सर्वोच्च अदालत ने एक बार फिर दोहराया कि कृषि कानून के विरोध में सड़़कों पर बैठे किसान वहां से हट जाएं। अदालत ने कहा कि अनिश्चितकाल तक सड़़क बाधित करना गलत है। हालांकि शीर्ष अदालत ने यह जरूर माना कि वह विरोध के खिलाफ नहीं है। साफ है कि मसला जहां हल होना चाहिए वहां न होकर अदालत के पास है। केंद्र सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफविभिन्न किसान संगठन दिल्ली की सीमाओं पर करीब एक साल से धरनारत हैं। बीच–बीच में यह मांग जोर–शोर से उठती रहती है कि किसानों के सड़़कों को घेरकर आंदोलन के कारण जनता को आने–जाने में भारी दुश्वारियां झेलनी पड़़ती है। निश्चित तौर पर जनता को परेशानी उठानी पड़़ रही है‚ मगर सरकार के लिए भी यह मसला उतना आसान नहीं है। एक लोकतांत्रिक देश होने के चलते सरकार की है जिम्मेदारी होती है कि वह लंबे वक्त से चले आ रहे आंदोलन को सहजता और शांतिपूर्वक समाप्त कराए। इस मामले में सरकार की जिद कहीं ज्यादा दिखाई देती है। अदालत की चौखट पर जाने से पहले ही अगर किसी मसले का समाधान निकल आता है तो वह सरकार के इकबाल की बुलंदी को ही परिलक्षित करता है। किसान संगठनों के विरोध को पहले हल्के में लेना और फिर दर्जन भर बैठकों के बावजूद अगर सरकार और संगठनों के बीच रस्साकसी है तो यह निश्चित तौर पर सरकार की बड़़ी विफलता मानी जाएगी। देखना है‚ आगामी ७ दिसम्बर को जब मामले की सुनवाई होगी तब किसान संगठन समझौते की कौन सी रूपरेखा लेकर आते हैंॽ आंदोलनरत किसानों की इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि उन्हें अगर जंतर–मंतर या रामलीला मैदान में आंदोलन करने की इजाजत मिले तो फिर सडकों को घेर कर बैठने का कोई औचित्य नहीं। समझा जा सकता है कि न तो सरकार कुछ भी समझने को तैयार है और न किसान। और जब तक दोनों पक्ष लचीला रुख अख्तियार नहीं करेंगे तब तक देश के सबसे लंबे वक्त से चले आ रहे आंदोलन का पटाक्षेप संभव नहीं है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़़ा है। बात ज्यादा न बिगड़े़ इस नाते सरकार को बहुत सतर्कता से कदम आगे बढ़ाने होंगे। किसी भी देश में आंदोलन के लिए जनता का सड़़क घेरकर बैठना न तो आंदोलन वालों की जीत मानी जाएगी न सरकार के लिए अच्छी।
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