जब देश में पहली बार चुनाव हुए तो लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे। ऐसे में ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ (एक देश, एक चुनाव) का विचार कोई नया नहीं है। शायद संविधान निर्माताओं को इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि पार्टियां टूटेंगी, नेता दल बदलेंगे, सरकारें गिरेंगी और मध्यावधि चुनाव होंगे। लेकिन केन्द्र और राज्यों में सरकारें इतनी बार गिरीं, इतनी बार बनीं कि अब हर 6 महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते हैं। चुनाव के चक्कर में केन्द्र हो या राज्य सरकारें विकास और सुधार के काम नहीं कर पातीं, कड़े फैसले नहीं ले पातीं। सब डरते हैं कि कहीं लोग नाराज़ न हो जाएं, हमारा वोट न फिसल जाए। इसलिए एक साथ चुनाव कराने का विचार तो सही है, पर इसे लागू करना मुश्किल होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नीयत इस मामले में कितनी भी साफ हो, कांग्रेस तो आदतन मोदी सरकार के हर फैसले का विरोध करती है। कांग्रेस के नेताओं को मोदी के हर काम के पीछे साज़िश दिखाई देती है। बाकी पार्टियां भी गुण-अवगुण की बजाय ये देखेंगी कि उनका फायदा है या नुकसान। इसलिए ये उम्मीद करना तो बेमानी है कि ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ को राजनीतिक दल राजनीति से ऊपर उठकर देखेंगे। असल में कुछ विपक्षी दलों को लगता है कि एक साथ चुनाव हुए तो उनके पास इतने संसाधन ही नहीं होंगे कि वो मोदी का मुकाबला कर पाएं। दूसरा डर ये है कि विरोधी दलों के पास मोदी जैसा कोई मज़बूत राष्ट्रीय नेता नहीं है जो सब को देश भर में होने वाले एक चुनाव में एक साथ लेकर चल सके। लेकिन ये बात वो कह नहीं सकते। इसलिए इधर-उधर की बातें कर रहे हैं।
कोई कह रहा है कि मोदी राज्य सरकारों को कमज़ोर करना चाहते हैं, कोई कह रहा है कि ये RSS का एजेंडा है, कोई कह रहा है कि मोदी देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू कर देंगे। लेकिन ये सब बेकार की बातें हैं। असली बात मैंने आपको बता दी कि कई नेताओं को लगता है कि ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ हुआ तो सारी पार्टियां मिलकर भी मोदी का मुकाबला नहीं कर पाएंगी और उन्हें ये भी लगता है कि अगर मोदी ने ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ कराने का इरादा किया है तो इसके पीछे कोई बड़ा ज़बरदस्त प्लान होगा। ये डर और ये शक़ ज़्यादातर पार्टियों को इस फैसले के साथ खड़ा होने से रोकेगा।