देश में चुनावी बिगुल बज चुका है। चुनाव आयोग ने नगालैंड‚ मेघालय और त्रिपुरा में विधानसभा चुनाव तारीखों का ऐलान कर दिया है‚ तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं को अगले साल होने वाले लोक सभा चुनाव तक के लिए बिना भेदभाव जन संपर्क में जुट जाने का टास्क दे दिया है। भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा का कार्यकाल भी अगले लोक सभा चुनाव तक बढ़ा दिया गया है। इस साल नौ राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं।
अगले साल लोक सभा चुनाव से पहले ये चुनाव निश्चय ही जनमत का बड़़ा संकेतक होंगे। दरसअल‚ इन नौ राज्यों से लोक सभा की कुल सदस्य संख्या का लगभग एक–चौथाई सदस्य चुन कर आते हैं। इनमें से लगभग तीन–चौथाई सीटें फिलहाल भाजपा के पास हैं। एक और अहम् तथ्य यह कि इनमें से चार बडे राज्यों–कर्नाटक‚ मध्य प्रदेश‚ राजस्थान और छत्तीसगढ में भाजपा और कांग्रेस के बीच लगभग सीधा मुकाबला है। इसलिए इनसे इतना संकेत तो मिल ही जाएगा कि लोक सभा चुनाव में मोदी की भाजपा को मुख्य चुनौती किस दल से मिलेगी या अगर कोई विपक्षी गठबंधन आकार लेगा तो उसमें कांग्रेस की क्या भूमिका होगी। मल्लिकार्जुन खड़़गे का गृह राज्य कर्नाटक कांग्रेस और भाजपा‚ दोनों के लिए अहम है। दक्षिण भारत में अपने के लिए प्रवेश द्वार बने कर्नाटक में भाजपा पिछले विधानसभा चुनाव में बहुमत के आंकडे से नौ सीटें पीछे छूट गई थी। सबसे बडे दल के नेता के नाते राज्यपाल ने बीएस येदियुरप्पा को ही मुख्यमंत्री पद की शपथ तो दिलवा दी‚ पर वह बहुमत का जुगाड नहीं कर पाए।
भाजपा की फजीहत हुई और कांग्रेस–जनता दल सेक्यूलर गठबंधन सरकार गठन का मार्ग प्रशस्त हो गया। ७८ विधायकों के साथ कांग्रेस दूसरा बडा दल थी‚ लेकिन भाजपा विरोध में उसे महज ३७ विधायकों वाले जनता दल सेक्यूलर के नेता एचडी कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री स्वीकार करना पडा। आहत येदियुरप्पा शांत नहीं बैठे और लगभग सवा साल में ही १६ गठबंधन विधायकों के विधानसभा से ही इस्तीफे और दो निर्दलियों के पाला बदल से फिर भाजपा की सत्ता में वापसी हो गई। कांग्रेस भी पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और प्रदेश अध्यक्ष डी के शिवकुमार के गुटों में बंटी है‚ पर भाजपा भी येदियुरप्पा को ले कर सशंकित है। जहां तक बात छत्तीसगढ की है तो यहां तीन कार्यकाल से सत्तारूढ भाजपा को बेदखल कर कांग्रेस ने शानदार बहुमत से सरकार बनाई थी‚ लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसे सत्ता सबसे बडे दल के नाते‚ निर्दलियों और छोटे दलों के समर्थन से मिल पाई। बेशक नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के टकराव में मध्य प्रदेश में कमलनाथ सरकार २०२० में गिर भी गई। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच महत्वाकांक्षाओं के टकराव से ऐसा ही संकट राजस्थान में भी कांग्रेस सरकार पर गहराया था‚ पर मध्य प्रदेश से मिले सबक से समय रहते सक्रिय हो कर आलाकमान उसे टालने में सफल हो गया।
हां‚ कांग्रेस के लिए संतोष की बात यह हो सकती है कि भाजपा में भी पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को ले कर सबकुछ सामान्य नहीं है और भितरघात की आशंका से सत्ता के दोनों दावेदार दल ही ग्रस्त हैं। छत्तीसगढ भाजपा में सब कुछ सामान्य लगता है‚ जबकि सत्तारूढ़ कांग्रेस मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टी के सिंहदेव के बीच बंटी हुई है। तेलंगाना में‚ टीआरएस को बीआरएस बना कर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को हवा देने वाले के. चंद्रशेखर राव की सरकार है। दोनों राष्ट्रीय दलः भाजपा और कांग्रेस हाशिये पर हैं। लगता नहीं कि विधानसभा चुनाव में बड़़ा उलटफेर हो पाएगा‚ पर लोक सभा चुनाव पर निश्चय ही कांग्रेस–भाजपा की नजर रहेगी। २०१९ में भी तेलंगाना की १७ लोक सभा सीटों में से एनडीए और यूपीए क्रमशः चार और तीन सीटें जीतने में सफल रहे थे। हां‚ तेलंगाना में सत्ता बरकरार रखने के बाद केसीआर की महत्वाकांक्षाओं को अवश्य पंख लग जाएंगे‚ जो विपक्षी ध्रुवीकरण की कवायद में जुटे हैं।
ज्यादातर पूर्वोत्तर राज्यों में वैसे तो सत्ता समीकरण केंद्र में सत्तारूढ दल और क्षेत्रीय दलों के रिश्तों पर निर्भर करते हैं‚पर त्रिपुरा का चुनाव दिलचस्प हो सकता है। असम के बाद त्रिपुरा पूर्वोत्तर में दूसरा राज्य है‚ जहां भाजपा ने सत्ता पर अपनी पकड बना ली है। असम उसने कांग्रेस से छीना तो त्रिपुरा वाम मोर्चा से। दिलचस्प इसलिए भी कि ममता बनर्जी को रोकने लिए पश्चिम बंगाल में एकता का नाकाम प्रयोग करने वाले कांग्रेस–वाम मोर्चा अब त्रिपुरा में भाजपा को रोकने लिए चुनावी गठबंधन करेंगे। यह तो हुआ सत्ता के सेमीफाइनल का समीकरण‚ अब फाइनलः त्रिपुरा मेघालय में लोक सभा की २–२ सीटें हैं‚ जबकि नगालैंड–मिजोरम में १–१ सीट ही है। हालांकि हमने एक वोट से केंद्र सरकार गिरते देखी है‚ पर वर्तमान परिदृश्य में दो–चार सीटों से ज्यादा फर्क पडने वाला नहीं। इसलिए अन्य पांच राज्यों की बात करते हैं। तेलंगाना की १७ लोक सभा सीटों में से सर्वाधिक ९ पिछली बार भी सत्तारूढ दल टीआरएस के खाते में गई थीं‚ लेकिन शेष चार राज्यों के मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव के चंद महीने बाद हुए लोक सभा चुनाव में अपना मन बदल लिया था। कर्नाटक की २८ में से २५ सीटें भाजपा जीत गई। मध्य प्रदेश‚ राजस्थान और छत्तीसगढ के मतदाताओं ने भाजपा को नकार कर राज्य की सत्ता तो कांग्रेस को सौंपी‚ पर लोक सभा में मोदीमय हो गए।
राजस्थान में‚ मित्र दल रालोपा की एक सीट मिला लें तो सभी २५ भाजपा की झोली में गइ‚ जबकि मध्य प्रदेश में छिंदवाडा सीट के अलावा शेष सभी २८ सीटें भाजपा के खाते में आई। छत्तीसगढ का जनादेश थोडा अलग रहा। ११ में से ९ लोक सभा सीट भाजपा के खाते में गइ तो शेष २ कांग्रेस के। विधानसभा और लोक सभा चुनाव में लगभग उलट परिणाम का अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावना नजर नहीं आती‚ पर मतदाता का मन कब बदल जाए–कौन जानता है।