ज्ञान सहेजने की चीज होती है‚ विखराव की नहीं। इसीलिए ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आंख कहा जाता है‚ जिसके कारण ही मनुष्य अपने जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के आयामों को प्राप्त करता है। परंतु विडम्बना है कि जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों–मुनियों ने घोर तपस्या और गंभीर चिंतन से सृजित कर समाज कल्याण की भावना के तहत संचित किया‚ आज अनजाने में ही सही समाज के लोग उसे महत्वपूर्ण तो समझ रहे हैं परंतु उसे सहेजने और आत्मसात करने के स्थान पर स्वार्थवश तथ्यों को तोड–मरोडकर तकनीकी माध्यमों से झूठ को प्रचारित कर पवित्र ज्ञान का दुरुपयोग कर अपनी दुकान चलाते दिख रहे हैं के विषय में भगवान शिव को संसार का आदिगुरु माना गया है‚ जिन्होंने अपने ज्ञान सभा के माध्यम से सर्वप्रथम सप्तऋषियों को ज्ञान दिया। तत्पचात इन सप्तऋषियों ने संसार में ज्ञान का प्रचार–प्रसार कर उसका विस्तार किया। पूर्व के समय में हमारे पूर्वजों ऋषि–मुनियों ने ज्ञान के प्रचार–प्रसार के लिए तमाम वेद–पुराण एवं ग्रंथों को लिखा एवं पत्थर‚ पत्तों और कागज की पुस्तकों के माध्यम से उस ज्ञान को प्रचारित किया परंतु उन्होंने सदैव ज्ञान के विषय को अत्यधिक पवित्रता प्रदान की। तभी तो उसके प्रचार–प्रसार के माध्यम के लिए भागवत कथा मंच‚ आध्यात्मिक चिंतन मंच‚ घर के उत्सवों के अतिरिक्त किसी पर्व–त्योहारों पर नियमतः व्यास गद्दी का निर्माण कर समाज के योग्य व्यक्तियों अर्थात् जो उस ज्ञान रूपी ग्रंथ में लिखीं बातों को तथ्य एवं आंकडों के साथ स्पष्टतया प्रस्तुत कर सकें‚ के माध्यम से ही ज्ञान के प्रचार–प्रसार को उचित माध्यम माना।
ज्ञान प्रसार हेतु बनाए गए नियमों के पीछे संभवतः कारण यह रहा होगा कि संसार में जो भी ज्ञान का प्रचार–प्रसार हो वह सत्य एवं तथ्यों पर आधारित हो। इसके अतिरिक्त संभवतः दो अन्य कारण भी रहे होंगे जिनमें प्रथम जिस वस्तु की संसार में अधिकता रहती है‚ उसका महत्व एवं मूल्य काफी कम रहता है‚ और जिसकी अधिकता रहती है‚ उसका महत्व समाज में काफी कम हो जाता है तथा द्वितीय कारण यह रहा होगा कि यदि संसार में सत्य एवं तथ्यपूर्ण ज्ञान जीवन की प्रगति का माध्यम है‚ तो यह भी संभव है कि प्रसारित किया गया अधूरा ज्ञान समाज को भ्रमित एवं प्रदूषित भी कर सकता है। आज के तकनीकी युग में समाज में ज्ञान का प्रचार–प्रसार कुछ अलग सा ही चल निकला है‚ जिसके पास जो ज्ञान है वह उसका प्रयोग स्वयं के जीवन में कम तथा आधुनिक तकनीकी संसाधनों जैसे मोबाइल‚ लैपटाप‚ आई–पैड के सामाजिक एप व्हाटसएप‚ इंस्टाग्राम‚ टेलीग्राम‚ फेसबुक‚ यू–ट्यूब और ई–मेल आदि के माध्यम से दूसरों का ज्ञानवर्धन करने में अधिक समय दे रहा है‚ यहां तक कि बोलचाल की भाषा में भी संक्षिप्त एवं अपूर्ण शब्दों का प्रयोग करने की परंपरा व्याप्त हो चुकी है। इस तकनीकी ज्ञान की गंगा में समाज के कुछ लोग अपने मत एवं हितों के अनुसार तथ्यों को तोड–मरोडकर प्रस्तुत करते हुए दिखते हैं तथा कुछ उसको हंसी–मजाक का विषय बनाकर समाज में प्रस्तुत करने का कार्य कर रहे हैं। वास्तव में ज्ञान के विषय में कई अलग–अलग विचारकों ने अपने मत दिए हैं‚ जिसमें से समझने के लिए कुछ विचारकों के मत को उल्लेखित किया जा रहा है। प्लेटो के अनुसार ‘विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा–परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है।’
प्रो. रसल के अनुसार ‘ज्ञान वह है जो मनुष्य के मन को प्रकाशित करता है।’ प्रो. जोड के अनुसार ‘ज्ञान हमारी उपस्थिति‚ जानकारी और अनुभवों के भंडार में वृद्धि का नाम है।’ वेबस्टर के अनुसार ‘ज्ञान वह है जो ज्ञात है‚ और जो ज्ञात होने के बाद संचित रहता है‚ या ज्ञान वह जानकारी है‚ जो वास्तविक अनुभव द्वारा प्राप्त होती है।’ ज्ञान का संपूर्ण भावार्थ यह निकलता है कि ‘हम भौतिक इ्द्रिरयों से कुछ भी देख और सुन लें परंतु उसे विषयक ज्ञान बनाना और भविष्य के लिए सहेजने का काम हमारे मनस अर्थात् अन्तःकरण में होता है‚ जो दैवीय है। इसलिए दैवीय व्यवस्था को सर्वप्रथम जानना चाहिए।’ ज्ञान का व्यावहारिक अर्थ यह है कि मनुष्य अपनी पांच ज्ञाने्द्रिरयों के माध्यम से मन में किसी विषय पर धारणा बनाता है‚ और बुद्धि उस धारणा को व्यवस्थित करती है तत्पचात् वह विषय मनुष्य के मस्तिष्क में अनुभव के रूप में संचित हो जाता है‚ जो वास्तविक ज्ञान कहा जा सकता है। किसी भी विषय–वस्तु को जानना‚ उसका बोध करना और साक्षात अनुभव करना अर्थात किसी वस्तु अथवा विषय को उसके वास्तविक स्वरूप में अनुभव करना ही पूर्ण ज्ञान है। प्रमुखतया मनुष्य की इ्द्रिरयों को ही ज्ञान का प्राथमिक स्रोत कहा जाता है परंतु किसी विषय–वस्तु का ज्ञान के स्वरूप में विकसित होकर संचय होने में निम्न माध्यम एवं स्रोत सहायक होते हैं
प्रकृति से प्राप्त ज्ञान अर्थात् गर्भावस्था में शिशु प्रकृति से ही ज्ञान हासिल करता है‚ उदाहरणार्थ–अभिमन्यू ने चक्रव्यूह तोडने का ज्ञान गर्भावस्था में ही प्रकृति व्यवस्था के तहत प्राप्त किया था। इसके अतिरिक्त प्रकृति विकास के लिए सभी वातावरण मनुष्य के सामने प्रत्यक्ष करती है‚ तभी तो हमारा मन और इ्द्रिरयां इससे प्रभावित होकर कुछ प्राप्त करने के लिए आगे आती हैं। अतएव प्रकृति ज्ञानार्जन का प्रथम एवं महत्वपूर्ण स्रोत पुस्तकें ज्ञानार्जन का स्रोत हैं‚ जो वर्तमान में तकनीकी हो चुका है। इ्द्रिरयां मनुष्य को उसकी जीवंतता का आभास करा कर ज्ञानार्जन का साधन बनती हैं। साक्ष्य जो दूसरों के अनुभवों पर आधारित होता है‚ मनुष्य के अंदर ज्ञान रूपी अनुभव को दृढ़ता प्रदत्त करते है। तर्क बुद्धि मानसिक प्रक्रिया है‚ प्रति दिन जीवन में होने वाले अनुभवों से हमें ज्ञान प्राप्त होता है तथा यही ज्ञान तर्क बुद्धि में परिवर्तित हो जाता है‚ और जब हम अपने तर्क को प्रमाण के साथ स्पष्ट कर स्वीकार कर लेते हैं अर्थात तर्क द्वारा विषय को संगठित कर लेते हैं‚ तो हमारे मन–मस्तिष्क में ज्ञान का निर्माण होता है। अन्तः प्रज्ञा का तात्पर्य है कि किसी तथ्य की प्राप्ति‚ इसके लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती है‚ और बहुत आसानी से हमें उस ज्ञान पर विश्वास हो जाता है। अन्तः दृष्टि सिद्ध एवं प्रतिभावान लोगों को अकस्मात प्राप्त होता है जैसे भगवान बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ध्यान करने से ज्ञान की प्राप्ति हुई। इस प्रक्रिया के तहत जीव–जंतुओं को भी अकस्मात अपने हल मिल जाया करते हैं। अनुकरणीय ज्ञान के स्रोत समाज के प्रतिभावान तीव्र बुद्धि वाले लोग होते हैं। जिज्ञासा अर्थात् किसी भी विषय या प्रकरण को समझने की उत्सुकता ही जिज्ञासा है। अभ्यास के माध्यम से ही ज्ञान का प्रादुर्भाव होता है। प्रत्येक मनुष्य अनुभव के माध्यम से सीखता है परंतु किसी विषय पर एक बार अनुभव हो जाने से ही व्यक्ति में ज्ञान की संपूर्णता नहीं हो जाती है‚ बल्कि यह अनवरत प्रक्रिया है जो जीवनपयत चलती रहती है। संवाद ज्ञान को प्रचारित‚ प्रसारित एवं बढाने का सफल माध्यम है।
ज्ञान सहेजने की चीज होती है‚ विखराव की नहीं। इसीलिए ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आंख कहा जाता है‚ जिसके कारण ही मनुष्य अपने जीवन की भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति के आयामों को प्राप्त करता है। ज्ञान ही अपने आप को जानने का माध्यम है‚ ज्ञान ही शक्ति है‚ ज्ञान ही कल्याणकारी तत्व है‚ ज्ञान ही मनुष्य को अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है परंतु विडम्बना है कि जिस ज्ञान को हमारे ऋषियों–मुनियों ने घोर तपस्या और गंभीर चिंतन से सृजित कर समाज कल्याण की भावना के तहत संचित किया‚ आज अनजाने में ही सही समाज के लोग उस ज्ञान को महत्वपूर्ण तो समझ रहे हैं परंतु उसे सहेजने‚ आत्मसात करने और उसका सम्मान करने के स्थान पर कुछ लोग निहित स्वार्थवश तथ्यों को तोड–मरोडकर तकनीकी माध्यमों से झूठ को प्रचारित–प्रसारित कर पवित्र ज्ञान का दुरुपयोग कर अपनी दुकान चलाते प्रत्यक्ष हो रहे हैं।
ज्ञान की रक्षा कर उसको सम्मान देने के लिए समाज के हर वर्ग को आगे आकर टीवी पर झूठ एवं भामक प्रचार के माध्यम से अपने प्रोडक्ट्स को बेचने तथा संस्कृति को नष्ट करने वाले प्रचारकों का विरोध करना चाहिए। साथ ही‚ व्हाट्सएप‚ इंस्टाग्राम‚ फेसबुक और यू–ट्यूब आदि माध्यमों से ज्ञान का दुष्प्रचार एवं तथ्यहीन संवाद करने वालों का तिरस्कार करना चाहिए। इसके लिए सफल विरोध आवश्यक है अन्यथा समाज में इसका विस्तार होता जाएगा और सत्य एवं धर्म–संस्कृति के लिए कोई स्थान नहीं रह जाएगा जिससे आगामी पीढियों के जीवन की प्रगति प्रभावित होना निश्चित है।