अगर आप ‘स्टैंड़अप कामेडियनों’ और ‘मिमिक्री’ कलाकारों जैसे राजू श्रीवास्तव से लेकर श्याम रंगीला आदि को छोड दें तो आजकल खबर चैनलों पर और यूट्यूब पर एक भी चेहरा ‘खुश’ और प्रसन्न नजर नहीं आता। यों मीडिया में दिखने वाले अधिकांश चेहरे चिकने–चुपडे होते हैं‚ खाए–पिए परिवारों के होते हैं‚ बडी–बडी गाडियों में आते–जाते हैं। बड़़ी कमाई करते हैं। फिर भी टीवी की खबरों या बहसों या सोशल मीडिया में नजर आते हैं‚ तो इतने नाराज‚ इतने गुस्से में भरे क्यों नजर आते हैंॽ क्या घृणा‚ क्रोध और बैर–भाव हमारा दैनिक स्वभाव बन चले हैंॽ
मीडिया की आम खबरों को देखें और उनमें प्रकट–अप्रकट घृणा को पढ़ें‚ क्रोध या दुश्मनी के भाव को पढ़ें तो लगता है कि हम एक ‘सामान्य’ समाज के बाशिंदे न होकर ‘असामान्य’ समाज के बाशिंदे हैं। टीवी चरचाओं और बहसों की बात करें तो दलों के प्रवक्ताओं के चेहरे दूसरे के प्रति हिकारत और घृणा से भरे नजर आते हैं। कुछ पुरुष प्रवक्ताओं और कुछ स्त्री प्रवक्ताओं के चेहरे तो कई बार ऐसे रौद्र रूप धारण कर आते हैं जैसे सामने वाले को कच्चा ही चबा जाएंगे। इसका एक बडा कारण संसदीय कार्रवाई का लाइव प्रसारण है। यहां हर नेता अपने क्षेत्र की जनता को प्रभावित करने के लिए बोलता है। कई नेता अपने क्रोध को जनता का क्रोध बना कर पेश करते हैं जबकि वह उनका वैचारिक ‘सत्तात्मक विमर्श’ होता है।
हर क्रोधाभिव्यक्ति के बाद क्रोध करने वाले में एक खीझ और खिसियाहट बची रह जाती है‚ जो उसे और अधिक क्रोधी बनाती रहती है। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि क्रोध से क्रोध बढता है। क्रोध से बैर–भाव बढता है‚ और अंततः हिंसा बढती है। हिंदी के आलोचक आचार्य रामचंद्र शक्ल ने कहा है कि ‘बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है।’ यह ‘मुरब्बा’ मीडिया और सोशल मीडिया में दिन–रात बनता रहता है। इसका कारण मीडिया की प्रकृति है। मीडिया हर चीज को एक ‘प्रदर्शन’ और एक ‘अदाकारी’ में बदलता है। मीडिया में आकर हर बुरी से बुरी चीज भी डिजाइंड‚ पूर्ण और आकर्षक oश्य बन जाती है‚ जो हमें लुभाती है‚ और जिसकी नकल कर के हम खुद ही खुद को एक ‘मीडिया’ और एक ‘शो’ में बदल देना चाहते हैं। दूसरों की देखादेखी हम भी अपने क्रोध का ‘शो’ देने लगते हैं। यही मीडिया की सबसे बडी ‘मरीचिका’ है‚ और ‘छलना’ हैः आप तो अपने क्रोध का शो दिखाकर चले जाएंगे लेकिन जो आपकी नकल कर क्रोध का ‘शो’ देगा वो उसी से मरेगा।
याद रखेंः जो मीडिया आपको हीरो बनाता है‚ वही आपको जीरो बनाता है। प्रतिक्रिया में आप पहले से भी सवाया क्रोध दिखाने लगते हैं। टीवी और सोशल मीडिया एक भ्रम देता है। हम सोचते हैं कि टीवी में या सोशल मीडिया पर कुछ भी बोल देंगे और छूट जाएंगे। सोशल मीडिया में सक्रिय ऐसे बहुत से लोग चंद शब्दों से पहाड तोडना चाहते हैं। सोशल मीडिया द्वारा बनाए जाते आभासी संसार को नित्य की चोटों से हाड–मांस के ठोस और जटिल ‘आर्गनिक’ जीवन जगत को तोडना–बदलना चाहते हैं‚ और जब उसे न बदलता हुआ पाते हैं तो और अधिक क्षुब्ध और क्रुद्ध होते जाते हैं और अंततः उसे अपनी भाषा शैली‚ अदाकारी और फिर स्थायी मुद्रा बना लेते हैं। हमारे व्यक्तित्व में घृणा और क्रोध के बढने का एक कारण यह भी है।
निरे गुस्से की अदाकारी किस तरह आफत में डालती है‚ इसका एक उदाहरण इसी ससंद सत्र में तब दिखा जब एक सांसद जितनी देर बोलीं‚ गुस्से में तिलमिलाती हुई बोलीं। उनके गुस्से को देख जब चेयर रमा देवी जी ने प्यार से टोका कि आप जरा प्यार से बोलिए इतने गुस्से में न बोलिए.तो वे दिनकर की एक कविता को गलत–सलत पढकर अपने गुस्से को भी उचित ठहराने लगीं और बाद में उन्होंने यह तक ट्वीट कर दिया कि चेयर कौन होती हैं मुझे टेाकने और बताने वाली कि मैं गुुस्से से बोलूं कि प्यार से बोलंू.आप लोक सभा की मोरल साइंस टीचर नहीं हैं.। अगले दिन लोक सभा में कई विपक्षी नेताओं तक ने उनके आचरण की निंदा की। सोशल मीडिया में भी आलोचना हुई। ऐसे ही क्रोध से बोलने वालों के लिए कभी रहीम ने कहा थाः
‘अमृत जैसे वचन में रहिमन रिस की गांस जैसे मिसरी में मिली निरस बांस की फांस!