160 दिन बाद ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक भारत के सबसे लंबे वक्त तक मुख्यमंत्री रहने वाले नेताओं की सूची में टॉप पर पहुंच जाएंगे. अब तक यह रिकॉर्ड सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग के नाम पर दर्ज हैं.
हालांकि, पटनायक को यह रिकॉर्ड तोड़ने के लिए 2024 का चुनाव जीतना होगा. ओडिशा में 147 सीटों के लिए विधानसभा और 21 सीटों के लिए लोकसभा का चुनाव प्रस्तावित है.
24 साल से ओडिशा की सत्ता के सूत्रधार नवीन पटनायक के लिए इस बार का चुनाव इसलिए भी अहम माना जा रहा है, क्योंकि-
- बीजेपी और कांग्रेस ने स्थानीय स्तर पर मजबूत घेराबंदी कर दी है. कई जिलों में बने नए समीकरण ने बीजेडी को परेशान कर दिया है.
- आईएएस अधिकारी वीके पांडियन के आने के बाद बीजेडी की आंतरिक राजनीति में उत्तराधिकार की लड़ाई तेज हो गई है.
ऐसे में सबसे बड़ा सवाल है कि इस बार ओडिशा की रपटीली राह पर पटनायक गाड़ी सरपट दौड़ा पाएंगे?
गुजराल राजनीति में लाए, वाजपेई ने संजीवनी दी
यह वाकया 1997 का है. अप्रैल 1997 में 81 साल की उम्र में बीजू पटनायक की मृत्यु हो गई. बीजू के निधन के वक्त केंद्र में इंद्र कुमार गुजराल की सरकार थी. प्रधानमंत्री गुजराल ने नवीन को राजनीति में आने के लिए कहा.
नवीन ने गुजराल के ऑफर को स्वीकार कर लिया और अस्का लोकसभा सीट से दावेदारी ठोक दी. हालांकि, जल्द ही नवीन को यह आभास हो गया कि केंद्रीय राजनीति में उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं है.
उन्होंने दिसंबर 1997 में पिता के नाम पर खुद की पार्टी बीजू जनता दल बना ली, जिसका उद्देश्य ओडिशा को अग्रणी बनाना था. इंडिया टुडे मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में नवीन पटनायक कहते हैं- मुझे पिता की विरासत तो मिली, लेकिन विशेषाधिकार नहीं.
1998 के लोकसभा चुनाव में नवीन पटनायक की पार्टी ने बीजेपी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा. 21 में से 16 सीटों पर एनडीए को जीत मिली. पटनायक वाजपेई सरकार में केंद्रीय खान मंत्री बनाए गए.
साल 2000 में पटनायक की किस्मत ने यूटर्न लिया. विधानसभा के चुनाव में बीजेडी गठबंधन को 106 सीटों पर जीत मिली. अकेले बीजद को 68 सीटें मिली. पटनायक पार्टी विधायक दल के नेता बने और पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली.
पटनायक ही बन गए जीत का फैक्टर, 5 प्वॉइंट्स
2004 में पटनायक ने लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव करवाने का फैसला किया. पटनायक की दलील थी कि इससे ओडिशा जैसे गरीब राज्यों का पैसा बचेगा. 2004 चुनाव में बीजेडी गठबंधन को 93 सीटों पर जीत मिली.
पटनायक इसके बाद फिर कभी पीछे नहीं मुड़े. 2009, 2014 और 2019 में उन्होंने रिकॉर्ड जीत दर्ज की.
2014 में सीएसडीएस के एक सर्वे के मुताबिक 58 प्रतिशत लोगों ने नवीन पटनायक को खुलकर वोट देने की बात कही थी. 38 प्रतिशत लोगों ने ओडिशा के विकास को सही माना था और उसके नाम पर मतदान करने की बात कही थी.
ऐसे में आइए जानते हैं कि ओडिशा की सियासत में पटनायक कैसे बन गए जीत के फैक्टर…
1. विकास की बात की, टाइमिंग पर फोकस किया- मुख्यमंत्री बनने के बाद नवीन पटनायक ने सबसे ज्यादा फोकस विकास पर ही किया. उन्होंने बिना किसी झगड़े में पड़े केंद्र और राज्य की योजनाओं को लोगों तक पहुंचाने का काम किया.
पटनायक का 5T (ट्रांसफॉर्मेशन) फॉर्मूला ओडिशा में काफी पॉपुलर है.
जानकारों के मुताबिक विकास के फॉर्मूले ने ही ओडिशा में जाति और धर्म आधारित राजनीति को सक्सेस नहीं होने दिया. पटनायक जिस कराना जाति से आते हैं, उसकी आबादी ओडिशा में 1 प्रतिशत से भी कम है.
इसके मुकाबले अन्य पिछड़े और दलित-आदिवासियों की आबादी काफी ज्यादा है.
2. सत्ता के केंद्र को विभाजित नहीं होने दिया- नवीन पटनायक ने कभी भी बीजेडी और ओडिशा सरकार में सत्ता का 2 केंद्र नहीं बनने दिया. जब भी किसी नेता ने इस तरह की कोशिश की, समय से पहले उन्होंने उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया.
आउट होने वाले नेताओं की लिस्ट में बैजयंत पांड्या, दामोदर राउत, सौम्य रंजन और प्रियरंजन महापात्र जैसे कद्दावर नाम हैं. पटनायक भ्रष्टाचार के नाम पर करीब डेढ़ दर्जन मंत्रियों को भी पद से हटा चुके हैं. यह बात दीगर है कि अधिकांश नेताओं पर बाद में कोई कार्रवाई नहीं हुई.
3. लोकसभा से अलग विधानसभा की रणनीति बनाई- लोकसभा और विधानसभा साथ-साथ होना नवीन पटनायक के लिए फायदेमंद साबित हुआ है. पटनायक की पार्टी लोकसभा में कई बार फिसड्डी साबित हुई है, लेकिन विधानसभा चुनाव में हर बार उसने रिकॉर्ड जीत हासिल की है.
इतना ही नहीं, जिन जगहों पर लोकसभा में उसे हार मिली, वहां विधानसभा में बीजेडी ने बंपर जीत दर्ज की.
उदाहरण के लिए- 2019 में बारगढ़ लोकसभा सीट पर बीजेडी के उम्मीदवार हार गए, लेकिन इस लोकसभा की सातों विधानसभा सीट पर बीजेडी ने जीत दर्ज की.
इसी तरह का रिजल्ट बालासोर, बोलंगीर, कालाहांडी और भुवनेश्वर सीट का भी रहा.
4. गठबंधन को लेकर बड़े दलों को कन्फ्यूज रखा- हर चुनाव से पहले बड़े दलों को गठबंधन को लेकर नवीन पटनायक ने कनफ्यूज रखा. 2008 में पटनायक ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया, जिसके बाद यह चर्चा शुरू हुई कि पटनायक कांग्रेस के साथ जा सकते हैं.
चुनाव के आखिर तक पटनायक ने यह कन्फ्यूजन बनाए रखा. यही काम उन्होंने 2019 में भी किया. नरेंद्र मोदी से अच्छी मित्रता की वजह से पटनायक के एनडीए में जाने की अटकलें लगी, लेकिन पटनायक ने आखिर वक्त में अकेले लड़ने का फैसला किया.
5. निर्दलीय और छोटे-छोटे दलों के वर्चस्व को खत्म किया- ओडिशा में 2004 तक निर्दलीय और अन्य दल काफी ज्यादा प्रभावी थे, लेकिन पटनायक ने इन दलों के वर्चस्व को खत्म किया.
2004 में निर्दलीय और अन्य दलों को विधानसभा की 16 सीटों पर जीत मिली थी, जो 2019 आते-आते 0 पर सिमट गई. 2004 में निर्दलीय और अन्य दलों का वोट प्रतिशत 20 के आसपास था, जो अब सिमट कर 5 प्रतिशत के आसपास रह गया है.
पटनायक की राह इस बार कितना आसान?
बड़ा सवाल है कि नवीन पटनायक की राह इस बार के चुनाव में कितना आसान रहने वाला है. यह सवाल इसलिए भी कि क्योंकि पहली बार ओडिशा में कांग्रेस और बीजेपी काफी मजबूती से चुनाव लड़ रही है.
पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस ने ओडिशा में आदिवासी और दलित का मजबूत गठजोड़ तैयार किया है. कांग्रेस दक्षिण और पश्चिम ओडिशा के 8 जिलों पर प्रमुख रूप से फोकस कर रही है. इन जिलों में कभी कांग्रेस के पास मजबूत जनाधार था.
कांग्रेस ने बीजेडी और बीजेपी के एक होने का दावा कर राज्य में कैंपेन शुरू किया है. हालांकि, कांग्रेस के सबसे बड़ा संकट स्थानीय नेताओं का न होना है.
वरिष्ठ पत्रकार ज्योति प्रकाश महापात्रा के मुताबिक पिछले 10 साल में कुछेक नेता को छोड़ दिया जाए तो कांग्रेस के सभी बड़े नेता पलायन कर चुके हैं. स्थानीय स्तर पर लड़ने के लिए पार्टी के पास मजबूत चेहरे की कमी है.
पार्टी ने इस कमी को देखते हुए नए चेहरे को टिकट देने का फैसला किया है. कांग्रेस प्रभारी अजय कुमार के मुताबिक कांग्रेस ने टिकट वितरण के लिए नई स्ट्रैटेजी तैयार की है.
राय कहते हैं- इस बार उन्हीं को टिकट मिलेगा, जो जमीन पर काम कर रहे हैं. हमारे कई नेता घर वापसी भी कर रहे हैं, जो किसी कारणवस पहले चले गए थे.
बीजेपी भी इस बार ओडिशा में किसी तरह की कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती है. पार्टी ने हाल ही में घोषणापत्र के लिए लोगों से सुझाव लेने का अभियान चलाया है. पिछले चुनाव में बीजेपी को ओडिशा की 23 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.
23 सीटें ऐसी थी, जहां पर पार्टी उम्मीदवार को 10 हजार से कम वोटों से हार का सामना करना पड़ा था. बीजेपी इस बार विकसित ओडिशा, विकसित भारत कैंपेन के जरिए ओडिशा में उलटफेर की रणनीति पर काम कर रही है.
हालांकि, पटनायक की पार्टी बीजेपी से गठबंधन की रणनीति पर भी काम कर रही है. कहा जा रहा है कि सब कुछ ठीक रहा तो 1-2 दिन में दोनों दलों के बीच गठबंधन का ऐलान हो सकता है.
समझौते के तहत बीजेपी लोकसभा में तो बीजेडी विधानसभा चुनाव में ज्यादा सीटों पर लड़ सकती हैं.
दोनों के बीच गठबंधन की चर्चा को लेकर ज्योति प्रकाश कहते हैं- यह दोनों पार्टियों के लिए फायदेमंद है. ओडिशा में कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं है. अगर बीजेपी और बीजेडी अलग-अलग चुनाव लड़ती है, तो हो सकता है कांग्रेस को कुछ फायदा हो जाए.
ज्योति प्रकाश के मुताबिक दोनों पार्टी यह नहीं चाहेगी कि उनके वोटरों में लड़ाई का फायदा कांग्रेस को हो.
तीन मुद्दे अहम, नवीन बाबू पर सबकी नजर
बात मुद्दे की करें तो ओडिशा में बेरोजगारी एक अहम मुद्दा है. पिछले चुनाव में भी इसने काफी असर डाला है. कांग्रेस के मुताबिक 30 लाख लोग रोजगार की तलाश में ओडिशा से पलायन कर गए.
राज्य में कृषि संकट भी लोगों के लिए एक बड़ा मुद्दा है. राज्य के 6 में से 5 क्षेत्र तटीय है और यहां के किसान मॉनसून पर ही निर्भर है. समय-समय पर चक्रवात आने की वजह कई बार खड़ी फसलें ही तबाह हो जाती है.
पटनायक के लिए बीजेडी की अंदरुनी राजनीति भी कम टेंशन बढ़ाने वाला नहीं है. कोरापुट, पुरी समेत कई जिलों की स्थानीय स्तर पर गोलबंदी को छोड़ दें तो राज्य स्तर पर भी पार्टी के भीतर गुटबाजी हावी है.
इसकी बड़ी वजह पार्टी में चल रही उत्तराधिकारी की लड़ाई है. हाल ही में इस लड़ाई को शांत करने के लिए नवीन पटनायक ने बड़ा बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि जनता तय करेगी कि मेरा उत्तराधिकारी कौन होगा?
कहा जा रहा है कि पटनायक ने यह बयान हालिया संकट को खत्म करने के लिए दिया था.