभी तक सामने नहीं आया है।
हां‚ इससे देश में अराजकता‚ तनाव व असुरक्षा जरूर बढी है‚ जो किसी सभ्य समाज और भारत जैसे सबसे बडे लोकतंत्र के लिए एक अच्छा लक्षण नहीं है। चूंकि आम बजट पर चर्चा करने की एक रस्म चली आ रही है तो हम भी यहां निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत बजट का विश्लेषण कर लेते हैं। इस बार के बजट को लेकर मिली–जुली प्रतिक्रियाएं आई हैं। कुछ लोग इसे एक साधारण बजट कह रहे हैं वहीं कुछ लोग इसमें की गई घोषणाओं को चुनाव से पहले की राजनैतिक घोषणाएं मान रहे हैं। मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. अरुण कुमार के एक विश्लेषण में दिए गए आंकडों की मानें तो वित्तीय वर्ष २०२१–२२ के बजट में कुल ३९.४४ लाख करोड रुपये खर्च हुए‚ जबकि २०२०–२१ का संशोधित अनुमान के अनुसार यह ३७.७ लाख करोड रुपये का था। इस आंकडे से यह सिद्ध होता है कि जिस ५.५ फीसद के हिसाब से महंगाई बढी‚ उस हिसाब से खर्च नहीं बढा। इसका मतलब यह है कि अगर खर्च वास्तविक अर्थ में नहीं बढा‚ तो बाजार में मांग कैसे बढीॽ अगर पूंजीगत व्यय की बात करें तो उस मद में भी इस साल का संशोधित अनुमान ६.३ लाख करोड रुपये था। परंतु आंकडे बताते हैं कि नवम्बर २०२१ तक २.५ लाख करोड रुपये भी खर्च नहीं हुए। इसलिए‚ यह समझ नहीं आता कि नवम्बर २०२१ के बाद के चार महीने में बचे हुए करीब चार लाख करोड रुपये खर्च किए जाएंगेॽ डॉ. कुमार के अनुसार अगले साल ७.५ लाख करोड रुपये खर्च करने की बात भी अतिश्योक्ति सी प्रतीत होती है‚ जबकि विकास की गति बरकरार रखने के लिए कुल खर्च को महंगाई के अनुपात में बढाने की जरूरत थी।
ड़ॉ. कुमार ने अपने विश्लेषण में यह भी कहा कि सरकार को ऐसे क्षेत्र में भी अपने खर्च बढाने चाहिए थे‚ जहां से रोजगार पैदा होने की ज्यादा उम्मीद होते। जैसे कि ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में खर्च बढता तो बेहतर होता। सोचने वाली बात यह है कि इस बार के बजट में इस मद में अगले वर्ष लगभग ७३ हजार करोड रुपये खर्च करने की घोषणा की गई है‚ जबकि वर्तमान वर्ष में ९८ हजार करोड खर्च किए जाएंगे। इसी तरह‚ सब्सिडी में भी कटौती की गई है। २०२१–२२ के संशोधित अनुमान में १.४० लाख करोड रुपये खाद सब्सिडी देने की बात की गई थी। परंतु २०२२–२३ के बजट में इसे भी घटाकर १.०५ लाख करोड रुपये कर दिया गया है। वहीं खाद्य सब्सिडी को भी बजट में घटाकर २.०६ लाख करोड कर दिया गया है। डॉ. कुमार इसे उचित नहीं मानते‚ क्योंकि देश के गरीबों के हाथ में अभी पैसा देना जरूरी है।
बजट के बाद से ही सोशल मीडिया में बजट को लेकर वित्त मंत्री का काफी मजाक उडाया गया है। असल में वित्त मंत्री द्वारा की गई घोषणाओं में काफी बातें विरोधाभासी दिखाई दी। जैसे कि उन्होंने एक ओर पर्यावरण को बचाने के लिए घोषणा की वहीं शहरीकरण को बढावा देने की भी बात कह डाली। बजट में सरकार ने कहा है कि भारतीय रिजर्व बैंक डिजिटल करेंसी शुरू करेगा। एक ओर सरकार ने क्रिप्टो करेंसी को हतोत्साहित करने का प्रावधान तो किया है‚ लेकिन उस पर प्रतिबंध नहीं लगाए हैं। बजट में आम आदमी की चिंता प्रत्यक्ष कर या अप्रत्यक्ष करों की दरों से जुडी रहती है। इस बार के बजट में तमाम आंकडों के बावजूद यह नहीं बताया गया कि इन करों में कोई बदलाव न करने से कर संग्रह पर क्या असर होगाॽ महंगाई और महामारी से जूझते हुए आम आदमी को इस उलझे हुए बजट में कुछ विशेष नजर नहीं आया है। आम आदमी को यह उम्मीद थी कि पेट्रोलियम पदार्थो को जीएसटी के दायरे में रखा जाएगा‚ लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। जिस तरह हीरे पर कर में छूट दी गई है उससे तो यह लगता है कि उद्योगपतियों को सारी सुविधाएं हैं‚ लेकिन जनता को टैक्स की जंजीर में जकड दिया गया है। वहीं किसान नेताओं के अनुसार इस बजट में किसानों के लिए भी कुछ विशेष नहीं हैं। देश का व्यापारी वर्ग भी इस बजट से निराश है।
जिस तरह बडी योजनाओं के लिए इस बजट में पैसे बढाए गए हैं और दावा किया जा रहा है कि इनका अनुमानित लाभ आने वाले ३ वर्ष में मिलेगा‚ उससे तो यह लगता है कि सरकार के इस बजट में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए किसी त्वरित वित्तीय प्रावधान नहीं है। उसी तरह ३० लाख नये रोजगार बनाने की बात कही गई है‚ लेकिन यह रोजगार कैसे बनेंगेॽ इसका कोई रोडमैप नहीं है। चुनाव से पहले इस बजट में जनता के लिए यह बजट मुंगेरीलाल के हसीन सपने जैसा ही दिखाई दे रहा है। अब देखना यह है कि इस बजट का चुनावों के परिणाम पर क्या असर होता हैॽ