कश्मीर के साथ कश्मीरी पंडितों का नाम अपृथक भाव से जुड़ा है। कश्मीर और कश्मीरियत क्या हैॽ क्यों यहां के निवासी केवल पंडित शब्द से संबोधित होते हैंॽ क्या यहां पंडित (एक वर्ण) को छोड़कर दूसरे वर्णों के लोग नहीं रहते थेॽ इन स्वाभाविक जिज्ञासाओं पर यहां हम गहराई से विचार करेंगे।
प्राचीन काल से ही काशी और कश्मीर‚ दोनों अपनी ज्ञान परंपरा के लिए विख्यात थे। जाति‚ वर्ग से ऊपर उठकर काशी ज्ञान और शिक्षा की अद्भुत नगरी बन गई। काशी के समकक्ष ही कश्मीर भी अपने ज्ञान की परंपरा के कारण पुरातन काल से विख्यात हुआ। आज भी काशी और अन्य स्थानों पर अपने बच्चों के यज्ञोपवीत और अक्षर ज्ञान समारोह के अवसर पर प्रतीक रूप में कश्मीर की दिशा में सात कदम चलने का एक अनुष्ठान होता है। इसका तात्पर्य है कि काशी की ज्ञान परंपरा कश्मीर तक पहुंचे बिना सार्थकता सिद्ध नहीं कर सकती क्योंकि कश्मीर भारतीयों की ज्ञान‚ आस्था‚ शिक्षा‚ दर्शन की उद्गम स्थली है। अलबरूनी ने लिखा है कि कश्मीर हिंदू विद्वानों की सबसे बड़ी पाठशाला है। यह भी कहा जाता है कि मुगल राज कुमार मोहम्मद दारा शिकोह भी कश्मीर में संस्कृत पढ़ने आया था। खैर‚ तथ्य जो भी हों‚ इतना तो निर्विवाद है कि तमाम देशों से लोग भारत में कश्मीर के शिक्षा केंद्रों में संस्कृत सीखने आते थे। विश्व प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ ‘राज तरंगिणी’ भारत के धर्म दर्शन और सांस्कृतिक एकात्मता का हजारों वर्ष पुराना प्रामाणिक इतिहास ग्रंथ है। विश्व के इतिहास में इस दृष्टि से यह ग्रंथ कीर्तिमान स्थापित करता है कि इस ग्रंथ में शताब्दियों तक एक के बाद एक कई लेखकों ने कश्मीर के क्रमिक घटनाक्रम को लिखा है। यह ग्रंथ प्रमाण है कि अनेक शताब्दियों तक इस वीरभूमि के सपूतों ने विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों को शौर्य के बल पर रोका। कल्हण ने राजतरंगिणी ग्रंथ में गोनन्द नाम के कश्मीरी सम्राट का उल्लेख किया है और यही कालखंड महाराज युधिष्ठिर के राज्याभिषेक का भी है यानी कश्मीर का ज्ञात इतिहास महाभारत के समय के साथ चलता है। कश्मीर की घाटी में शंकराचार्य मंदिर का अस्त व्यस्त स्वरूप आज भी प्राचीन इतिहास की कहानी कहता है। काशी की तरह ही कश्मीर में भी सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोग आकर बसे थे। ब्राह्मण‚ क्षत्रिय ‚वैश्य‚ शूद्र‚ सभी थे कश्मीर में। परंतु कश्मीर की बात आते ही कश्मीरी पंडित ही क्यों कहा जाता हैॽ प्रश्न जितना गहरा है‚ उतना ही कश्मीर की उदात्त सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पहचान से जुड़ा हुआ भी है। कश्मीरियत का गौरवशाली पक्ष है कि इसने छोटे–बड़़े‚ वनवासी‚ नगरवासी सभी को ज्ञान का समान अधिकारी माना। जाति–वर्ग से ऊपर उठकर सभी को पंडित अर्थात ज्ञान बांटने और ज्ञान पाने का अधिकारी मानकर समाज को एक रस कर दिया। सभी को पंडित बनने का अधिकार था कश्मीर की भूमि पर‚ इसलिए यह भूमि धरती का स्वर्ग कहलाई। शैव दर्शन जैसे ज्ञान के उद्गम स्थल कश्मीर की जातीय पहचान ही पंडित हो गई। कश्मीरी लोग ही पंडित हो गए। कश्मीर की पहचान हो गए कश्मीरी पंडित। पंडित शब्द कश्मीरियत‚ जिसे भारतीयता भी कह सकते हैं‚ का पर्याय बन गया जिसने हजारों वर्षो से अपने दर्शन की ओर ध्यान आकृष्ट किया। सभी वर्णों को ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित करने वाली भूमि है कश्मीर।
कश्मीर में जितने भी भवनों के ध्वंसावशेष या भग्नावशेष मिलते हैं‚ उन सब के नाम हिंदू देवस्थान हैं–यथा–शारदा तीर्थ‚ त्रिपुरेश्वर‚ शिवभूतेश्वर‚ सिद्ध पद‚ पंचाल धर‚ आदि। कश्मीर की पर्वत „श्रृंखलाओं के नाम भी इसके इतिहास का प्रमाण हैं–यथा–हर मुकुट‚ ब्रह्म शिखर‚ नाग पर्वत‚ महादेव पर्वत‚ शिवालिक „श्रृंखलाएं। सभी शिव से जुड़े संस्कृत नाम। राजतरंगिणी में उत्तर गंगा का नाम आता है‚ जिसके पास प्राचीन तीर्थ स्थल नंदी क्षेत्र‚ जो आज नंद कोट के नाम से पहचाना जाता है‚ स्थित है। पास ही कनक वाहिनी नदी‚ जो आज की कनकई नदी‚ और वैदिक नदी वितस्ता‚ जो आज झेलम नाम से विख्यात है‚ कश्मीर की पहचान है। काशी को भगवान शिव की नगरी मानते हैं‚ और कश्मीर शैव दर्शन का उद्गम स्थल है। ज्ञाननिष्ठ‚ राष्ट्रनिष्ठ कश्मीरियत को सीने से लगाए कश्मीरी पंडित स्वाभिमान के साथ संघर्ष करते हुए अपने धर्म और धरती से जुड़े रहे हैं। आतंकी घटनाएं उनका मनोबल तोड़ने के लिए बार–बार सिर उठाती रही हैं। माता सती के देश कश्मीर और कश्मीरियत को सुरक्षित रखने के लिए कश्मीरी पंडितों का स्वाभिमान सुरक्षित रखना सरकारों की प्राथमिकता होनी चाहिए।