भारत में सांस्कृतिक उत्सव मनाने की परंपरा सदियों से चली आई है। इन अवसरों को सामाजिक सद्भाव‚ समरसता‚ भाईचारे और संगठन शक्ति को बढ़ावा देने के लिए एक सकारात्मक प्रयोग के रूप में माना गया है। गणेश चतुर्थी का अवसर भी इनमें से एक है‚ जिसकी अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। वैसे तो इस पर्व का संदर्भ वेदों में भी देखने को मिलता है। सातवाहन‚ राष्ट्रकूट और चालुक्य के शासन काल में भी इस उत्सव को मनाने का उल्लेख मिलता है‚ परंतु पुख्ता तौर पर गणेश चतुर्थी को भव्यता के साथ मनाने की शुरु आत छत्रपति शिवाजी महाराज के काल में स्पष्ट रूप से नजर आती है।
छत्रपति शिवाजी महाराज ने इस त्योहार का सांस्कृतिक प्रसार राष्ट्रीयता को मजबूती देने के लिए किया‚ जिस परंपरा का बाद में पेशवाओं ने निर्वाह किया। तभी से ये परंपरा वर्षों से चली आ रही है और भारत की सांस्कृतिक विविधता और विरासत के रूप में पूर्ण रूप से स्थापित है। आज हमारा देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। गणेश चतुर्थी और स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं को जाने बिना यह महोत्सव अधूरा–सा रहेगा। उल्लेखनीय है कि १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने व्यवस्थित रूप से सार्वजनिक सभाओं‚ आयोजनों और भीड़ जुटाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। चाहे वो कोई धार्मिक या सांस्कृतिक पर्व को मनाने का अवसर ही क्यों न हो। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि किसी सांस्कृतिक व सामाजिक समारोह के मंच से स्वतंत्रता आंदोलन को बल मिले और लोग एकजुट होकर उनके विरु द्ध कोई कार्रवाई करें।
ऐसे में आजादी के संघर्ष को जिंदा रखने और देश के लोगों को एकजुट कर संगठित रूप से मुहिम को आगे ले जाने की आवश्यकता महसूस हुई। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक चाहते थे कि किसी तरह लोगों को एकजुट कर अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन को तेज किया जाए। इसके लिए उन्होंने धर्म का मार्ग चुना। वर्ष १८९२ में लोकमान्य तिलक ने गणेश चतुर्थी के आयोजन को सार्वजनिक उत्सव का रूप देकर समाज के विभिन्न वर्गों को संगठित करने का प्रयास किया। इससे पहले अमूमन इस पर्व को व्यक्तिगत रूप से केवल परिवारजनों के साथ मनाने की ही परंपरा चली आ रही थी और इसका संबंध धर्मविशेष से ही था‚ लेकिन लोकमान्य तिलक ने इसे सार्वजनिक महोत्सव का रूप देकर सभी जाति–धर्म के लोगों को एक मंच पर लाने का कार्य किया। विभिन्न वर्गों में बंटा समाज धीरे–धीरे एकजुट होने लगा। १० दिनों तक सभी लोग अपनी जाति‚ धर्म‚ समुदाय विशेष को भूलकर निर्भीक हो एक–दूसरे से मिल सकते थे। इस व्यक्तिगत उत्सव को सार्वजनिक उत्सव का प्रारूप देने का श्रेय तिलक को ही जाता है। वे अपने सफल प्रयासों से गणेशोत्सव के अवसर पर लोगों को एक मंच पर लाए और देश को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करने की रणनीति बनाई गई। लोकमान्य को अपने इस प्रयास में सफलता भी मिली। मंच से देशभक्ति की कविताओं‚ गीतों के गायन और नाटक–मंचन आदि के माध्यम से लोगों में देशप्रेम की भावना को बल मिला।
धीरे–धीरे यह मुहिम शहरों तक पहुंच गई और धार्मिक उत्सव को मनाने की अभिलाषा देश की आजादी के साथ जुड़ गई। १८९३ में ये मुहिम मुंबई भी पहुंची और केशवजी नायक चॉल सार्वजनिक गणेशोत्सव मंडल की स्थापना हुई। ये आज भी मुंबई का सबसे पुराना गणेशोत्सव मंडल है। यहां सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन की मुख्य थीम मुख्य तौर पर देश की आजादी और राष्ट्रीयता को केंद्र में रखकर ही तय की जाती है। धार्मिक त्योहार मनाने की आजादी को देश की स्वतंत्रता के रूप में परिभाषित करने का ऐतिहासिक काम बाल गंगाधर तिलक ने बड़ी सहजता और दूरदÌशता के साथ किया। परिणामस्वरूप देश में एक नई ऊर्जा और चेतना का संचार हुआ। वैसे तो आजादी की लड़ाई में किया गया हर प्रयास अपने आप में अद्भुत और अनुकरणीय था‚ लेकिन लोकमान्य तिलक ने जिस तरह गणेश चतुर्थी के उत्सव को आजादी के संघर्ष से जोड़ा‚ वह अविश्वसनीय और अतुलनीय था। अब समय आ गया है कि विविध विचारधाराओं के अनुयायी हम देशवासी पुनः एकजुट हों और धार्मिक पर्वों के माध्यम से ‘राष्ट्र प्रथम’ की उद्घोषणा को साकार करके भारत को वैश्विक पटल पर नई ऊंचाई पर ले जाने में सहभागी बनें।
आज जब हम आजाद देश के रूप में ७५ वर्ष मना रहे हैं‚ यह गौर करने वाली बात है कि स्वतंत्रता संघर्ष में एकजुटता और सामुदायिकता ही ऐसी शक्ति थी जिसके कारण इतने वैविध्यपूर्ण देश में एक ध्वज के लिए इतने लोग अपना सर्वस्व न्योछावर करने को राजी हो गए। यही एकता हमारी उत्सवधमता है और यही उत्सवधमता विश्व में भारत को विशिष्टता प्रदान करती है। भगवान श्रीगणेश के साकार पूजन के पीछे भी तत्व चिंतन है। गणेश का अर्थ होता है गणों का ईश और आदि का अर्थ होता है सबसे पुराना यानी सनातनी। गणपति का स्वरूप हमें सूक्ष्म दृष्टी से देखने–सुनने में कान खुले रखने‚ लंबोदर अर्थात अपने में सभी को समाहित करने की क्षमता विकसित करने का संदेश देता है। गणेश को दूर्वा प्रिय है। अर्थात हमें समाज के सबसे कमजोर तबके को भी अपने करीब रखना है और उसका सर्वागीण विकास करके उसे मुख्यधारा में लाना है। गणपति का वाहन मूषक है जो बड़े भारी शरीर वाले गणपति की यात्रा गणेश की कृपा से ही सुलभ करता है।
अर्थात शरीर से हम कमजोर भले हों‚ लेकिन यदि हम पर पर भगवान की कृपा रही तो हम बड़े से बड़ा कार्य भी आसानी से कर सकते हैं। दरअसल‚ गणेशोत्सव हमें यह चिंतन–मंथन करने का अवसर प्रदान करता है कि समरस और सशक्त भारत की परिकल्पना साकार करना एक पर्व की तरह है‚ जिससे व्यक्ति‚ वर्ग और समाज से ऊपर उठकर एक संगठित राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी का एक ही नारा है–‘सबका साथ‚ सबका विकास’‚ ‘सबका विश्वास’। ऐसे में पांच हजार वर्षों के हमारे सांस्कृतिक स्वरूप को संगठित रखते हुए हमें अनेकता में एकता की पहचान को बनाए रखते हुए देश को सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ाना होगा।
गणेशोत्सव हमें यह चिंतन–मंथन करने का अवसर प्रदान करता है कि समरस और सशक्त भारत की परिकल्पना साकार करना एक पर्व की तरह है‚ जिससे व्यक्ति‚ वर्ग और समाज से ऊपर उठकर संगठित राष्ट्र का मार्ग प्रशस्त हो। प्रधानमंत्री मोदी का एक ही नारा है–‘सबका साथ‚ सबका विकास’। ऐसे में पांच हजार वर्षों के हमारे सांस्कृतिक स्वरूप को संगठित रखते हुए हमें अनेकता में एकता की पहचान को बनाए रखते हुए सकारात्मक सोच के साथ आगे बढ़ाना होगा…..